बुधवार, 9 जनवरी 2008

दिल्ली की सड़कों पर हर महीने बरबाद हो रहे हैं 42 करोड़ घंटे

दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में काम के लिए बाहर निकलने वाले लगभग 70 लाख लोग हर दिन ऑफिस आने-जाने में औसतन 2 से ढाई घंटे बरबाद करते हैं। यानी दिल्ली सहित पूरा एनसीआर रोज़ क़रीब पौने दो करोड़ मानव घंटे केवल सड़कों पर गंवा देता है। एसोचैम ने ये जानकारी देते हुए पूरे महीने में बरबाद हो रहे मानव घंटों का आंकड़ा 42 करोड़ तक बताया है। ये एक भयानक आंकड़ा है।

इस आंकड़े को अगर उस दौरान सड़क पर फंसी गाड़ियों से मिला दें तो बरबाद होने वाले ईंधन का गणित और भयानक होगा। इन आंकड़ों के पीछे एक ही कारण है ट्रैफिक जाम। एक ऐसी समस्या जिससे जितना निकलने की कोशिश की जा रही है, उतनी ही यह बढ़ती जा रही है। रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली में इस समय 60 लाख गाड़ियां हैं जो 2010 तक बढ़कर 75 लाख तक हो जाएंगी। पूरे एनसीआर को ले लें, तो 2010 तक इसके 1.6 करोड़ तक पहुंच जाने का अनुमान है। इतनी गाड़ियां जब ट्रैफिक जाम में फंसी हों तो उनसे निकल रहे ज़हरीले धुएं और जल रहे फालतू ईंधन की आप कल्पना ही कर सकते हैं।

ट्रैफिक जाम से होने वाले भारी नुकसान का इस पर्यावरणीय और व्यक्तिगत पहलू के अलावा एक बहुत महत्वपूर्ण सामाजिक पहलू भी है। 8-9 घंटे का ऑफिस टाइम, आधे से 1 घंटे का रास्ता और 2 से ढाई घंटे का जाम- यानी ढाई से साढ़े तीन घंटे की थकाऊ यात्रा सहित साढ़े दस से साढ़े बारह घंटे का व्यस्त जीवन। इसके बाद घर लौट रहे व्यक्ति से आप किस तरह की पारिवारिक और सामाजिक ज़िम्मेदारी उठाने की उम्मीद कर रहे हैं। ऐसा थका व्यक्ति क्या एक अच्छा पति, एक अच्छा पिता, एक अच्छा पुत्र हो सकता है। ऐसा व्यक्ति क्या अपनी सामाजिकता को जीवित रख सकता है। बहुत पहले किसी चर्चा के दौरान मेरे एक मित्र ने कहा था कि अगर मोहनदास करमचंद गांधी या भगत सिंह का जन्म दिल्ली, मुंबई के किसी फ्लैट में हुआ होता तो वे कभी वो नहीं बन पाते जिसके लिए आज हम उन्हें याद करते हैं। बहुत ही गहरा बयान है ये। सोचिएगा।

साफ है कि ट्रैफिक जाम की समस्या परिवहन संबंधी सामान्य समस्या नहीं है। ये हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को भी गहराई से प्रभावित कर रही है। लेकिन उपाय क्या है? इस पर काफी कुछ कहा जा चुका है और मेरे पास इस बारे में कोई बहुत मौलिक विचार नहीं हैं। बिना निजी गाड़ियों को हतोत्साहित किए ट्रैफिक की विकराल होती समस्या पर काबू करना मुमकिन नहीं है। कार लोन जैसी सुविधाओं को ख़त्म करना होगा और 5 लोगों की क्षमता वाली गाड़ी में कम से कम 3 लोगों का चलना अनिवार्य करना होगा। लेकिन सरकार को ऐसे कदम उठाने की नैतिक स्वीकृति तब तक नहीं मिल सकती जब तक कि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को विकसित देशों की तर्ज़ पर तैयार नहीं कर लिया जाए। दिल्ली जैसे शहर में परिवहन व्यवस्था ठीक करने की जो कवायद आज चल रही है, वो 15 साल पहले हो जानी चाहिए थी और आज 15 साल आगे की योजना बन रही होनी चाहिए थी। लेकिन ...। बढ़ती जनसंख्या और मेट्रो शहरों में पलायन तो देश की मूल समस्या है ही और जब तक हम इन पर काबू नहीं पा लेते, ट्रैफिक की समस्या का स्थाई समाधान मुश्किल है। फिर भी महानगरों की ट्रैफिक समस्या बारूद के जिस ढेर पर बैठी है, वहां इन मूल और जटिल समस्याओं के समाधान का अनंतकाल तक इंतज़ार नहीं किया जा सकता।

