रविवार, 25 मई 2008

राजदीप के सवाल पर जयंती का 'वफादार' जवाब

राजदीप सरदेसाई का एक सवाल है, जो उन्होंने कांग्रेस नेता जयंती नटराजन से पूछा। जयंती कुछ भी जवाब दें, राजदीप के सवाल से उठने वाले सवाल वाकई मजेदार हैं। राजदीप जानना चाहते हैं कि जिस एस एम कृष्णा को कर्नाटक की सक्रिय राजनीति में उतारने के लिए महाराष्ट्र के राज्यपाल पद से इस्तीफा दिलाया गया, उन्हें पूरे प्रचार अभियान के दौरान कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी क्यों नहीं दी गई। यहां तक तो ठीक है। लेकिन इसके बाद राजदीप ने जो सवाल पूछा और जयंती ने जो जवाब दिया, वह बहुत मजेदार है।

राजदीप ने पूछा कि कृष्णा के साथ इस तरह की रणनीति के लिए जिम्मेदार कौन है, इसके लिए जवाबदेही किसकी होगी। जयंती को चाहिए था कि वे अपने पुराने नेता और पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव की शैली में मुस्करा कर शांत रह जातीं। क्योंकि देश की राजनीति का ककहरा जानने वाला आदमी भी जानता है कि कृष्णा को राज्यपाल पद से इस्तीफा दिलाना सोनिया-राहुल के अलावा किसी और के वश की बात नहीं थी। कृष्णा को कर्नाटक की जिम्मेदारी देने या न देने का फैसला करने की औकात कांग्रेस में सोनिया-राहुल के अलावा किसमें है? फिर अगर कृष्णा को अगर राज्यपाल से केवल इस एक चुनाव के लिए इस्तीफा दिलाया गया, तो साफ था कि उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया जाना चाहिए था। क्या जयंती बता सकती हैं कि यह अधिकार कांग्रेस में किसके पास है?

लेकिन जिस पार्टी की पूरी राजनीति एक परिवार के प्रति वफादारी के एलान पर टिकी हुई हो, उसके किसी नेता से चुप रहने की राजनीतिक ईमानदारी की अपेक्षा भी मुश्किल है। इसलिए जयंती ने कहा, हम जरूर इसकी समीक्षा करेंगे। मतलब सोनिया की असफलता के लिए एक बार फिर कुछ और गर्दन कटेंगे। खैर, राजशाही में होता भी तो यही है।

शनिवार, 24 मई 2008

युवराज के दौरों से फिर तन सकेगा कांग्रेस का 'बहुरंगी' शामियाना?- 2 (अंतिम)

इसके बाद की कहानी भी दिलचस्प है। पटेल के बेटे-बेटियों का हममें से कोई नाम तक नहीं जानता, लेकिन नेहरू की बेटी पूरे देश की बेटी बन गई। गांधी जी की गोद में खेलती इंदिरा से लेकर फिरोज से विवाह के बंधन में बंधती इंदिरा तक की तस्वीरें, देश की धरोहर बनती गईं। इंदिरा को लिखी नेहरू की चिट्ठियों से साफ है कि नेहरू आजादी के पहले से ही उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने की योजना बना चुके थे। इसके कारण समझना भी मुश्किल नहीं है। जवाहरलाल अपने जमाने के देश के गिने-चुने वकीलों में से एक मोतीलाल के बेटे थे। गोखले सरीखे विशाल कद वाले राजनेता का उनके घर आना-जाना था। राजनीति उन्हें विरासत में मिली थी। उनके पास आनंद भवन जैसा विशाल महल था। उनके पास पिता से मिली आलीशान विरासत थी। पटेल के पास कुछ नहीं था। राजनीति में उनका प्रवेश न अपने पारिवारिक रसूख के कारण था, न किसी महान राजनीतिक हस्ती से करीबी के कारण। देश के प्रति जज्बा और जनता से उनके दिल का रिश्ता ही उन्हें राजनीति में लेकर आया। इसलिए वह कभी गांधी जी को नेता मानने के बावजूद, उन्हें असीम सम्मान देने के बावजूद वह कभी उनके व्यक्तित्व में विलीन नहीं हुए। और इसलिए उनकी राजनीतिक धारा भी उनके साथ ही खत्म हो गई।

सुभाष चन्द्र बोस हों या तिलक, भगत सिंह हों लाला लाजपत राय, उन्होंने अपने सिद्धांतों की राजनीति की। न दूसरों की विरासत का बोझ ढोया, न किसी के ढोने के लिए अपनी विरासत का बोझा बनाया। लेकिन नेहरू ने वही किया। उनकी राजनीति का उद्देश्य साफ था। देश की जनता ने सोचा एक राजकुमार अगर अपना राजमहल छोड़ हमारे लिए सड़क पर आया है, तो यह उसका त्याग है। उसी त्याग की विरासत इंदिरा को मिली। शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने तक इंदिरा का कद बहुत बड़ा नहीं हुआ था। लेकिन अपनी निष्ठा की दुहाई देने वाले अर्जुन सिंह जैसे नेताओं की पहली पीढ़ी के सामने संकट था। शास्त्री जी जैसे नेताओं के रहते उनका साम्राज्य नहीं चल सकता था। इसलिए इंदिरा को मजबूत करने का काम शुरू हुआ जिसका परिणाम कांग्रेस के विभाजन के तौर पर सामने आया। इंदिरा ने तमाम राजनीतिक प्रपंच कर अपने विरोधियों को पटखनी दी, अवैध तरीके से चुनाव जीतीं और फिर अपनी सत्ता पुख्ता करने के लिए आपातकाल लगाया। लेकिन वह सब उनका बलिदान था। जैसे उन्होंने यह सब कुछ इसीलिए किया था क्योंकि उन्हें पता था कि 31 अक्टूबर 1984 को सतवंत सिंह और बेअंत सिंह उन्हें अपनी गोलियों का निशाना बनाने वाले हैं। इंदिरा जी की हत्या के बाद देश अनाथ हो गया। 80 करोड़ की जनता में इंदिरा जी के बड़े बेटे राजीव को छोड़कर एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो प्रधानमंत्री बन सके। इसलिए यह जानते हुए भी कि 1989 की 21 मई को श्रीपेरुंबुदूर में लिट्टे के हमले में उनकी मौत हो जाएगी, वे प्रधानमंत्री बने। जानते हुए इसलिए कह रहा हूं कि केवल तभी उनके प्रधानमंत्री बनने को बलिदान कहा जा सकेगा। उसके बाद सालों तक ना-ना कहने के बाद इटली की गलियों में खेलकर बड़ी हुईं और ब्रिटेन में पढ़ी-लिखीं सोनिया जी, जो राजीव जी से प्रेम करने के कारण पूरे भारत की बहू बन गईं, कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। फिर उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर बलिदान की वह गाथा लिख दी, जो त्रेता युग के
राम-भरत प्रकरण के बाद दिखी ही नहीं थी। यह अलग बात है कि राम ने जंगल में जाकर जो गलती की थी, उसे न दुहराते हुए सोनिया जी ने अपने निवास 10, जनपथ को देश सेवा का वह केन्द्र बनाया जिसके कारण दुनिया की 100 सबसे प्रभावशाली हस्तियों की फोर्ब्स की सूची में प्रधानमंत्री को तो जगह नहीं मिल सकी, सोनिया जी जरूर उसमें शामिल हो गईं। अब त्याग और बलिदान की यही गाथा लिखने की तैयारी युवराज कर रहे हैं।

