सोमवार, 14 अप्रैल 2008

नेपाल में माओवादियों की लोकतांत्रिक जीत

नेपाल में प्रचंड के नेतृत्व में हुई माओवादियों की जीत कोई सामान्य घटना नहीं है। अगर छह महीने पहले मैं यही लेख लिख रहा होता, तो शायद बिना हिचक माओवादियों के लिए आतंकवादी विशेषण का प्रयोग कर सकता था, लेकिन लोकतंत्र की तमाम बुराइयों और सड़न के बावजूद इसमें मेरी अप्रतिम आस्था के चलते अब मैं ऐसा नहीं कर सकता। माओवादियों को आतंकवादी कहना अब नेपाल की जनता को आतंक प्रेमी कहना होगा, जो कि सच नहीं हो सकता। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि माओवादियों की जीत को समाज और मानवता के हित में एक महान घटना मान लिया जाना चाहिए।

राजशाही के विरोध की लड़ाई लड़ रहे माओवादियों ने पिछले एक दशक में कितने गरीबों और निर्दोषों का खून बहाया है, कितनी मज़बूर और अबला स्त्रियों की प्रतिष्ठा नष्ट की है और कितने अबोध बच्चों को अनाथ बनाया है, इसका हिसाब तो खुद उनके पास भी नहीं होगा। सत्ता को बंदूक की नली से निकलने वाली कमोडिटी मानने वाले माओ के इन अनुयाइयों लोकतंत्र के जरिए सत्ता का सुख लेना कितना रास आएगा, यह तो वक्त ही बता सकता है लेकिन लोकतंत्र की अपनी इसी आस्था के कारण मुझे यह एक घोर विडंबना तो लगती है। पुलिस को बुर्जुआ समाज के शोषण का उपकरण मानने वाले ये 'रेडिकल लेफ्टिस्ट' सत्ता को प्रयोग किस तरह का समाज बनाने के लिए करेंगे, यह देखना सबसे ज्यादा रोचक होगा।

लेकिन यहां एक जो सबसे ज्यादा खतरनाक संभावना मेरे ध्यान में आती है, वह है नेपाल में लोकतंत्र का भविष्य। सोचिए, अगर अगले चुनाव में जनता इन्हीं माओवादियों को नकार देती है। क्या माओवादी शराफत से सत्ता अगली निर्वाचित सरकार को सौंप देंगे? मुझे तो इसकी संभावना शून्य फीसदी भी नहीं दिखती। खास तौर पर तब जब एक ओर भारत है, जिसके राजनीतिक नेतृत्व में ऐसी स्थिति में कुछ उखाड़ सकने की न इच्छा दिखती है, न शक्ति और दूसरी ओर चीन है, जो खुद एकदलीय शासन पद्धति और जनइच्छाओं के दमन से कम्युनिज्म की लाश ढो रहा है। तो इसीलिए मुझे यह भी लगता है कि माओवादियों के लोकतांत्रिक ढंग से सत्ता में आने के बावजूद इस घटना से लोकतंत्र के हर प्रेमी को चिंतित हो जाना चाहिए।

दूसरी ओर भारत के लिए माओवादियों का सत्ता में आना वैचारिक जुगाली, लोकतंत्र की प्रतिबद्धता और समाजशास्त्रीय शोध से कहीं बड़ा मसला है। प्रचंड के सत्ता के शीर्ष में आना भारत के लिए मोटे तौर पर तीन चुनौतियां तो तुरंत प्रस्तुत कर रहा है। पहला, चीन से व्यावहारिक समानता। एक दलीय शासन व्यवस्था वाला चीन क्योंकि विचार के तौर पर अब विश्व के अग्रणी पूंजीवादी देशों की जमात में शामिल है, तो इसे वैचारिक समानता कहना ग़लत होगा। भारत के प्रति चीन का रुख जगजाहिर है। तिब्बत दांतों में दबाए अरुणाचल पर चीन का ड्रैगन पंजा मारता ही रहता है। पाकिस्तान पर चीन का असर हमें पता है, म्यांमार में प्रभाव की लड़ाई हम चीन के हाथों लगभग हार चुके हैं, बंगलादेश चाहे चीन के असर में न हो, लेकिन आईएसआई वहां अपना खेल बिना किसी रुकावट के खेलती रहती है। अब केवल एक नेपाल था, जो अब तक चीन और आईएसआई के सीधे असर से काफी हद तक बचा हुआ था। प्रचंड के आने के बाद अब यह नहीं मानने का कोई कारण नहीं है कि चीनी ड्रैगन के दांत सीधे बिहार और यूपी की सीमाओं पर आ लगेंगे।