सोमवार, 7 जनवरी 2008

कैरियर के लिए संबंधों को ठेंगा दिखाने में आगे हैं महिलाएं

मेरा ये लेख पत्रकारों के लिए नहीं है। क्योंकि जिस रिपोर्ट की चर्चा मैं करने जा रहा हूं, वो पत्रकार, ख़ासतौर पर टीवी पत्रकार अपने दैनिक अनुभव से जान चुके हैं। लेकिन दूसरे मित्रों के लिए ज़रूर ये एक नई सूचना साबित हो सकती है।

दरअसल अमेरिका के एक विश्वविद्यालय ने एक सर्वे के बाद खुलासा किया है कि लड़कियां कैरियर के लिए अपने भावनात्मक रिश्तों को ज़्यादा आसानी से ठेंगा दिखा सकती हैं। अब तक तो यही माना जाता रहा है कि लड़कियां ज़्यादा भावुक होती हैं और लड़के ही हैं, जो कैरियर के पीछे भागते रहते हैं। इस बात के लिए हम ज़रूर संतोष कर सकते हैं कि जिन 237 अंडरग्रेजुएट छात्र-छात्राओं को इस सर्वे में शामिल किया गया, वे सब अमेरिकी थे। अब क्योंकि मैं कोई समाजशास्त्री तो हूं नहीं, इसलिए ये दावा भी नहीं करता कि भारतीय महिलाओं के बारे में ऐसी राय नहीं बनाई जा सकती। फिर भी एक भारतीय होने के नाते इस बात से संतोष ज़रूर कर सकता हूं रिपोर्ट का ये निष्कर्ष भारतीय लड़कियों पर लागू नहीं होता।

चाहे अमेरिका में किया गया सर्वे भारतीय समाज पर लागू न होता हो, लेकिन कुछ वर्षों की पत्रकारिता का अनुभव कई बार पत्रकारिता में पहले निष्कर्ष की पुष्टि करता है। समाज जीवन के दूसरे क्षेत्रों में महिलाओं के शोषण की जो अवधारणा है, वो पत्रकारिता में आकर बहुत परिष्कृत हो जाती है। यानी शोषण-शोषित का संबध यहां कारोबार की शक्ल ले लेता है। यहां लेन-देन के सौदे से कैरियर की मंज़िलें तय की जाती हैं और इस रास्ते में भावनात्मक संबंध केवल सीढ़ियां ही होते हैं।