तो क्या कांग्रेस का बहुरंगी शामियाना फिर तन पाएगा। मुझे तो मुश्किल लगता है। क्योंकि अब जनता उतनी भावुक नहीं रही। जनता अब अपने जीवन में वास्तविक बदलाव होते देखना चाहती है। एक गरीब, तंगहाल, अछूत माने जाने वाले दलित के घर देश के सबसे बड़े ब्राह्णण का रुकना जरूर इस उपेक्षित समाज के मन पर एक अच्छी छाप छोड़ेगा। लेकिन उसके जाने के बाद उसकी झोपड़ी क्या महल बन जाएगी? क्या थाने का हवलदार उस पर डंडा फटकारना बंद कर देगा? गांव के ठाकुर साहब या पंडित जी क्या उसे हिकारत की नजर से देखना बंद कर देंगे? दूसरी ओर क्या कांग्रेस का संगठन ऐसा है, जो मन पर पड़े इस अच्छे छाप को बैलेट पेपर पर हाथ छाप में बदल पाएगा? इन सभी सवालों का जवाब नकारात्मक है।

दूसरी एक जो बात उड़ीसा के एससी, एसटी सम्मेलन में हुई, उसके भी दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। युवराज की बैठक से सभी गैर एससी, एसटी नेताओं, कार्यकर्ताओं को बाहर कर दिया गया। इसका उन कार्यकर्ताओं के मन पर क्या असर हुआ होगा? संगठन शास्त्र में हर कार्यकर्ता की भूमिका चुंबक की होती है, जो सामान्य लोहे को पहले तो खुद से चिपका कर संगठन में ले आता है और फिर धीरे-धीरे लंबे संपर्क से उसे भी चुंबक यानी कार्यकर्ता बना देता है। नए सदस्यों को पार्टी के संस्कार में दीक्षित करना भी अंतिम पंक्ति के कार्यकर्ता की ही जिम्मेदारी होती है। ऐसे में नए कार्यकर्ताओं में अपमानबोध होना या अपने कॅरियर को लेकर उनके मन में असुरक्षा का भाव पैदा होना, संगठन की कब्र खोदने के लिए काफी है।

इन सबके बावजूद अप्रैल-मई की जलती गर्मी में धूल भरे रास्तों पर घूमते हुए हर तरह से सुविधाविहीन घरों में राहुल गांधी का रुकना और देश के सबसे ज्यादा वंचित समाज की जरूरतों और उनके दुखों को समझने की कोशिश करना मुझे एक ऐसी ईमानदार कोशिश लगती है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए। अगर राहुल इनमें से कुछ भी न करें तो भी अपने जीवन काल में उनका देश का प्रधानमंत्री बनना तय है। ऐसे में देश की उनकी समझ, एक आम आदमी की परेशानियों की समझ और संगठन को जमीनी स्तर पर देखने से बनी उनकी समझ का दूरगामी फायदा उनकी पार्टी और देश को होगा, यह मानने में मुझे कोई परेशानी नहीं है। राजनाथ सिंह जब भाजपा के अध्यक्ष बने थे तो भी मेरा मानना यही था कि क्योंकि वह कभी एक राष्ट्रीय नेता नहीं रहे, तो उन्हें 2 साल का समय देश के हर प्रखंड में जाकर वहां के पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच 2-3 दिन रहने, उनकी समस्याओं को समझने और संगठन से परिचय करने में लगाना चाहिए। लेकिन राजनाथ सिंह का मानना कुछ और था। उन्होंने इस समय का सदुपयोग पार्टी में दूसरी पंक्ति के अन्य नेताओं को निपटाने में, अपने बेटे की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति करने, उत्तर प्रदेश में पार्टी का अपराधीकरण करने और ठाकुरवाद फैलाने में करना ज्यादा जरूरी समझा। परिणाम सामने है कि भाजपा एक अचेत विपक्ष बन कर रह गई है।

तो अगर लेख का निचोड़ देना हो तो मैं यही कहूंगा कि युवराज यानी राहुल गांधी के जमीनी दौरों से यह उम्मीद तो नहीं है कि पार्टी एक बार फिर 50 और 60 के दशक का रुतबा पा लेगी, लेकिन खुद राहुल के लिए और पार्टी के लिए इसके कुछ फायदे हो सकते हैं। बशर्ते कि राहुल खुद पार्टी को जातिगत आधार पर बांटने का राजनीतिक खेल न खेलें और एक ऐसी पार्टी बनाने की कोशिश करें जहां पहले से मजबूत जातियां कमजोरों का हाथ पकड़ कर पार्टी प्लेटफॉर्म पर खींचने को तैयार हों।

गुरुवार, 22 मई 2008

युवराज के दौरों से फिर तन सकेगा कांग्रेस का 'बहुरंगी' शामियाना?- 1

कांग्रेस के युवराज दलितों के घरों का दौरा कर रहे हैं और बहन जी के पसीने छूटने शुरू हो गए हैं। तीसरी-चौथी के बच्चों की आपसी लड़ाई के स्तर पर वह सार्वजिनक तौर से आरोप लगा रही हैं कि युवराज दलित के घर से जाने के बाद खास साबुन से नहाते हैं। इधर मीडिया में अटकलें लगने लगी हैं कि अपने दौरों से युवराज कांग्रेस को उसकी खोई जमीन कितनी वापस दिला पाएंगे।

दरअसल राजनीतिक विश्लेषकों को मैंने अक्सर यह कहते सुना है कि कांग्रेस आजादी के बाद चार दशकों तक अपने बहुरंगी शामियाने के भीतर देश के सभी वर्गों, सभी मजहबों और सभी जातियों को समेटे रही। लेकिन बाद में क्योंकि संकीर्ण स्वार्थों का पोषण करने वाली बहुत सी क्षेत्रीय पार्टियां भारत के राजनीतिक पटल पर उभरती गईं, तो कांग्रेस का वोट आधार बिखरता गया। मुझे लगता है कि यह उन कई झूठे सिद्धांतों में से एक है, जो आजादी के बाद से देश में योजनापूर्वक फैलाया गया है।

