रविवार, 17 फ़रवरी 2008

हिंदीभाषियों को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए

सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब में सिखों को अल्पसंख्यक मानने से इंकार किया है। देश की सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि पंजाब में सिख 'नॉन डोमिनेंट' (प्रभावहीन) वर्ग है। न्यायालय का कहना है कि ऐसी कोई गुंजाइश नहीं दिखती कि पंजाब में कोई ऐसी सरकार बने, जिससे सिखों के पंथिक अस्तित्व पर कोई खतरा पैदा हो। यह अलग बात है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) और पंजाब सरकार ने सिखों को अल्पसंख्यक प्रमाणित करने के लिए अपने हिसाब से सिख सम्प्रदाय की परिभाषा गढ़नी शुरू कर दी है। इस परिभाषा के हिसाब से पंजाब के क़रीब 1.65 करोड़ मतदाताओं में केवल 54 लाख सिख हैं, इसलिए सिख पंजाब में अल्पसंख्यक हैं। लेकिन सवाल तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी संख्या को लेकर कोई बहस छेड़ी ही नहीं है।

'अल्पसंख्यक' शब्द पर आजादी के बाद से बहस होती रही है। संविधान सभा में भी इस पर ख़ासी बहस हुई थी और अब भी लोकसभा और विधानसभाओं में इस पर बहस होती रहती है। लेकिन पंजाब में सिखों के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुप्रीम कोर्ट की राय ने इस बहस का एक नया ही आयाम खोल दिया है। संविधान में भी 'अल्पसंख्यक'की अवधारणा केवल इसी आधार पर रखी गई थी कि केवल कम संख्या में होने के कारण किसी के जातीय, भाषाई या मजहबी पहचान पर खतरा नहीं होना चाहिए। लेकिन यहां संख्या तो केवल कारण है, ध्येय है वर्ग विशेष की अस्मिता और उसके अस्तित्व की रक्षा। आज़ादी से पहले भारत में करीब 33 करोड़ हिन्दुस्थानियों के मुकाबले 80 लाख (आंकड़े मोटे अनुमान पर आधारित) अंग्रेज थे। तो क्या अंग्रेजों को अल्पसंख्यकों का दर्जा दिया जाना चाहिए था? बिल्कुल नहीं, क्योंकि वो शासक थे। समाज को उनसे नहीं, बल्कि उनसे समाज को खतरा था। दूसरी जातियों और वर्गों के तौर पर इस उदाहरण का विस्तार भी किया जा सकता है, लेकिन फिर मैं उस विषय से भटक जाउंगा, जो मैंने शीर्षक के तौर पर छेड़ा है।

संवैधानिक तौर पर मजहबी अल्पसंख्यकों के जितना ही ध्यान भाषाई अल्पसंख्यकों की अस्मिता पर भी दिया गया है। फिर अगर प्रभावशालिता के लिहाज से देखें, तो क्या हिंदीभाषी इस देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक नहीं हैं। किसी भी संस्थान में हिंदी बोलने वाला वर्ग सबसे निरीह और उपेक्षित होता है। किसी भी द्विभाषी मीडिया ग्रुप में हिंदी माध्यम से जुड़ा पत्रकार हमेशा दूसरे दर्ज़े का दंश झेलता है। किसी भी सरकारी कार्यालय में हिंदी में आवेदन लिखने वाला या हिंदी में अपनी बात कहने वाला हाशिए पर खड़ा होता है। हिंदी भाषी प्रदेशों के मां-बाप का सबसे बड़ा सपना है कि उनका बच्चा अमेरिकी तरीक़े (एक्सेंट) से धाराप्रवाह अंग्रेजी बोले। हिंदी भाषी क्षेत्र के सरकारी हिंदी स्कूलों से पढ़े किसी भी छात्र को कॅरियर के मैदान में कूदते ही हिंदी पर अपनी मज़बूत पकड़ जीवन की सबसे बड़ी कमजोरी लगने लगती है। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश (इन राज्यों को एक साथ पुकारने के लिए बीमारु शब्द का भी इजाद किया गया है) के विद्यार्थियों से मिलिए। विज्ञान, गणित, इतिहास और दूसरे विषयों में शानदार प्रदर्शन के बावजूद ये मेधावी (हाइली इंटेलीजेंट) छात्र दिल्ली, मुंबई के मैकडोनाल्ड्स या केएफसी की काउंटर पर ऑर्डर लेने वाले भाई साहब के सामने सहमे खड़े रहते हैं। इसलिए कि भाई ने अगर अंग्रेजी में ऑर्डर पूछ लिया, तो क्या होगा।