एक पत्रकार होने के साथ मैं एक बिहारी भी हूं, तो इतना कह सकता हूं कि रिपोर्ट का निष्कर्ष बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लड़कों पर भी पूरा ठीक बैठता है। कुछ गिने-चुने स्कूलों को छोड़ दें, तो बिहार और पूर्वी यूपी के बाकी लड़कों की पूरी किशोरावस्था एक हमउम्र लड़की से बातचीत करने की अभिलाषा में ही कट जाती है। वही लड़के जब पढ़ने के लिए दिल्ली आते हैं और ज़रा कोई लड़की उसका नाम लेकर क्या पुकार लेती है, इतने में ही बेचारे पिघल के बह जाते हैं। अब वे बेचारे क्या जाने दिल्ली का समाजशास्त्र। दिल्ली की लड़कियों को एक ओर तो कॉलेज में सुरक्षित महसूस करने के लिए एक लड़के की तलाश होती है, दूसरी ओर शॉपिंग वगैरह में साथ घूमने के लिए एक 'फ्रेंड' भी चाहिए होता है। बिहार और यूपी के लड़के इन कामों के लिए सबसे मुफीद होते हैं क्योंकि जनम-करम में उन्हें पहली तो लड़की मिली होती है, ऐसे में वे बस एकनिष्ठ भाव से उसी की सेवा में लग लेते हैं। सामाजिक संस्कारों की घुट्टी वैसे ही वे कंठ तक पीए हुए होते हैं, तो उनसे किसी दूसरी तरह की 'गड़बड़' का ख़तरा भी नहीं होता। वो तो लड़कों को कॉलेज ख़त्म होने के बाद पता चलता है कि उसके संबंधों की डोरी कैरियर की कैंची के सामने कितनी नाज़ुक है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और बालक बेचारा अपने कैरियर की जवानी में लड़खड़ाता रह जाता है।

इसी रिपोर्ट का एक दूसरा निष्कर्ष भी है। रिपोर्ट के मुताबिक पुरुष अपने विपरीत लिंगी संबंधों से ज़्यादा भावनात्मक सहारा लेते हैं। लेकिन निष्कर्ष का दूसरा हिस्सा कुछ और गंभीर सवाल भी उठाती है। रिपोर्ट का कहना है कि लड़कियों को जब भावनात्मक सहारे की ज़रूरत होती है तो उन्हें लड़कियों पर ही ज़्यादा भरोसा होता है। यानी लड़के उनके भरोसे के क़ाबिल नहीं हैं या फिर वो उनपर भरोसा करना नहीं चाहतीं।

मुझे खुशी होगी अगर कोई महिला इस पर अपनी राय दे, क्योंकि मैं इस निष्कर्ष से बिलकुल भी सहमत नहीं हूं। आप दो लड़कों में ऐसी दोस्ती देख सकते हैं, जहां कोई राज़ न हो। लेकिन दो लड़कियों में ऐसी दोस्ती नहीं हो पाती। लड़कियां लड़कों से तो कई बातें साझा कर लेती हैं, लेकिन बहुत अच्छी समलिंगी दोस्तों से बहुत कुछ छिपा जाती हैं, ऐसा मेरा निजी अनुभव है। लड़कियों में समलिंगी ईर्ष्या का भाव जितना प्रबल होता है, उतना लड़कों में नहीं होता। क्या आप भी मेरी राय से सहमत हैं?

रविवार, 6 जनवरी 2008

गुंडों, अपराधियों के देश में 'जेन्टिलमैन गेम' का हश्र

ऑस्ट्रेलिया दौरे पर गई भारतीय टीम के साथ जो कुछ भी हुआ, उसमें मुझे कुछ आश्चर्च नहीं है। आश्चर्य है कि भारतीय टीम और उसके प्रबंधन को क्या हो गया है। मेजबान सारी मर्यादाएं लांघ कर हमारा अपमान करता जाए, तो अतिथि के लिए मर्यादाओं की कोई बंदिश नहीं बचती। विश्व चैम्पियन के नाम पर इतराने वाली ऑस्ट्रेलियाई टीम के बारे में ये तो पहले से ही मशहूर है कि वे क्रिकेट का युद्ध मैदान में कम और बाहर ज्यादा लड़ते हैं। विपक्षी टीम के बल्लेबाजों को ओछी टिप्पणियों से चिढ़ाना और उनकी एकाग्रता भंग करना कंगारुओं की खेल रणनीति का ही एक हिस्सा है और ऑस्ट्रेलियाई मीडिया टीम की इस रणनीति में पूरा साथ देती है।