दरअसल आजादी के चार दशकों तक देश में कांग्रेस का एकछत्र राज्य देश की जनता के राजनीतिक भोलेपन और अशिक्षा का नतीजा था। आज भी कई कांग्रेसी बेवकूफी मिश्रित श्रद्धा से नेहरू-गांधी परिवार के बलिदानों की बात करते हैं। सिंधिया परिवार, वी पी सिंह, अर्जुन सिंह जैसे रजवाड़ों के वंशजों के प्रति उनके इलाकों के लोगों की श्रद्धा हमारी उसी वंशवादी राजनीतिक मानसिकता के प्रतीक हैं, जिनकी बात ये कांग्रेसी करते हैं। नहीं तो, अरबी हमलावरों, मुगलों और अंग्रेजों के हजार साल के शासन के बाद भी अगर कोई रजवाड़ा अपना किला, अपना ऐश्वर्य और अपना धन सुरक्षित रखने में कामयाब रहा, तो मतलब साफ है कि उसने देश और देश की जनता के खिलाफ विदेशी षड्यंत्रों में साझेदारी की, गरीबों का खून चूसा और आजादी के परवानों को अंग्रेजों के जाल में फंसाया। क्योंकि महाराणा प्रताप और भगत सिंह सरीखों के परिवारों का तो आज नामोनिशान भी नहीं मिलता, किलों और रजवाड़ों की तो बात ही क्या?

आज हम नेहरू और पटेल के विचारों, उनकी समझ, उनके सिद्धांतों और उनके जीवन के आधार पर यह विवेचना करने की कोशिश करते हैं कि देश का पहला प्रधानमंत्री किसे बनना चाहिए था। लेकिन 1947 की कल्पना कीजिए। साक्षरता दर 14 फीसदी थी, मतलब ग्रैजुएट कितने होंगे और उनमें भी ऐसे कितने होंगे जो वास्तव में अखबार पढ़ते होंगे, रेडियो सुनते होंगे। सोचिए, शायद 1 या 2 फीसदी। दूसरी ओर 85-90 फीसदी से ज्यादा ऐसी जनता थी, जो गांवों में रहती थी, साइकिल भी जिनके लिए लग्जरी होती थी और अंग्रेजी, हवाई जहाज या मोटर गाड़ी उनके लिए राजा-रानी के किस्सों का हिस्सा हुआ करते थे। जवाहरलाल नेहरू इन्हीं कहानियों के राजकुमार थे। उनकी नफासत, उनकी शेरवानी, उनकी जेब में लगा गुलाब, उनका अंग्रेजी रहन-सहन जनता के लिए ख्वाबों की तरह था और राजा की उनकी कल्पनाओं में फिट बैठता था। उनका स्वतंत्रता आंदोलन में कूदना देश और जनता पर उनकी कृपा के तौर पर देखा गया। दूसरी ओर पटेल का रहन-सहन, बोली, एटीट्यूड सब कुछ खालिस देसी था। वह चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा नहीं हुए थे, इसलिए आजादी के लिए उनका संघर्ष उनका कर्तव्य माना गया। यह मानसिकता समझना आज भी मुश्किल नहीं है। इसके बावजूद कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद के लिए पटेल को ही ज्यादा योग्य माना और यह सब इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुका है किस तरह गांधी जी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए पहले सुभाष चन्द्र बोस को और फिर पटेल को कमजोर कर नेहरू की राह साफ की। जनता ने गांधी जी के प्रति श्रद्धा और नेहरू के प्रति अपने आह्लाद के कारण उन्हें तुरंत स्वीकार स्वीकार कर लिया। .......(जारी)

तो इसीलिए सोनिया जी को पसंद हैं पाटिल

देश के गृहमंत्री शिवराज पाटिल का मानना है कि भारत में पैदा हुआ और संसद पर हमले का आरोपी अफजल गुरू तथा पाकिस्तान की जेल में फांसी की सजा पा चुका भारतीय सरबजीत दोनों एक ही जैसे हैं। अभी तक सरबजीत का परिवार और भारत सरकार उसके मामले को 'गलत पहचान का मामला' बताते हुए उसके लिए क्षमा की मांग कर रहे थे। लेकिन पाटिल का मानना है कि सरबजीत आतंकवादी है। अगर सरबजीत आतंकवादी है और फिर भी भारत सरकार उसे छुड़ाना चाहती है, तो इसका साफ मतलब है कि उसे पाकिस्तान में आतंकवाद फैलाने के लिए भारत सरकार ने भेजा है। यानी जिस तरह पाकिस्तान भारत में आतंकवाद फैला रहा है, उसी तरह भारत पाकिस्तान में आतंकवादी भेज रहा है।

और यह कहना है देश के गृहमंत्री का। वह भी ऐसे समय में जब भारत का एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल इस समय पाकिस्तान में है और कल ही हम सबने पढ़ा कि उसने पाकिस्तान सरकार को साफ कहा है कि अगर वास्तविक शांति चाहते हो, तो आतंक रोकना पड़ेगा। पाकिस्तान ने भारत को पलट कर यह नहीं कहा कि तुम भी तो आतंक फैला रहे हो, पहले उसे रोको। तो क्या हुआ, हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार हमारा गृहमंत्री है न पाकिस्तान की भाषा बोलने के लिए।

हम सभी भारतीयों को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए कि हम ऐसे मूर्ख गृहमंत्री की प्रजा हैं। वैसे यह वही गृहमंत्री हैं, जो संसदीय चुनाव में अपना क्षेत्र तक नहीं जीत सके थे। जिनके पूरे राजनीतिक कॅरियर में कोई ऐसा तमगा नहीं है, जिससे इनके एक मजबूत प्रशासक होने का सबूत मिले। लेकिन सोनिया जी को गृहमंत्री बनाने के पूरी कांग्रेस में इनसे कोई योग्य आदमी नहीं मिला। पाटिल की सबसे बड़ी योग्यता है कि उनकी रीढ़ की हड्डी नहीं है। ऐसे आदमी को बैठने और खड़े होने की तो बात छोड़िए, सोने के लिए भी दो लोगों का सहारा चाहिए। फिर इससे बढ़िया व्यक्ति कौन हो सकता था देश की आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी संभालने को। सोनिया जी का अपना पूरा परिवार, यानी बेटा, बेटी, दामाद सभी देश की सबसे इलीट सुरक्षा एजेंसी से घिरे रहते हैं। फिर देश की सुरक्षा एक रीढ़विहीन के हाथ में हुई, तो क्या बुरा है?