दूसरा खतरा भारत में पहले से ही विकराल हो चुके नक्सलियों को मिलने वाला नेपाली समर्थन होगा। तिरुपति से पशुपति तक का जुमला अब काफी पुराना हो चुका है। लाल पट्टी का असर बढ़ता जा रहा है। ऐसे में काठमांडू की सत्ता पर माओवादियों के कब्ज़े का क्या असर होगा, यह सोचकर ही सिहरन हो जाती है। यह देखने की बात होगी कि क्या अब नक्सलियों को एक पूरे देश का समर्थन हासिल होगा? तीसरा खतरा आईएसआई की गतिविधियों को लेकर हो सकता है। पाकिस्तान और बंगलादेश की सीमाओं पर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की ज्यादा कड़ी नजर होने के कारण पिछले करीब एक दशक से आईएसआई नेपाल को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाने की कोशश करती रही है। वैसे तो प्रचंड के आईएसआई प्रेम का कोई ठोस आधार नहीं दिखता, लेकिन दोनों के भारत विरोध की साझा ज़मीन तो है ही। फिर चीन के असर से भी नेपाल में आईएसआई को खुली छूट मिल सकती है।

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

मुझे राज ठाकरे पर गुस्सा क्यों नहीं आता?

राज ठाकरे चाहते हैं कि सभी उत्तर भारतीय, ख़ास तौर पर बिहारी और यूपी वाले महाराष्ट्र और मुंबई छोड़ कर चले जाएं। इसके लिए उन्होंने अपने चाचा जी से सीखे तमाम राजनीतिक पैंतरे आजमाए हैं। अपने गुंडों से कहकर उत्तर भारतीयों पर हमले करवाए हैं, बयानबाजियां की हैं और सबसे ताजा घटनाक्रम में निजी क्षेत्र की कंपनियों को धमकियां दी हैं। लेकिन इन सबके बावजूद मेरे मन में राज ठाकरे को लेकर कोई गुस्सा, कोई कटुता नहीं है। मैं पिछले महीने भर से समझने की कोशिश कर रहा हूं कि ऐसा क्यों है? मैं भी एक बिहारी हूं और अगर राज ठाकरे विशुद्ध क्षेत्रीय आधार पर बिहारियों को सरे बाज़ार दौड़ा रहे हैं, पीट रहे हैं, तो मेरा मन भी राज ठाकरे के खिलाफ ज़हर से भरा होना चाहिए। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? मैं परेशान हूं। फिर सोचता हूं कि शायद इसलिए गुस्सा नहीं आता, क्योंकि मैं एक बिहारी हूं। अगर मैं एक तमिल होता, नगा होता या गुजराती होता, तो मैं राज ठाकरे के इस कृत्य की तुलना राष्ट्रद्रोह से करता (जैसा कि बाबा रामदेव ने किया है), लेकिन एक बिहारी के तौर पर जब मैं इस पूरे प्रकरण पर सोचता हूं तो राज ठाकरे का अस्तित्व मुझे नजर ही नहीं आता। मुझे चलते-फिरते रोज ऐसे पचासों ठाकरे दिखते हैं और इसलिए इन्हें देखने का मेरा नजरिया थोड़ा अलग हो गया है। मुझे इन ठाकरेओं में नजर आती है एक मानसिकता। यह मानसिकता जो और ज्यादा, और ज्यादा पाना चाहती है, जो किसी चीज में बंटवारा पसंद नहीं करती, जो अपनी अयोग्यता को लेकर हमेशा असुरक्षित है।