अगर ये उदाहरण अल्पसंख्यक मनोविज्ञान का हिस्सा नहीं हैं, तो इस शब्द को खत्म कर दिया जाना ही बेहतर है। तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, मराठी, उड़िया, बंगाली जैसी भाषाओं के लिए खून बहाने की कसमें खाने वाले दलों और वर्गों की भीड़ लगी है, लेकिन हिंदी से रोजी-रोटी कमाने वाले लोग भी पहली फुर्सत में अंग्रेजी के पीछे दौड़ लगाने में नहीं चूक रहे। हिंदी पर सही मायनों में खतरा है। खतरा भाषा के तौर पर नहीं, संख्या के तौर पर नहीं, असर के तौर पर है, छवि के तौर पर है, डॉमिनेंस के तौर पर है। इसलिए क्या हिंदीभाषियों को अल्पसंख्यक का दर्ज़ा नहीं मिलना चाहिए?

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

"तो क्या हुआ अगर जोधाबाई अकबर की नहीं, सलीम की बीवी थी"

आज 'जोधा अकबर' रिलीज हो रही है और जैसा कि अब हमारे समाज का नियमित चरित्र होता जा रहा है, इस पर विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो गए हैं। कला के तौर पर सिनेमा की मेरी इतनी समझ नहीं है कि मैं इस फिल्म का कलात्मक विवेचन कर सकूं, लेकिन इस पर हो रहे विरोध के ऐतिहासिक-सामाजिक पहलुओं पर अपनी राय व्यक्त करने के लिए अपने को योग्य पा रहा हूं।

कला किस हद तक विचार अभिव्यक्ति का माध्यम है और कब यह अपनी सीमाओं का उल्लंघन कर किसी की निजता, उसके सम्मान या उसकी संवेदनाओं की हत्यारन बन जाती है, इस पर चर्चा होती रही है और मैंने भी पहले तस्लीमा नसरीन और फिदा हुसैन की तुलना पर चर्चा करते हुए खुद को अभिव्यक्त किया था। लेकिन 'जोधा अकबर' के विरोध के आयाम भिन्न हैं। इतिहासकारों को आपत्ति ये है कि फिल्म की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। इतिहास की तमाम किताबें खंगाल चुके इतिहासकार हतप्रभ हैं कि 1960 में किया गया के. आसिफ साहब का निर्देशन और पृथ्वीराज कपूर साहब का बेमिसाल अभिनय तमाम ऐतिहासिकताओं पर भारी कैसे हो सकती है? जब अबुल फज़्ल के 'अकबरनामा' तक में ज़िक्र की गई अकबर की 34 रानियों में से किसी का भी नाम जोधाबाई नहीं था, तो के. आसिफ और आशुतोष गोवरिकर कौन सा नया अकबरनामा लिखने की कोशिश कर रहे हैं?