मंगलवार, 20 मई 2008

दूर कीजिए नपुंसकता, आतंकवाद भी गायब हो जाएगा

तो कुल मिलाकर हमारे भाग्यनियंताओं को आतंकवाद से मुक्ति के तीन रास्ते सूझ रहे हैं। आडवाणी के लिए आतंकवाद रोधक कानून पोटा की वापसी में इसकी कुंजी है, प्रधानमंत्री को लगता है कि एक संघीय जांच एजेंसी से इस पर काबू पाया जा सकता है और वामपंथियों का कहना है कि आतंकवाद से निपटने के लिए किसी कानून या विशेष एजेंसी की जरूरत नहीं, क्योंकि पाकिस्तान और अल कायदा से मुकाबला करना जनता की जिम्मेदारी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी वामपंथियों की राय से सहमति जताई है।

अगर आतंकवाद से निपटना जनता की जिम्मेदारी है, तो चोरी, डकैती, पॉकेटमारी, बलात्कार, हत्या, धोखाधड़ी जैसे टुच्चे अपराधों से निपटने के लिए पुलिस की क्या जरूरत है? तो क्या नीतीश कुमार बिहार में और वामपंथी पश्चिम बंगाल तथा केरल में पुलिस व्यस्था खत्म करने का कदम उठाएंगे। कभी नहीं, क्योंकि ये दोनों जो यह अति मानववादी बयान दे रहे हैं, उसके पीछे की असली मंशा ही पुलिस व्यवस्था पर पूरा नियंत्रण कायम रखना और अपने तमाम अच्छे-बुरे राजनीतिक अपराधों के संरक्षण के लिए रास्ता साफ रखना है। क्योंकि कानून-व्यवस्था फिलहाल राज्यों का मसला है इसीलिए राज्य सरकारें पुलिस का इस्तेमाल अपनी रखैल की तरह करती रही हैं। अब अगर पोटा जैसा कानून हो और पूरे देश में जांच का अधिकार रखने वाली संघीय एजेंसी बन जाए, तो उसकी जांच के दायरे में बहुत बार ऐसी बातें भी आ जाएंगी, जो इस सामंतवादी सरकारों की सेहत के लिए खतरनाक हो सकता। तो इसलिए नीतीश और वामपंथियों की बेचैनी समझी जा सकती है।

रही बात भाजपा और प्रधानमंत्री (क्योंकि कांग्रेस ने अभी इस पर अपना रुख साफ नहीं किया है) के सुझावों की, तो मुझे लगता है कि दोनों ही काफी महत्वपूर्ण हैं। और पोटा एवं एक संघीय एजेंसी होने से एक राज्य (मतलब अंग्रेजी का स्टेट) के तौर पर आतंकवाद से निपटने की हमारी ताकत काफी बढ़ जाएगी। लेकिन एक राष्ट्र के तौर पर इससे निपटने के लिए हमें एक कानून और एक एजेंसी से भी ज्यादा कुछ चाहिए। हमें चाहिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति, हमें चाहिए ऊर्जा और सपनों से भरा राजनीतिक नेतृत्व और हमें चाहिए एक ईमानदार प्रशासन।

जब एक महान राष्ट्र का ताकतवर विदेश मंत्री तीन आतंकवादियों को लेकर घुटने टेकने कंधार गया था, तब पोटा की सलाह देने वाले यही आडवाणी तो उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री हुआ करते थे। जब एक महान राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा कर रहे 16 जवानों को मारकर एक पिद्दी देश के रेंजरों ने उनका जुलूस निकाला तो आडवाणी के अंदर का लौह पुरुष मोम का क्यों हो गया था? संसद हमले के बाद पाकिस्तान की सीमा पर फौज खड़ी करना और फिर सैकड़ों करोड़ रुपए बरबाद कर बिना किसी परिणाम के उसे बैरक में भेज देना, क्या उस समय देश की कमान भाजपा के हाथ में नहीं थी? कारगिल में हमने अपने 500से ज्यादा जांबाज खोकर अपना ही हिस्सा वापस पाया लेकिन पाकिस्तान को इस पूरे घटनाक्रम में क्या नुकसान हुआ? कुछ भी नहीं। तो अगर आडवाणी और उनकी पार्टी के लिए नपुंसकता ही कूटनीति का दूसरा नाम है, तो केवल पोटा क्या कर लेगा?

चार साल तक देश पर दसियों आतंकवादी हमलों में किसी भी एक में अपराधियों को पकड़ने में नाकाम रही कांग्रेस गठबंधन सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह चुनाव से 10 महीने पहले संघीय एजेंसी की वकालत कर रहे हैं। क्या कर लेगी संघीय एजेंसी अगर उसे जांच से पहले ही कह दिया जाएगा कि खबरदार किसी मुसलमान को परेशान नहीं किया जाना चाहिए। कांग्रेस का इतिहास है संस्थाओं को कमजोर करने का। नवीन चावला जैसे लोगों की मदद से चुनाव आयोग को नष्ट करने की कोशिश की जा रही है, हंसराज भारद्वाज को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश उनके पेरोल पर हैं, सोमनाथ चटर्जी को विधायिका की सबसे बड़ी दुश्मन न्यायपालिका लगती है, सीबीआई तो बहुत पहले से ही प्रधानमंत्री कार्यालय के पालतू की तरह काम करना शुरू कर चुकी है। तो क्या संघीय जांच एजेंसी अपना काम ईमानदारी से कर पाएगी। क्या होगा अगर आतंकवादी सूत्रों की के सिरे लोकतंत्र के मंदिर की चौखटों तक जा पहुंचे। क्या कर लेगी संघीय एजेंसी अगर उसके द्वारा दोषी साबित अफजल सत्ता के आशीर्वाद से उन्हें मुंह चिढ़ाता रहेगा और फिर किसी विमान अपहरण में उसी एजेंसी को उसे सुरक्षित उसके अड्डे पर पहुंचाने की जिम्मेदारी दे दी जाएगी।

इसलिए मेरा मानना तो केवल यही है कि देश को पहली जरूरत एक सशक्त देशभक्त राजनीतिक नेतृत्व की है और इसके बाद ही पोटा और संघीय एजेंसी आतंकवाद के पिशाच को गीदड़ की मौत मारने में सफल हो सकेंगे।

शुक्रवार, 16 मई 2008

वो सुबह कभी तो आएगी....