आज पूरे देश में बिहारी एक गाली, एक अपमानजनक शब्द के तौर पर क्यों प्रचलित है? क्या वास्तव में इसके लिए राज ठाकरे दोषी हैं? आपको एक कहानी सुनाता हूं। एक दिन मैं और मेरे दो मित्र (तीनों बिहारी) कहीं बस का इंतजार कर रहे थे और आपस में कुछ चर्चा कर रहे थे। बगल में 70 साल के करीब के एक पंजाबी बुजुर्ग बैठे थे, जो सुंदरकांड का एक गुटखा पढ़ रहे थे। एकाएक उन्होंने कहा कि आप सब तो बिहार के ही हैं, अपने रेल मंत्री को क्यों नहीं कहते कि पास के स्टेशन पर ट्रेनों का स्टॉपेज बनवा दें। हमें कुछ समझ में ही नहीं आया कि एकाएक ये बात कहां से आ गई। फिर उन्होंने कुछ और बातें कहीं और फिर कहा, आप सब बेचारे जो यहां आकर धक्का खाते रहते हैं, आप लोगों के लिए वहीं कुछ क्यों नहीं कर दिया जाता है? और यह कहते ही वे उठे और वहां से चल दिए। हमने भी कुछ कहने की कोशश की, लेकिन वे सुनने को तैयार न थे। अपनी भड़ास निकाल कर वह तुरंत वहां से चले गए। मेरी भड़ास मेरे मन में रह गई। मेरे मन में कुछ सवाल थे, जो मैं उनसे पूछ नहीं पाया। मैं पूछना चाहता था कि आज से 60 साल पहले जब वे अपने बहू-बेटियों की इज्जत गवां कर और अपने भाइयों-भतीजों की लाशें लांघ कर दिल्ली पहुंचे थे, तब अगर बाकी के देश ने भी उनसे इसी भाषा में बात की होती तो वह क्या कहते? मैं उनसे पूछना चाहता था कि अगर देश के सबसे बड़े अखबारों में से एक में एक वरिष्ठ पदनाम के साथ काम कर रहा मैं अगर धक्के खा रहा हूं, तो हैदराबाद, बंगलुरु और अमेरिका में काम कर रहे हजारों-लाखों आईटी प्रोफेशनल्स को भी क्यों नहीं खुद को धक्का खाता हुए मानकर अपने-अपने घर लौट जाना चाहिए? मैं उनसे और बहुत कुछ पूछना चाहता था, लेकिन उन्होंने मौका ही नहीं दिया। बहरहाल, इस प्रकरण का एक अच्छा नतीजा यह निकला कि मुझे पता चल गया कि मुझे राज ठाकरे पर गुस्सा क्यों नहीं आता।

आज से सवा सौ साल पहले भी एक बिहारी को मुंबई में चलती ट्रेन से सारे सामान के साथ इसलिए नीचे फेंक दिया गया था, क्योंकि उसने पहले दर्जे में चढ़ने की हिमाकत की थी। उस समय उस बिहारी की पहचान एक भारतीय के रूप में थी, उसका नाम मोहनदास करमचंद गांधी था और मुंबई दक्षिण अफ्रीका में हुआ करती थी। उस समय दक्षिण अफ्रीका में जाने वाला हर भारतीय पिछड़ा, गरीब और अशिक्षित हुआ करता था भले ही वह ब्रिटेन में अंग्रेजी पढ़ा एक वकील ही क्यों न हो। वैसे ही आज की तारीख में देश के हर हिस्से में रहने वाला बिहारी गरीब, अशिक्षित और असभ्य ही हुआ करता है चाहे वो कितना भी पढ़ा-लिखा, प्रतिष्ठित और अच्छा नागरिक क्यों न हो। यह एक मानसिकता है। राज ठाकरे इसी मानसिकता का नाम है और यह तब तक नहीं बदलेगी, जब तक हम सब्जी बेचने, रिक्शा चलाने और ठेले खींचने के लिए दूसरे राज्यों की मिट्टी फांकते रहेंगे। टाटा किस राज्य के रहने वाले हैं, बिड़ला का जन्म कहां हुआ, अंबानी कहां की पैदाइश हैं? देखिए सभी मुख्यमंत्री और उद्योग मंत्री कैसे बिछे रहते हैं उनके आगे। यही अर्थ तंत्र है। जब हम महाराष्ट्र के किसी जिले में फैक्ट्री में मजदूरी करने जाएंगे तो राज ठाकरे की ठोकरें हमारे स्वागत करेंगी, लेकिन जब हम उसी जिले में वही फैक्ट्री खोलने जाएंगे, तो यही राज ठाकरे हमारे तलवे चाटते भी नजर आएंगे। अगर हम बिहारी देश भर में बिखरी ऐसी मानसिकताओं से निपटना चाहते हैं, तो हमें बिहार के अंदर एक गौरवशाली बिहार का निर्माण करना होगा। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक राज ठाकरे हमारे लिए या तो क्रूर आततायी बना रहेगा या फिर दयालु आश्रयदाता।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