इस बार भी साइमंड्स ने जब काफी देर तक हरभजन सिंह पर फब्तियां कसी, तो चिढ़कर भज्जी ने भी 'कुछ' कह दिया। इस पर भज्जी को नस्लभेदी टिप्पणी का दोषी मानकर तलब कर लिया गया। लेकिन ऑस्ट्रेलियाई अखबारों ने साइमंड्स के अभद्र व्यवहार पर एक भी लाइन लिखना गवारा नहीं समझा। उल्टे वहां के अखबारों ने इस बारे में खूब कहानियां बनाईं कि मैच के बाद ड्रेसिंग रूम में भारतीय खिलाड़ियों ने आपस में क्या बातें कीं। किसी भी एक ऑस्ट्रेलियाई अखबार ने भारतीय टीम के साथ हो रहे अन्याय और पक्षपातपूर्ण अम्पायरिंग पर सवाल उठाने का साहस नहीं किया।

लेकिन जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा कि ये ऑस्ट्रेलियाइयों की संस्कृति है और मुझे इसमें कोई आश्चर्य नहीं हैं। ऑस्ट्रेलियाइयों की इस संस्कृति की जड़ें उनके इतिहास में है। ऑस्ट्रेलिया दरअसल अंग्रेज अपराधियों का उपनिवेश है। 1750 में ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति शुरू हुई और शुरू हुआ शहरी किस्म के अपराधों यानी छीनाझपटी, पॉकेटमारी, बटमारी का सिलसिला। उस समय ब्रिटेन में इस तरह के अपराधियों को रखने के लिए जेल जैसी अलग जगह नहीं हुआ करती थी। तो ब्रिटेन ने अपने इन अपराधियों को रखने के लिए अपने उपनिवेश अमेरिका का इस्तेमाल शुरू किया। क़रीब 40,000 ब्रिटिश अपराधी अमेरिका में फेंक दिए गए। लेकिन 1776 में अमेरिकी क्रांति शुरू होने के बाद ब्रिटेन को अपने अपराधियों का निर्यात बंद करना पड़ा। इसके बाद ब्रिटिश ज़मीन को समुद्र से जोड़ने वाली एकमात्र नदी टेम्स में खड़े जहाजों 'हल्क' में रखा जाने लगा। हल्क सड़े हुए युद्धक जहाजों को कहा जाता था, जो लड़ाई के लिए बेकार हो चुके थे। इसी बीच 1770 में कैप्टन जेम्स कुक ने ऑस्ट्रेलिया में Botany Bay पर उतर कर वहां ब्रिटेन का झंडा गाड़ दिया था। सो 1786 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट ने Botany Bay को अपराधियों का उपनिवेश बनाने का फैसला किया।

मई 1787 में कैप्टन आर्थर फिलिप की कमांड में 700 अपराधियों का पहला जत्था 11 जहाजों में भर कर ऑस्ट्रेलिया के लिए रवाना कर दिया गया। इनमें सबसे छोटा अपराधी 9 साल का था और सबसे बूढ़ी अपराधी 82 साल की थी। 252 दिनों की यात्रा कर दस्ता Botany Bay पहुंचा। लेकिन फिर कैप्टन फिलिप को महसूस हुआ कि वह जगह खेती के लिए अनुकूल नहीं थी, इसलिए उसने दस्ते को उत्तर में एक दूसरी जगह चलने को कहा। इस जगह का नाम कैप्टन फिलिप ने प्रधानमंत्री पिट के उपनिवेश मामलों के मंत्री लॉर्ड सिडनी के नाम पर सिडनी रखा। वही सिडनी जहां ऑस्ट्रेलियाइयों ने आज दूसरे टेस्ट मैच में बेईमानी और झूठ के बल पर भारत को हराया और फिर उछल-उछल कर इस जीत का जश्न मनाया।