ये सब सवाल जायज हो सकते हैं। किसी भी समाज और राष्ट्र के उत्थान या पतन में उसके इतिहास की भूमिका को देखते हुए ऐतिहासिक तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ करने की इजाज़त किसी को नहीं दी जानी चाहिए। लेकिन मेरा विचार है कि इतिहास को लेकर अति संवेदनशील होना भी ठीक नहीं। मेरे पिता, भाई या पत्नी द्वारा मेरे बारे में लिखी कहानी क्या इतिहास होगी? लालू चालीसा और नीतीश बत्तीसा क्या कल पवित्र ऐतिहासिक तथ्य हो जाएंगे? क्या हर सामाजिक घटना को देखने के दो, चार या छह नजरिए नहीं होते? अगर होते हैं, तो इतिहास किसे माना जाए? जिस दौर में शादियां राजनीतिक हित साधने का जरिया हुआ करती थीं, उस दौर में दिया गया पत्नियों का ब्यौरा क्या राजनीति नफा-नुकसान के बही-खाते से बाहर रहा होगा? इतिहास की ऐतिहासिकता और सत्यता पर मेरे इन तमाम सवालों के बावजूद ऐतिहासिक तथ्यों के प्रति मेरे सम्मान के कारण इतिहासकारों में 'अशोक', 'लगान' या 'जोधा अकबर' पर किए गए विरोध को मैं खारिज नहीं करता। ताज्जुब तो मुझे उस दूसरे वर्ग पर है, जो जोधा अकबर के खिलाफ एड़ी-चोटी एक किए हुए है।

राजपूत समाज को 'जोधा अकबर' से गहरी ठेस लगी है। लेकिन बहुत कोशिशों के बाद भी मैं यह समझ नहीं पाया कि ये ठेस किसलिए लगी है। राजस्थान के राजपूत संगठनों का कहना है कि जोधाबाई सलीम यानी जहांगीर की मां नहीं बल्कि पत्नी थीं। इसलिए फिल्म के माध्यम से ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिशों का वे हर संभव विरोध करेंगे। लेकिन एक जातीय समूह का इतिहास से ऐसा प्रेम क्यों? इसका जवाब देते हुए राजपूत संगठनों का कहना है कि जोधाबाई एक राजपूत थीं और इसलिए इस कुकृत्य से उनका जातीय स्वाभिमान आहत हो रहा है।

वाह रे जातीय स्वाभिमान। ये कैसा जातीय स्वाभिमान है जो अपने भौतिक सुखों के लिए अपनी बहु-बेटियों को बेचे जाने पर तो आहत नहीं होता, लेकिन एक फिल्मी कहानी से आहत हो जाता है। जोधाबाई पत्नी किसी की भी हों, इस बात में तो राजपूत संगठनों को भी कोई संदेह नहीं होगा कि वह आंबेर के राजा भार मल की सबसे बड़ी बेटी थीं। जोधाबाई के भाई का नाम भगवानदास था और अकबर के नवरत्नों में से एक मानसिंह जोधाबाई का रिश्तेदार था। शादी से पहले उनका एक नाम हीरा कुंअरी था, जो शादी के बाद मरियम-उज़-ज़मानी हो गया।

'जोधा अकबर' की ऐतिहासिकता पर मरने-मारने को तैयार राजपूत नेता क्या केवल अपना सामाजिक-राजनीतिक रसूख बढ़ाने के लिए अपनी बहन-बेटियों की शादी किसी इसाई या मुसलमान से करना पसंद करेंगे। पता नहीं, शायद कर भी लें क्योंकि भार मल, भगवानदास और मानसिंह उनके आदर्श हैं। राजस्थान की ही धरती ने एक और राजपूत वीर को जन्म दिया था, जो पूरी जिंदगी न केवल अकबर के खिलाफ संघर्ष करता रहा, बल्कि मुगल सल्तनत की छत्रछाया में आजीवन राज करने के अकबर के प्रस्ताव को भी लात मार दिया। क्योंकि वह वीर राज्य की नहीं राष्ट्र की लड़ाई लड़ रहा था। राष्ट्र गौरव के लिए दर-दर भटकने वाले और अपने बच्चों को घास की रोटी खिलाने वाले महाराणा प्रताप जैसे वीर देशभक्त राजपूत का तिरस्कार करने वाले कई दल और विचार इस देश में हैं, लेकिन उनपर इन राजपूत नेताओं का खून नहीं खौलता, लेकिन मुगलिया सल्तनत से अपनी नजदीकी बढ़ाने और अपना राज्य सुरक्षित रखने के लिए अपनी बहन-बेटियों को बेचने वाले भगवानदास और मानसिंह के सम्मान का उन्हें बहुत ख्याल है।