हम खुद का सम्मान करना कब सीखेंगे?

आज से ठीक एक महीना पहले 10 मार्च को दलाई लामा के निर्वासन की 49वीं सालगिरह मना रहे शांतिप्रिय तिब्बती बौद्धों के दमन से शुरू हुआ ताजा संघर्ष अब विश्वव्यापी बन गया है। किसी को नहीं मालूम कि इन 30 दिनों में कितने तिब्बती बौद्धों को मौत के घाट उतार दिया गया, कितनों को जेल में अमानवीय अत्याचार झेलना पड़ रहा है और कितने गायब हैं। इन एक महीनों में मेरे सामने चीन और तिब्बत से जुड़े जो भी लेख और समाचार आए, मैंने सभी पढ़े। अमेरिकी स्पीकर का दलाई लामा से मिलना भी जाना और चीन में भारतीय राजदूत निरुपमा राव को रात के 2 बजे बुलाकर दी गई बंदरघुड़की के बाद उपराष्ट्रपित हामिद अंसारी का दलाई लामा से अपनी मुलाकात रद्द करना भी पढ़ा। विरोध प्रदर्शनों के कारण बीजिंग के लिए चले ओलंपिक मशाल के का तीन-तीन बुझना भी पढ़ा और भारत में संभावित विरोध को कुचलने के लिए की जा रही भारी सुरक्षा तैयारियों के कारण किरण बेदी का मशाल दौड़ में शामिल होने से इंकार भी सुना।

भारत सरकार की चीन नीति की यह खास बात है। भारतीय जनता की भावनाएं कुछ और हैं, सरकार की मजबूरी (?) कुछ और है। तभी तो चीन जाकर तिब्बत के चीन का अभिन्न हिस्सा होने का ऐलान करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज सार्वजनिक तौर पर उसे दुश्मन नंबर एक मानने की घोषणा करते हैं। तभी तो एनडीए सरकार में विदेश मंत्री रहे भारतीय जनता पार्टी के थिंक टैंक पार्टी लाइन से हटकर तिब्बत की पूर्ण स्वतंत्रता का समर्थन कर बैठते हैं। चीन से जुड़ी सरकार की कथित मजबूरी के पीछ छिपे डर को हम सभी भारतीय भी स्वीकार करते हैं। हम सब चीन की सैनिक शक्ति और राजनीतिक आक्रामकता से डरते हैं। हम मतलब जनता भी और सरकार भी। लेकिन प्रतिक्रिया हम दोनों की अलग-अलग है।