1815 में नेपोलियोनिक युद्ध के ख़त्म होने के बाद कई और जहाज खाली हो गए और अपराधियों के निर्यात में और तेज़ी आ गई। केवल 1833 में ही 36 जहाजों में भरकर 7,000 अपराधी ऑस्ट्रेलिया भेजे गए और यह सिलसिला 1850 तक जारी रहा। ऑस्ट्रेलिया का तस्मानिया प्रांत पहला बाल अपराधी उपनिवेश बना जहां 9 से 18 साल तक के बाल अपराधियों को रखा जाता था। जब ये सभी ब्रिटिश अपराधी अपनी सज़ा का समय ख़त्म कर लेते थे, उसके बाद ये कहीं भी जाने और बसने के लिए स्वतंत्र थे। साइमंड्स, पोंटिंग, क्लार्क और उनके लिए अभियान चलाने वाले ऑस्ट्रेलियाई अखबार इन्हीं चोरों, बटमारों, झपटमारों और अपराधियों के वंशज हैं, इसीलिए उनसे नैतिकता या आत्मा की आवाज़ सुनने की उम्मीद ही बेकार है।

अब रही बात स्टीव बकनर और मार्क बेंसन के ग़लत फैसलों की। साइमंड्स को तीन बार और रिकी पोन्टिंग को दो बार आउट होने के बावजूद बचाने और वसीम जाफर, राहुल द्रविड़, सौरभ गांगुली को साफ तौर पर आउट नहीं होने के बावजूद आउट देने के इन अंपायरों के फैसलों में कोई मानवीय भूल की गुंजाइश नहीं है। ये साफ तौर पर बदमाशी और बेईमानी का मसला है। बकनर का भारत विरोधी रवैया पिछले 4-5 सालों में एक नहीं, बल्कि कई बार दिखा है। 2003-04 के भारतीय दौरे में सौरभ गांगुली ने बकनर को कैप्टन के रिपोर्ट में शून्य अंक दिया था। इस बार फिर शायद कुंबले कुछ ऐसा ही करें। लेकिन सवाल ये है कि ऐसी कौन सी मज़बूरी है जोकि भारतीय टीम को ऐसे मैचों का बहिष्कार करने से रोक रही है।

1981 में ऑस्ट्रेलियाई दौरे पर गई भारतीय टीम के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। मेलबोर्न के मैदान पर सुनील गावस्कर को ग़लत एलबीडब्ल्यू क़रार दिया गया था। गावस्कर दूसरे छोर पर खड़े अपने सहयोगी चेतन चौहान को लेकर मैदान से बाहर निकल गए। टीम मैनेजर विंग कमांडर एस के दुर्रानी ने गेट पर ही चौहान को रोककर उन्हें वापस भेजा और भारत आखिरकार 54 रन से जीता। ख़ैर, सवाल हार-जीत का नहीं है, सवाल जवाब देने का है। सहनशीलता तभी तक प्रशंसनीय है, जब तक वो व्यक्तिगत अपमान तक सीमित हो, लेकिन जब राष्ट्रीय स्वाभिमान पर हमला हो, तो मुंहतोड़ जवाब देना ही चाहिए। गावस्कर या गांगुली की तरह के साहसी फैसले के लिए एक ख़ास तरह के व्यक्तित्व की ज़रूरत है। जिस टीम का भाग्य शरद पवार और राजीव शुक्ला जैसे रीढ़विहीन और अवसरवादी लोग निर्धारित कर रहे हों, उसके कप्तान से ऐसे हुंकार की उम्मीद करना भी बेकार ही है। भारतीय टीम वहां क्रिकेट खेलने गई है, षडयंत्र की राजनीति करने नहीं। पिछले टेस्ट के बाद आईसीसी के दरवाजे पर भारत की गुहार के बावजूद दूसरे टेस्ट में किए गए षडयंत्र के बाद तो राष्ट्रीय स्वाभिमान का तकाज़ा यही है कि हमारी टीम को ऐसे मैच और ऐसी श्रृंखला का बहिष्कार कर फौरन वापस लौट आना चाहिए।