मैं अक्सर एक कल्पना करता हूं कि मैं सोया हुआ हूं और एकाएक 1,000 लोगों की भीड़ हाथों में मशाल लिए नारे लगाते हुए मेरे घर पर हमला कर देती है। मैं सोचता हूं कि अगर ऐसा हो तो मेरे भीतर किस तरह का डर होगा। मैं अक्सर कल्पना करता हूं कि मैं खाना खा रहा हूं। अचानक मेरे घर पुलिस आती है मुझे बिना कोई कारण बताए खींचती हुई ले जाती है और कुछ दूर ले जाकर गोली मार देती है। मैं सोचता हूं कि अगर ऐसा हो तो मैं किस तरह डरूंगा। मैं अक्सर कल्पना करता हूं कि मेरी मां, मेरी बेटी या मेरी पत्नी मेरे साथ कहीं जा रही हैं। कुछ गुंडों की टोली आती है और उन्हें मेरे सामने तार-तार कर देती है। मैं कुछ नहीं कर पाता। मैं सोचता हूं कि अगर ऐसा हो तो मैं किस तरह चीखूंगा। और इन कल्पनाओं में एक और कल्पना है मैं कि अगर इनमें से कुछ भी न हो, लेकिन हमेशा इनमें से कुछ भी होने की आशंका बनी रहे, तो मेरी ज़िंदगी कैसी होगी। मैं ऐसी भयानक कल्पनाएं इसलिए नहीं करता क्योंकि मैं कोई मनोरोगी हूं, मैं ऐसी पैशाचिक कल्पनाएं इसलिए करता हूं क्योंकि मैं उस कुंठा, उस डर, उस दहशत को समझना चाहता हूं जो 1947 के विभाजन के समय लाखों लोगों ने झेली होगी, सोमालिया, रवांडा, सर्बिया-हर्जेगोविना, यूगोस्लाविया में लाखों ने सही होगी और तिब्बत, म्यांमार तथा पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में लाखों लोग आज भी झेल रहे हैं।

दरअसल मैं आज एक लेख पढ़ रहा था म्यांमार के बारे में। जिसमें कहा गया था कि म्यांमार की सरकार दुनिया की सबसे बुरी सरकार है। उसी अखबार में एक और खबर थी नंदीग्राम के बारे में। नंदीग्राम की खबर बहुत ही दुखद होने के बावजूद काफी रोचक भी थी। वाम मोर्चा सरकार में आरएसपी के मंत्री के घर सीपीएम के कुछ गुंडों ने बम फेंक दिया। घर जलकर खाक हो गया, मंत्री की बहू 90 फीसदी जली हालत में अस्पताल में है और बेटा भी बुरी तरह घायल है। एक ऐसी पार्टी के मंत्री का यह हाल, जो पिछले 30 वर्षों से सीपीएम के साथ सत्ता में है। अभी हफ्ते भर पहले ही नंदीग्राम उस समय खबरों में आया था जब पंचायत चुनावों के दौरान वहां गश्त कर रहे डीआईजी आलोक राज को सीपीएम के एक सांसद ने क्षेत्र में न निकलने की धमकी दी थी। वैसे ये तो खबरें हैं, जो बाहर आती हैं। इसलिए कि इनमें पीड़ित होने वाला डीआईजी और मंत्री है। लेकिन उस दहशत का क्या जो वहां रहने वाली हर मां, बेटी, बहू, पत्नी और हर बेटे, बाप और पति के जेहन में दिन-रात भरे रहते हैं। छह महीने पहले जब पहली बार नंदीग्राम चर्चा में आया था, उस समय वहां से आने वाली खबरें दिल दहला देने वाली थीं। महिलाओं के साथ सरेआम बलात्कार किए गए थे, उनकी योनियों में सरिए डाले गए थे, पुरुषों को जानवरों की तरह दौड़ा कर गोली मार दी गई थी और यह सब किया था उस पार्टी के गुंडों ने जो पश्चिम बंगाल में शासन में है। उसी पार्टी के मुख्यमंत्री ने इन पाशविक कृत्यों को सही ठहराते हुए कहा था कि उन महिलाओं का बलात्कार और उन अधनंगे किसानों गोली मारना दरअसल उन्हीं की भाषा में उन्हें दिया गया जवाब था।

खैर, ये तो वे घटनाएं हैं जिनका जिक्र पहले भी हो चुका है। मैं तो बात कर रहा था दहशत की। छह महीने पहले भूमि उच्छेद समिति के किसानों को गांवों से खदेड़े जाने से लेकर आरएसपी के मंत्री का घर उड़ाने तक हम आराम से घरों में सोते रहे हैं। नई-नई फिल्मों में नई-नई मॉडलों के अंगों का विश्लेषण करते रहे हैं। अपनी-अपनी नौकरियों में अपने-अपने समीकरण बनाते-बिगाड़ते रहे हैं। छोटी-छोटी बातों पर हेठी करते रहे हैं, अपनी शेखी बघारते रहे हैं। लेकिन उन्हीं छह महीनों में नंदीग्राम की हर धड़कन की दहशत की कल्पना कीजिए। घरों में दुबके गरीब अधनंगे किसान। और उनकी झोपड़ियों को हिलाती मोटरसाइकिलों का शोर। उस शोर के दूर होने का इंतजार करते बेबस कान। अगर कहीं वह शोर घर के आगे आकर थमे तो लगे जैसे जान निकल गई। हर घर पर लगे सीपीएम के झंडे मानो उन्हें उनके खून का रंग याद दिला रहे हों कि अगर हमारा साथ नहीं दिया इसी रंग से रंग देंगे तुम्हें। अखबारों में आई खबरें आपने भी पढ़ी होंगी, जिनमें बताया जाता था कि किस तरह सभी घरों पर सीपीएम के झंडे लगा दिए गए हैं और निकलने वाले हर सीपीएम जुलूस में हर घर से एक आदमी का शामिल होना अनिवार्य कर दिया गया था।

कैसी होगी वह दहशत। जहां बीडीओ, एसडीओ, दारोगा सभी सीपीएम कैडर की तरह बर्ताव करते हैं और मुख्यमंत्री बदले की बात करता है। किसका सहारा होगा उन्हें। क्या यही वह दहशत नहीं है, जो कभी चंगेज खां के हमले के समय दिल्ली वालों ने महसूस किया होगा, मुगलों के समय मंदिरों ने महसूस किया होगा और पिछले पचास सालों से तिब्बत महसूस कर रहा होगा। यह चीन नहीं, यह सोवियत संघ नहीं, चिली नहीं, क्यूबा नहीं, भारत के पश्चिम बंगाल का एक इलाका है। लेकिन शायद इसीलिए वामपंथी देश की सीमाओं को नहीं मानते। वामपंथ का चरित्र पूरी दुनिया में एक ही है।

कहते हैं लोकतंत्र में नेताओं का सबसे अच्छा इलाज जनता ही करती है। लेकिन पिछले छह महीने में नंदीग्राम का लोकतंत्र देखने के बाद लगने लगा है कि क्या पश्चिम बंगाल में वास्तव में लोकतंत्र की सुबह होगी। क्या सच में यह रात कभी खत्म होगी?