मैंने इस विषय पर जितने भी लेख इस दौरान पढ़े, सभी जाने-माने विद्वानों के थे, चीन मामलों के जानकारों के थे। ये वे विश्लेषक हैं, जो वर्षों से चीन की मिजाज, उसकी ताकत, उसके स्वभाव और उसके इतिहास पर नजर रख रहे हैं। मुझे एक भी, जी बिल्कुल, मैं जोर देकर कह रहा हूं कि एक भी लेख ऐसा नहीं मिला, जो इस मुद्दे पर भारत सरकार की नीतियों को सही कह रहा हो। ठीक है, हम सैनिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर चीन से उन्नीस हैं। तो क्या इसीलिए हम तिब्बत के प्रति अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को अनदेखा करते रहें? राष्ट्रवाद की बात से बहुतों को खुजली होने लगती है, तो आइए कूटनीति यानी डिप्लोमेसी की बात करते हैं। क्या चीन हमसे नाराज होकर हम पर हमला कर देगा? यह सोचना बेवकूफी है। क्योंकि अपने आर्थिक उत्थान को लेकर चीन हमसे ज्यादा गंभीर है, इसलिए 21वीं सदी के पहले दशक में वह ऐसा कभी नहीं करेगा। और फिर भी अगर हम मान लें कि वो ऐसा कर ही देगा, तो क्या हम अपनी चापलूसी से ऐसा होने से रोक लेंगे? क्या इसी डर से 1962 के पहले नेहरू ने चीन की सभी कारगुजारियों पर आंखें नहीं मूंद ली थीं?

इसी बात पर मेरी एक दिन जेएनयू के एक विद्वान मित्र (क्योंकि जेएनयू में हर कोई विद्वान ही होता है) से बातचीत हो रही थी। मैंने उनसे कहा कि नेहरू ने तिब्बत को चीन की गोद में बैठा दिया। उन्होंने मुझसे विद्वत्तापूर्ण मुस्कुराहट के साथ कहा, आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे उस समय भारत के बूते में कुछ कर लेना था। ऐसी बात अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की नासमझी में ही कही जा सकती है। वियतनाम चीन के सामने एक पिद्दी भर देश है, जिसे दुनिया में किसी बड़े देश का समर्थन नहीं है। लेकिन उसने चीन की नाक में दम तो किया हुआ है ही न। और जहां तक न रोक पाने का सवाल है, तो भारत तो तवांग में चीनी सैनिकों के घुसकर बुद्ध की मूर्ति तोड़ पाना भी नहीं रोक पाता है। फिर क्या हम अरुणाचल भी चीन को सौंप दें? खैर, मेरा सवाल भारतीय कम्युनिस्टों से नहीं है क्योंकि ऐसा होने पर शायद चीन से ज्यादा खुश वहीं होंगे जो आज भी चीन द्वारा 1962 में हड़पी गई भारतीय ज़मीन को विवादित भूमि मानते हैं।

चीन ने निरुपमा राव को रात के 2 बजे बुलाकर एक सूची दी, जिसमें उन जगहों के नाम थे, जहां ओलंपिक मशाल के दौरान विरोध प्रदर्शन होने का डर है। क्या यह सूची दिन में नहीं दी जा सकती थी? भारत सरकार ने विरोध जताना तो दूर, उपराष्ट्रपति की दलाई लामा से पहले से तय मुलाकात भी रद्द कर दी। और भारत के तमाम पिलपिले रुख के बाद भी जब चीन ने 15 देशों के राजनयिकों को तिब्बत का जायजा लेने के लिए आमंत्रित किया, तो उसमें भारत को जगह नहीं दिया गया। दूसरी ओर अमेरिका की तीसरी सबसे शक्तिशाली शख्सियत (नैन्सी पेलोसी) सात समुन्दर पार कर दलाई लामा से मिलने आईं, फ्रांस के राष्ट्रपति ने सार्वजनिक तौर पर ओलंपिक खेलों में भाग नहीं लेने की संभावना जताई, लेकिन इन दोनों देशों के राजनयिक उस टीम में शामिल किए गए। मोरल ऑफ द स्टोरी यही है कि जो अपना सम्मान खुद नहीं करना जानता, दुनिया उसे ठोकरों पर ही रखती है। कहानी का ट्विस्ट यह है कि जिस बात को आम जनता समझ रही है, चीन को समझने वाले तमाम विद्वान समझ रहे हैं, रक्षा विश्लेषक और सेना के अधिकारी समझ रहे हैं, उसे साउथ ब्लॉक में बैठे सरकारी बाबू और हमारा पिलपिला राजनीतिक नेतृत्व क्यों नहीं समझ पा रहे हैं।