शनिवार, 5 जनवरी 2008

फूलपुर से फूलपुर तक का सफ़र

फूलपुर संसदीय सीट लगभग 43 साल बाद फिर चर्चा में है। आजादी के बाद के सत्रह सालों तक फूलपुर संसदीय सीट की चर्चा इसलिए होती थी क्योंकि इससे चुना गया एक सांसद देश की राजनीति का केन्द्र हुआ करता था। अपने समकालीन राजनेताओं के बीच सबसे विशाल और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कारण फूलपुर चर्चा में हुआ करता था। इस बार भी यह क्षेत्र अपने सांसद के कारण ही चर्चा में है। लेकिन अब उसका सांसद भारतीय राजनीति के दामन पर एक कलंक बनकर सामने आया है। 1964 में नेहरू की मौत के बाद फूलपुर ने ये तो सोचा भी नहीं होगा कि फिर कभी नेहरू जैसा कोई प्रतिनिधि उसे मिलेगा, लेकिन शायद उसने ये कल्पना भी नहीं की होगी कि अतीक अहमद जैसा कोई हत्यारा और भगोड़ा सांसद उसके मत्थे पड़ेगा।

वैसे दिलचस्प ये भी है कि अतीक अहमद की मौजूदा चर्चा का कारण उसका आपराधिक चरित्र नहीं है, बल्कि उसका समाजवादी पार्टी से निकाला जाना है। अतीक 6 महीने से पुलिस से बचने के लिए भागा फिर रहा था, इसलिए मुलायम यादव को शर्मिन्दगी हुई। उनकी पार्टी का सांसद और भगोड़ा। इसलिए उन्होंने कहा,"अतीक अहमद आपराधिक पृष्ठभूमि के नेता हैं। हमारी पार्टी में दागी और असामाजिक तत्वों के लिए कोई जगह नहीं है।" मुलायम जी की इस घोषणा से उनके शासन में उत्तर प्रदेश को अपराध मुक्त मानने वाले अमिताभ बच्चन जी के अलावा कितने लोग सहमत होंगे, भगवान जाने। जनवरी 2005 में इलाहाबाद (पश्चिम) से बहुजन समाज पार्टी के विधायक राजूपाल की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई थी। उसके बाद हुए उपचुनाव में मोहम्मद अशरफ ने चुनाव जीता और विधायक बना। मोहम्मद अशरफ सांसद अतीक अहमद का भाई है और राजूपाल की हत्या में इन दोनों को अभियुक्त बनाया गया। उस समय उत्तर प्रदेश में मुलायम यादव का शासन था। अतीक ने कुछ समय के बाद आत्मसमर्पण किया, लेकिन फिर उसे ज़मानत मिल गई। तब से वह ठाठ से पूरे उत्तर प्रदेश में घूमता रहा, पुलिस और प्रशासन को अपने आपराधिक कार्यों के लिए इस्तेमाल करता रहा और मुलायम जी की छत्रछाया में फलता-फूलता रहा। जब मायावती की सरकार बनी, तब से वह फरार है। और अब हत्या के 3 साल और फरारी के 6 महीने बाद एकाएक मुलायम को वह अपराधी और असामाजिक लगने लगा है। एक सवाल और पूछने का मन होता है कि अगर मुलायम के शासन में हत्या का आरोपी अतीक आत्मसमर्पण कर सकता है, तो मायावती के शासन में वही भागाभागा क्यों फिर रहा है। क्या इसलिए कि मुलायम के शासन में उसे ज़मानत का भरोसा था और मायावती के शासन में उसे ज़मानत नहीं मिल सकेगी। तो क्या अदालतें भी सत्ता के हिसाब से फैसले करती हैं। माननीय अदालतें माफ़ करेंगी, ये केवल एक सवाल है। अवमानना का अपराध करने का मेरा न तो इरादा है, न हिम्मत।