गुरुवार, 15 मई 2008

सोनिया जी की धर्मनिरपेक्षता और जयपुर के विस्फोटों में संबंध तो है

कितना आसान होता है ऊंची दीवारों के बीच रह कर, लोगों को निर्भीकता का पाठ पढ़ाना, कितना आसान होता है छत के नीचे से बारिश में भीगते लोगों को धैर्य बनाए रखने की शिक्षा देना, कितना आसान होता है खुद एसपीजी के साये में रहकर डरी हुई जनता को शांति का ज्ञान देना। जिस दिन जयपुर में 11 जगहों पर हुए बम विस्फोटों ने 100 घरों में मातम भर दिया, उसी दिन सोनिया गांधी बंगलुरु में एक चुनावी सभा में लोगों को धर्मनिरपेक्षता के विरोधी ताकतों का मुकाबला करने की सलाह दे रही थीं।

ठीक भी है, किसी समाज और देश के अंतर्मन में सर्वधर्म समभाव का उसकी उन्नति और शांति में क्या भूमिका है, इससे किसी को इंकार नहीं। लेकिन जयपुर के धमाके और सोनिया गांधी की धर्मनिरपेक्षता में कुछ संबंध तो है। साल 2000 के बाद से देश में जो भयंकर आतंकवादी हमले हुए हैं, उनकी फेहिरस्त देखिए। लाल किला हमला, संसद हमला, समझौता एक्सप्रेस विस्फोट, मुंबई बम विस्फोट, दिल्ली में लाजपत नगर विस्फोट, वारणसी में संकटमोचन हनुमान मंदिर विस्फोट, हैदराबाद में हुए विस्फोट, मालेगांव में हुए विस्फोट और अब जयपुर में हुए ताजा विस्फोट। इनमें लाल किला और संसद पर हुए हमलों को छोड़कर बाकी सभी सोनिया गांधी जी की सरकार में हुए। लाल किला और संसद हमलों की जांच पूरी हो चुकी है। अदालतों के फैसले आ चुके हैं। क्या किसी को भी पता है कि इनके अलावा बाकी विस्फोटों की जांच कहां तक पहुंची है?

यह सही है कि सरकार हर जगह हर हमला नहीं रोक सकती। लेकिन प्रशासन का ककहरा समझने वाला भी जानता है कि रथ में जुते सात घोड़ों के नियंत्रण के लिए सातों के पीठ पर सवार होना जरूरी नहीं। सारथी के लगाम पकड़ने का तरीका ही घोड़े को बता देता है कि उसे नियंत्रण में चलना है। सोनिया जी ने सरकार के रथ का लगाम पकड़ते हुए घोड़ों को जो संदेश दिया, वह था कि इस देश का हर आतंकवादी एक मुसलमान है और क्योंकि मुसलमान से हमारी सत्ता है इसलिए किसी भी आतंकवादी को परेशान न किया जाए। सुनने में बहुत ही कठोर और सनकी सा बयान लगता है ये, लेकिन जिस सरकार की पहली प्राथमिकता आतंकवाद का मुकाबला करने को खास तौर पर तैयार किया गया कानून पोटा हटाना हो, उसके अधिकारियों को क्या संकेत मिलेगा, आप ही बता दीजिए।

पोटा पर आरोप था कि इसमें केवल मुसलमानों को ही पकड़ा जा रहा है। इस आरोप का जवाब आप सबको पता है। लेकिन मैं यह कहता हूं कि अगर किसी कानून में खामी होने का मतलब ही उसे खत्म करना है, तो सबसे पहले इस देश से पुलिस व्यवस्था को खत्म करना चाहिए। क्योंकि जितना दुरुपयोग इस व्यवस्था का हो रहा है, गरीबों पर जितना अत्याचार इस संस्था ने किया है, उतना पूरी ज़मींदारी व्यवस्था ने मिलकर भी नहीं किया होगा। हां, लेकिन यहां गरीबों की बात है, मुसलमानों की नहीं, इसलिए पुलिस व्यवस्था का अत्याचार, भ्रष्टाचार सब सहनीय है।

तो इसीलिए मैंने कहा कि सोनिया गांधी की धर्मनिरपेक्षता और जयपुर के विस्फोट में कुछ संबंध तो है। सोनिया गांधी या वामपंथियों के लिए धर्मनिरपेक्षता के दुश्मन का मतलब क्या है, यह जानने के लिए किसी खास खुफिया रिपोर्ट की जरूरत नहीं है। उनके लिए साम्प्रदायिक का मतलब हर वह हिन्दू है, जो गला फाड़ कर यह कह सकता है कि हां मैं हिन्दू हूं। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब प्रधानमंत्री का यह बयान है कि देश के संसाधनों पर पहला हक देश के अल्पसंख्यकों (मतलब मुसलमानों) का है। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब न्यायालय में हलफनामा देना है कि राम एक काल्पनिक चरित्र हैं। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब कुतुब मीनार के लिए मेट्रो का रास्ता तबदील करना और समुद्री जहाज चलाने के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा फायदेमंद विकल्पों को छोड़ कर राम सेतु तुड़वाना है। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब एक छोटे से गुट के चलते तसलीमा नसरीन को नजरबंद कर मानसिक तौर पर इस हद तक प्रताड़ित करना है कि वह देश छोड़कर चली जाएं। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब कोयम्बटूर बम विस्फोट के आरोपी केरल के मदनी का जेल से छूटने पर जोरदार स्वागत करना है। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब बंगलादेशी घुसपैठियों को बसाने में सहयोग करना है। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब मुस्लिम बहुल जिलों की पहचान कर उन्हीं पर विकास की वर्षा करना है। और जो कोई भी उनकी इस धर्मनिरपेक्षता का विरोधी है, वह साम्प्रदायिक है। बंगलुरु की चुनावी सभा में दरअसल सोनिया जी इन्हीं साम्प्रदायिकों का विरोध करने के लिए कह रही हैं।

पिछले साल संसद के एक सत्र में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सरकार से सवाल पूछा था कि हैदराबाद बम विस्फोट के सिलसिले में किसी मस्जिद के एक मौलवी को गिरफ्तार किया गया था, फिर उसे बिना किसी कागजी कार्यवाही और पूछताछ के छोड़ दिया गया, क्यों? सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया, ठीक वैसे ही जैसे फांसी की सजा मिलने के साल भर से ज्यादा होने के बाद भी आज देश को पता नहीं है कि संसद हमले का आरोपी अफजल आखिर जिंदा क्यों है? आखिर कौन लोग हैं, जो सरकार के शीर्ष स्तर से यह धर्मनिरपेक्षता निभा रहे हैं। जो भी हों, इससे इतना तो तय है कि सोनिया जी की धर्मनिरपेक्षता और जयपुर के विस्फोटों में संबंध तो है।

बुधवार, 14 मई 2008

बाजार की ज़रूरतों को साधने की कोशिश करता 'भूतनाथ'

कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है। लेकिन अब शायद सिनेमा ने इस भूमिका में साहित्य को ज्यादा कड़ी प्रतियोगिता देनी शुरू कर दी है। कारण यह है कि सिनेमा पर बाजार का ज्यादा प्रभाव है और इसलिए उस पर समाज की ख्वाहिशों के तुष्टिकरण का दबाव शायद कुछ ज्यादा ही रहता है। और अगर यह सच है तो पिछले शुक्रवार को पर्दे पर आई भूतनाथ ने अपनी यह भूमिका बखूबी निभाई है।

अमिताभ बच्चन के अभिनय की समीक्षा करना एक ऐसा बचकानापन होगा, जो मैं नहीं करूंगा। शाहरूख खान के जिम्मे इस फिल्म में करने को कुछ खास था नहीं, सो उनका अभिनय उनकी ख्याति के अनुरूप रहा, कहना सही नहीं होगा। जूही चावला काफी दिनों बाद बड़े पर्दे पर पहले जैसी ही खूबसूरत दिखी हैं और उनके अभिनय में ताजगी है। बाल कलाकार बंकू, जो अमिताभ के साथ फिल्म के केन्द्र में हैं, ने अच्छा अभिनय किया है, लेकिन क्योंकि 'तारे ज़मीं पर' के ईशान अवस्थी के अभिनय ने मुझे बहुत गहराई से प्रभावित किया था, तो शायद बंकू के प्रति मैं न्याय नहीं कर पा रहा। उसके अभिनय को मैं सामान्य की श्रेणी में ही रखूंगा।

अखबार वालों को शाम की हवा कम ही नसीब होती है। सो आज साप्ताहिक छुट्टी का पूरा फायदा उठाते हुए मैं भूतनाथ देखने निकल गया। यह नहीं कहूंगा कि पैसे वसूल नहीं हुए, क्योंकि फिल्म के कथानक को जानते हुए मैं इसके कोई असाधारण होने की उम्मीद भी नहीं कर रहा था। अमिताभ का एक नया चेहरा देखने की इच्छा थी और इस लिहाज से मेरे पैसे वसूल हो ही गए। फिल्म की बिलकुल शुरुआत में एक गाना फिल्माया गया है, जिसे देखकर मन ही मन मैं निर्देशक को कुछ 'आशीर्वचन' दे रहा था। गाना बच्चों के दो गुटों पर है, जो लड़ने को उतारु हैं। उन्हें फिल्म जोश के 'मैं भी हूं जोश में' वाले गाने का गेटअप दिया गया है। पूरा गाना देख कर आप साफ अनुमान लगा सकते हैं उसका हर स्टेप किसी अमेरिकी एलबम से उठाया गया है। गाने को देखकर मैं और मेरी पत्नी बच्चों के मन पर उस गाने से हो सकने वाले तमाम कुप्रभावों को लेकर चिंतित हो रहे थे। जिस तरह 10-15 साल के बच्चों को एडल्ट गेट अप दिया गया था और उस गाने के बोल में जिस तरह 'घूंसे मारूंगा', 'हड्डियां तोड़ूंगा', 'जूते लगाउंगा','दांत तोड़ दूंगा' जैसे उद्गार प्रयोग किए गए हैं और जिस तरह की आक्रामकता बच्चों में प्रदर्शित की गई है, छोटे बच्चों पर उसके असर की कल्पना मात्र से सिहरन होती है।

लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ी, मैंने लेखक-निर्देशक को अपने शुरुआती आरोपों से बरी कर दिया। मुझे लगा कि वे बेचारे हमारे सामाजिक ढांचे को छिन्न-भिन्न करने का कोई षड्यंत्र नहीं कर रहे, दरअसल वे बाजार के हाथों मजबूर हैं। फिल्म के उत्तरार्द्ध में कुछ अच्छी बातें दिखाई गईं। जैसे जादू कर स्कूल की दौड़ जिताने की बंकू की जिद पर भूतनाथ को उसे यह समझाते हुए दिखाया गया कि जिंदगी की दौड़ चमत्कार से नहीं जीती जाती, उसे जीतना होता है। अमेरिका में रहने वाले कैलाशनाथ के 8-9 साल के पोते को उनका पैर छूते दिखाना और फिर उनके साथ रहने की जिद करना, बच्चों के मन पर कुछ अच्छा असर छोड़ेगा, मुझे लगता है। इसमें मुझे गीता के इस महान सूत्र के भी दर्शन हुए जिसमें भगवान ने कहा है कि तुम मरते हुए जिस भाव का चिंतन करते हो, वही तुम्हारे बंधन का कारण होता है। अपने घर के मोह में बंधे कैलाशनाथ मरने के बाद भी उसी घर में भूतनाथ बन कर बंधे रह जाते हैं। आत्मा की मुक्ति के लिए श्राद्ध जैसे विशुद्ध भारतीय संस्कारों को स्थापित करने की भी फिल्म में कोशिश की गई है।

तो आखिर में मुझे लगा कि भूतनाथ दरअसल हमारे समाज का ही एक प्रतिबिम्ब प्रस्तुत कर रहा है, जहां हम हर दिन डिस्कोथेक की आधुनिकता और मंदिर की पारंपरिकता में संतुलना साधने की जुगत लगाते रहते हैं। कुल मिलाकर फिल्म औसत कही जा सकती है, जिसमें कम पात्रों के साथ एक भावनात्मक ताना-बाना बुनने की कोशिश की गई है।

सोमवार, 12 मई 2008

RSS सरसंघचालक को एक भारतीय की चिट्ठी

आदरणीय सुदर्शन जी,
आप दुनिया के सबसे बड़े गैर सरकारी संगठन के मुखिया हैं, तो जाहिर है आपके पास समय की कमी रहती होगी। फिर एक सामान्य भारतीय नागरिक का पत्र पढ़ना तो आपके लिए बहुत ही मुश्किल होगा। इसलिए बिना किसी भूमिका के मैं आपको पहले यह बता दूं कि यह पत्र एक ऐसे राष्ट्रीय विषय के बारे में है, जिसका असर भारत के भविष्य पर हमेशा महसूस किया जाएगा। इसलिए कृपया अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय निकाल कर इसे जरूर पढ़ें।

यह पत्र है भारत-अमेरिकी असैनिक परमाणु करार के बारे में जो अब बस दम तोड़ने को है। 28 मई तक अगर भारत सरकार ने इस पर कोई अंतिम फैसला नहीं किया तो यह संग्रहालयों में रखे जाने वाले ऐतिहासिक दस्तावेजों का हिस्सा बनकर रह जाएगा। भारत की ओर से इस समझौते को सफल या असफल बनाने के लिए जिम्मेदार तीन पक्ष हैं- कांग्रेस, कम्युनिस्ट और भारतीय जनता पार्टी। तो आपको लगेगा कि आपको पत्र लिखने के पीछे मेरा क्या निहितार्थ है। बताता हूं। इस समझौते में सबसे बड़ी बाधा कम्युनिस्ट हैं। उनसे इससे अलग उम्मीद भी नहीं है क्योंकि वे किसी भी ऐसे कदम को रोकने के लिए कटिबद्ध हैं, जिससे भारत शक्तिशाली बनता हो। चीन का दुनिया में प्रभुत्व स्थापित हो, यह उनके जीवन का सबसे बड़ा सपना है। सो उनसे कोई बात करना ही बेकार है।