जोधाबाई चाहे अकबर की पत्नी हों या जहांगीर की, वह अध्याय राजपूतों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे हिंदू समाज के लिए शर्म की बात है। यह अध्याय है हमारे अपने पूर्वजों के बीच छिपे उस गद्दार खून का, जो अपनी सत्ता और अपना धन भंडार बचाने-बढ़ाने के लिए अपने परिवार, अपने संस्कार और अपने देश का सौदा करने से भी नहीं चूके। महाराणा प्रताप की पीढ़ियां तो खत्म हो गई, लेकिन भगवानदासों और मानसिंहों की पीढ़ियां अब भी हमारे समाज की ताकतवर गद्दियां संभाल रही हैं। इसलिए इतिहासकारों के लिए तो जरूर यह बहस का विषय हो सकता है कि जोधाबाई किसकी पत्नी और किसकी मां थीं, लेकिन भारत की जड़ों से प्यार करने वाले राष्ट्रभक्तों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि जोधाबाई अकबर की पत्नी थीं, या सलीम की।

शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

नेता बनाए नहीं जाते, नेता तो उभरते हैं

नेता मतलब क्या? नेता का नाम सुनते ही हमारे ध्यान में एक ओर गांधी, नेहरू, पटेल, वाजपेयी, लालू जैसे नाम ध्यान में आते हैं, तो दूसरी ओर डी पी यादव, शहाबुद्दीन, तस्लीमुद्दीन, मुख्तार अंसारी जैसे चेहरे भी आंखों के सामने घूम जाते हैं। लेकिन क्या ये दोनों तरह के नेता, नेता ही हैं। चरित्र, देशभक्ति, संस्कार की बात छोड़ दें, तो भी नेता बनने के लिए जनता का विश्वास और प्रेम तो चाहिए ही होता है। नेता बनाए नहीं जाते, नेता उभरते हैं। महात्मा गांधी, बाबा आम्टे, नाना जी देशमुख, राजेन्द्र सिंह, मेधा पाटकर, अरुणा राय जैसे सैकड़ों नेता हैं, जो कभी सांसद, विधायक या मंत्री नहीं बने, कोई
चुनाव नहीं जीते, लेकिन जनता का एक बड़ा एक वर्ग इन पर जान छिड़कता है। मतलब यह कि नेता जनता चुनती है। केवल मतपत्रों के जरिए नहीं, बल्कि दिल से। डी पी यादव, शहाबुद्दीन, तस्लीमुद्दीन, मुख्तार अंसारी जैसे जनप्रतिनिधि भले ही विधायिका का हिस्सा बन गए हों, लेकिन ये नेता नहीं हो सकते। क्योंकि इनको समर्थन करने वाले लोगों के मन में भी इनके प्रति प्यार नहीं है, भरोसा और सम्मान नहीं है। या तो भय है या फिर संकुचित स्वार्थ। साफ है कि नेताओं में दो वर्ग है- एक सरकारी नेता तो दूसरा जननेता। हां, एक जननेता भी जरूर सरकारी हो सकता है।