वैसे देखा जाए तो अतीक अहमद अपनी प्रजाति का अकेला राजनेता नहीं है। भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्या का आरोपी मुख्तार अंसारी अब भी जेल में है। ये वही मुख्तार अंसारी है जिसे पूरी दुनिया ने मऊ में जीप पर घूम-घूम कर दंगे कराते देखा था और बाद में उन्हीं दंगों पर बयान देते हुए मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश की विधानसभा में घोषणा की थी कि मुसलमान कभी गड़बड़ी नहीं करते, मऊ के दंगे तो विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल की करतूत थे। एक कवयित्री की हत्या के आरोप में जेल में बंद अमरमणि त्रिपाठी और दसियों हत्याओं का आरोपी सीवान का सांसद शहाबुद्दीन जैसे नामों की एक पूरी फेहरिस्त यहां दी जा सकती है। लेकिन मुझे लगता है कि अतीक अहमद एक ख़ास प्रतीक है।

भारतीय राजनीति ने फूलपुर से फूलपुर तक का एक चक्र पूरा किया है। ये राजनीति के नेहरू से अतीक तक के सफर की कहानी है। सैद्धांतिक और चारित्रिक रूप से नेहरू की समीक्षा हो सकती है और मेरा तो ख़ास तौर से मानना है कि नेहरू की विचारधारा ने देश की नींव में इतना बड़ा सुराख किया है जिसे भरने के लिए आज़ादी की एक और लड़ाई लड़ने की ज़रूरत होगी। लेकिन इसके बावजूद ये भी स्वीकार करना होगा कि राष्ट्रीय राजनीति में नेहरू के समान व्यक्तित्व वाला कोई दूसरा समकालीन नेता नहीं था। उसी नेहरू को चुनने वालों का प्रतिनिधि आज अतीक अहमद है। ये प्रतीक है भारतीय राजनीति में आई गिरावट का और इस बात का कि राजनीति में आया पतन दरअसल इस देश की जनता की रानजीतिक चेतना में आए पतना का ही अक्श मात्र है।

आतंकवाद के खिलाफ नपुंसक लड़ाई में दागा गया एक और चूका हुआ कारतूस

दिल्ली के उपराज्यपाल चाहते हैं कि दिल्ली की सड़क पर घूमने वाले हर इंसान की जेब में उसका परिचय पत्र हो। आतंकवाद के खिलाफ सरकार की लड़ाई का ये एक नया अस्त्र है। पहली नज़र में यह सही भी लगता है। पश्चिम के कई सभ्य और सुरक्षित देशों में ऐसे कानून पहले से ही हैं, तो देश की राजधानी में अगर ऐसा कानून बना है तो अच्छा ही है। लेकिन दिल्ली की सरकार ने इस फैसले के लिए जो कारण बताया है, वह बहुत ही हास्यास्पद है।

दिल्ली में घूमने वाले हर आदमी के पास उसका परिचय पत्र हो, इसका एकमात्र उद्देश्य तो यही लगता है कि बिना पासपोर्ट, वीज़ा के देश के भीतर घुसे किसी भी व्यक्ति को दबोचा जा सके। और इस तरह आने वाले वो आतंकवादी होते हैं, जो पाकिस्तान या बंगलादेश से प्रशिक्षण लेकर चोरी छिपे सीमा पार करते हैं। लेकिन आप सोचिए, किसी भी आतंकवादी हमले में जो पूरा नेटवर्क लगा होता है, उसमें कितने लोग ऐसे होते हैं कि जो सीधे पाकिस्तान या बांगलादेश से आते हैं। मुंबई के 1991 के धमाकों में सज़ा पाए 100 से ज्यादा लोगों में कितने ऐसे हैं, जो जन्म से विदेशी हैं। मुंबई ट्रेन धमाकों, दिल्ली के लाजपत नगर धमाके, वाराणसी के मंदिर और अदालत में हुए धमाकों और ऐसे अनगिनत धमाकों में जो भी औने-पौने जांच हुई है उनमें कितने ऐसे लोगों शामिल पाए गए हैं, जो देश में अवैध तरीकों से बिना वीज़ा के आए हैं। संसद पर हुए हमले में क्या दिल्ली का एक प्रोफेसर आरोपी नहीं था, रामपुर में सीआरपीएफ कैंप पर हुए हमले में क्या कश्मीर के एक हवलदार (पूर्व आतंकवादी) पर शक नहीं किया जा रहा है। इनमें से किसी को भी क्या दिल्ली पुलिस परिचय पत्र नहीं होने के कारण गिरफ्तार कर सकती थी। सुरक्षा एजेंसियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती आतंकवादियों के स्लीपिंग सेल हैं, जिनके सदस्य सालों तक बिना किसी गतिविधि के कहीं शिक्षक, क्लर्क या प्रोफेशनल के तौर पर काम करते रहते हैं और सही समय पर अपनी कार्रवाई को अंजाम देते हैं। ऐसे लोगों से निपटने में ये परिचय पत्र का फंडा कितना काम आने वाला है, उपराज्यपाल ही बेहतर समझा सकते हैं।