दरअसल नेताओं को लेकर मेरे मन में ऐसा विश्लेषण एक टीवी कार्यक्रम को देखकर आया। देश के सबसे बड़े मीडिया समूहों में से एक ने कुछ महीनों पहले देश का नेतृत्व खोजने के लिए एक चयन प्रक्रिया चलाई थी। आज इस प्रक्रिया का अंत (फाइनल) हुआ एक चैनल पर प्रसारित हो रहा था। रोज अखबारों और दूसरी जगह आ रहे विज्ञापनों के कारण इस फाइनल के स्मृति से फिसलने की संभावना कम थी। नियत समय पर मैंने चैनल खोला और फाइनल देखा। डेढ़ घंटे तक चले सवाल-जवाब और दूसरे चरणों को पार कर आखिर में जनता राउंड हुआ। और आखिर में दो नायकों, गुजरात के देवांग और उत्तर प्रदेश के आर के मिश्रा में से मिश्रा जी देश के महानायक (कार्यक्रम के संचालक अनुपम खेर दोनों फाइनलिस्टों को इसी विशेषण से संबोधित कर रहे थे) चुने गए। एक बात साफ कर दूं कि मैं इस पूरी प्रक्रिया की आलोचना नहीं कर रहा। डेढ़ घंटे की प्रक्रिया में मुझे कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। मिश्रा जी बंगलुरु में अपना जमा-जमाया कॅरियर छोड़ कर उत्तर प्रदेश में अपने गांव लौट चुके हैं और समाज के प्रति अपनी स्वघोषित जिम्मेदारियों (समाज सेवा शब्द मुझे बहुत ओछा लगता है) को पूरा करने में लगे हुए हैं। देवांग वकालत कर रहे हैं और पूरे देश के युवाओं में नेतृत्व का गुण पैदा करने की महत्वाकांक्षा लेकर एक राष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थान चलाना चाहते हैं। पैनल में किरण बेदी और जावेद अख्तर जैसी हस्तियां थीं। कार्यक्रम के अलग-अलग स्तरों पर अमर सिंह, अरुण जेटली, अभिषेक मनु सिंघवी, दिग्विजय सिंह, रविशंकर प्रसाद ने देवांग और मिश्रा जी से सवाल पूछे। समाज क्षेत्र के प्रतिष्ठित कुछ और भी सम्मानित लोग थे, जिन्होंने दोनों से सवाल पूछे और जनता को समझने का मौका दिया कि कौन देश का नेता होने के योग्य है।
मिश्रा जी मुझे अच्छे आदमी लगे और देवांग भी एक ईमानदार प्रत्याशी थे। उनमें से किसी का भी चुना जाना मुझे अच्छा ही लगता। क्योंकि लालू, मुलायम, मायावती जैसे नेतृत्वों को देखने के बाद 'जिसने गरीबी, शोषण देखा हो, वही गरीबों, शोषितों का दर्द समझ सकता है' जैसे जुमले मुझे बहुत खोखले और घटिया लगने लगे हैं। मुझे ईमानदारी ने लगता है कि देश के नेतृत्व ने चाहे गरीबी महसूस न किया हो, चाहे कृषि चक्र की जानकारी न रखता हो, चाहे शोषण की चक्की में न पिसा हो, उसे पढ़ा-लिखा और संवेदनशील ज़रूर होना चाहिए। देवांग और मिश्रा जी, दोनों में ये गुण दिखे। लेकिन फिर भी, मेरे मन में एक सवाल लगातार उठ रहा है। क्या कॉरपोरेट आयोजनों से हम देश के नेता का चुनाव कर सकते हैं। चयन प्रक्रिया बहुत ईमानदार और प्रामाणिक रखकर हम पढ़ा-लिखा, संवेदनशील और समाजोन्मुख प्रशासनिक अधिकारी तो चुन सकते हैं, लेकिन क्या हम चयन प्रक्रिया से ऐसे नेता भी चुन सकते हैं? और अगर हमने ऐसे लोग चुन भी लिए हैं, तो क्या वास्तव में उन्हें नेता कह सकते हैं? क्योंकि नेता बनाए नहीं जाते, नेता तो उभरते हैं। आपको क्या लगता है?