मान लें कि दिल्ली में पाकिस्तान और बंगलादेश से अवैध तरीके से सीमा पार कर आए कुछ सौ आतंकवादी घूम भी रहे हों, तो क्या सवा करोड़ दिल्लीवासियों में से उन्हें परिचय पत्र के आधार पर ढूंढ पाना आपको संभव लगता है। फिर अगर कोई आतंकवादी संसद परिसर में प्रवेश के लिए गृह मंत्रालय का जाली पास बनवा सकता है, तो एक फर्ज़ी परिचय पत्र का जुगाड़ कर लेना उसके लिए कौन सी बड़ी बात है।

आइए अब इस फैसले का एक और पहलू देखते हैं। दिल्ली की राजधानी में रोज़ देश भर से हज़ारों लोग रोज़ी-रोटी या बेहतर जीवन स्तर की तलाश में आते हैं। इनमें से ज़्यादातर बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से होते हैं जहां शिक्षा का स्तर सबसे कम है। ये ठीक है कि मतदाता पहचान पत्र सबके पास होना चाहिए, लेकिन अगर किसी कारण से किसी का नहीं बना हो तो क्या पूरे देश में उसके लिए केवल जेल ही एक जगह है। ख़ासतौर पर तब जब खुद सरकार ने मतदान के अतिरिक्त और कहीं भी इसे अनिवार्य नहीं बनाया है। तो तय है कि ये फैसला पुलिसिया अत्याचार और भ्रष्टाचार को और खाद-पानी मुहैया कराएगा।

दरअसल उपराज्यपाल की यह युक्ति सरकार की उसी नपुंसक रणनीति का एक और अध्याय है, जो देश कई सालों से झेल रहा है। आतंकवाद की जड़ों पर प्रहार करने का साहस तो है नहीं, हर पत्ते पर पिले पड़े हैं। पूरा असम, पश्चिम बंगाल और पूर्वी बिहार बंगलादेशी घुसपैठियों के कारण बारूद के ढेर पर बैठा है, लेकिन वहां की हालत देखिए। जैसे ही कोई घुसपैठिया आता है, मंडल और प्रखंड स्तर के छुटभैये नेता पूरी ताक़त लगाकर सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें राशन कार्ड मिल जाए और मतदाता सूची में उनका नाम शामिल हो जाए। जबकि एक भारतीय नागरिक को इन्हीं दस्तावेजों के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना होता है। और यहां दिल्ली के उपराज्यपाल को परिचय पत्र चाहिए आपके भारतीय होने का।

उपराज्यपाल जी, अब तक तो देश का बच्चा-बच्चा जान गया है कि आतंकवाद की जड़ें कहां हैं,क्या आपको नहीं पता। और अगर पता है तो देश की जनता के साथ ये खेल क्यों खेल रहे हैं, अगर इन जड़ों पर प्रहार करने का साहस नहीं है तो आराम से सत्ता सुख के मज़े लीजिए, आम लोगों की ज़िंदगी को क्यों और मुश्किल बना रहे हैं।