कांग्रेस की बात करें तो पिछले 4 से ज्यादा सालों में सत्ता के लोभ ने जिस तरह बार-बार उसे वामपंथियों के सामने घुटनों पर खड़ा किया है, उसके बाद उससे किसी तरह की उम्मीद की जा सकती है, मुझे नहीं लगता। बजट के बाद उम्मीद जगी थी कि शायद कांग्रेस देश के सामने अपनी छवि सही करने के लिए जल्दी चुनाव का खतरा उठाने को तैयार हो, लेकिन जैसे-जैसे चिदंबरम के बजट की आभा पर कालिख पुतती चली गई, यह तिनका भी छूटता गया। इसके बाद एक उम्मीद भाजपा पर थी कि शायद वह देशहित में कांग्रेस का समर्थन कर इस समझौते को परवान चढ़ाए, लेकिन वह भी अपने घटिया चुनावी स्वार्थ के कारण इसे मिट्टी देने को तैयार है।

चूंकि भाजपा के बड़े सभी नेताओं से आपकी गाहे-बगाहे मुलाकात होती रहती है तो आपने शायद इस मुद्दे पर उनसे चर्चा भी की हो। आपकी वैज्ञानिकों से भी मुलाकात होती है, तो उन्होंने भी अपनी राय दी होगी। अब क्योंकि अब्दुल कलाम से लेकर के सुब्रह्मण्यम जैसे वैज्ञानिक और जसजीत सिंह से लेकर सी राजामोहन जैसे तमाम विशेषज्ञ इस समझौते को बहुत ही जरूरी और राष्ट्रहित में बता रहे हैं, तो वैज्ञानिकों से आपको भी कुछ ऐसी ही राय मिली होगी। फिर आपने एक विशुद्ध वैज्ञानिक मसले पर अब्दुल कलाम पर आडवाणी को तरजीह क्यों दी है, यह किसी भी व्यक्ति के समझ से बाहर हो सकता है। आडवाणी सत्ता की राजनीति में हैं, इसलिए उन्हें सत्ता चाहिए। जिन कारणों से कांग्रेस पोखरण-2 की सालगिरह नहीं मनाती, कुछ उन्हीं कारणों से भाजपा यह समझौता नहीं होने देना चाहती।

आडवाणी जी का कहना है कि इस समझौते से हमारी परमाणु परीक्षण की आजादी खत्म हो जाएगी। जैसे समझौता न होने पर हम हर साल परीक्षण ही कर रहे हैं। फिर हमारे पास इस समझौते से निकलने की आजादी तो हमेशा है। खैर, तर्क-वितर्क की बाद छोड़ दीजिए। सीधी सी बात यह है कि इसके जो भी सुरक्षात्मक और वैज्ञानिक पहलू हैं, वह समझ पाने की क्षमता न आपमें है, न मुझमें, न आडवाणी जी में, न सोनिया जी में। आप और हम तो वही समझेंगे, जो समझाया जाएगा। जो पक्ष वाले हैं, वह अपनी मतलब के दो उपबंधों को बताएंगे, विपक्ष वाले अपनी मतलब के। इसलिए ऐसे मामले में जीवन की संध्या में किसी भी कीमत पर सत्ता पाने को आतुर एक राजनीतिज्ञ की राय के मुकाबले तपस्वी की तरह जीवन बिताते हुए एक शिक्षक का दायित्व निभा रहे पूर्व राष्ट्रपति, जो एक परमाणु वैज्ञानिक भी रह चुके हैं, की राय हर हालत में ज्यादा वजनी है।

अब क्योंकि चाहे यह मेरी गलतफहमी ही हो, मुझे आज भी लगता है कि आप निःस्वार्थ भाव से केवल और केवल देशहित पर विचार करने में सक्षम हैं और साथ ही आप भाजपा की नीतियों में बदलाव करने में भी समर्थ हैं (कम से कम अभी तक), इसलिए परमाणु करार को सफल होते देखने की अपनी चरम उत्कंठा से मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूं। आप मेरे लिए उम्मीद की आखिरी किरण हैं और शायद देश के लिए भी।

भुवन भास्कर

रविवार, 11 मई 2008

हम मदर्स डे को मां दिवस क्यों नहीं कह पाते

बात वहीं से शुरू करते हैं जहां सुबह छोड़ी थी। बदलाव एक दोधारी तलवार है। चाहे हमारा अपना जीवन हो, हमारा समाज हो या फिर हमारा देश, हम हमेशा बदलावों को लेकर आशंकित होते हैं, असुरक्षित महसूस करते हैं। रत्नाकर का वाल्मीकि होना बदलाव है, तो विश्वामित्र जैसे राजर्षि का पतित होना भी बदलाव है। बदलाव के प्रति इसी नजरिए के कारण मैं अब तक तय नहीं कर पाया हूं कि मुझे ये डेज़ मनाने का विरोध करना चाहिए या समर्थन। इस असमंजस के बावजूद मैं भी वैलेंटाइन डे को प्रेमी दिवस, फादर्स डे को पिता दिवस या मदर्स डे को मां दिवस नहीं बोल पाता। तो इसीलिए मैंने सुबह अपना यह सवाल रखा था कि ऐसा क्यों है?

निश्चित तौर पर दिवसों को मनाने की यह परंपरा पश्चिमी समाज की देन है। लेकिन क्या केवल इसीलिए यह गलत हो जाती है। फिर तो 'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी'। दरअसल समस्या की जड़ हर बात को केवल सही या गलत के खांचे में बांटने की हमारी आदत है। रामनवमी और कृष्णाष्टमी का त्योहार भी तो राम और कृष्ण के जन्म दिवस ही हैं। अगर उन्हें मनाना हमारी आत्मिक और आध्यात्मिक चेतना को ऊंचा उठाने की प्रक्रिया है तो फिर मदर्स या फादर्स डे में क्या बुराई है?

सच में, कोई बुराई नहीं है। उसी तरह जैसे अगर किसी को कैंसर हो जाए, तो उसकी दवा खाने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन अगर यही दवा टायफाइड के मरीज को खिलाई जाने लगे तो? जी हां, तब यह बुराई ही नहीं, जीवनघाती भी हो सकती है। पश्चिम के समाज में मदर्स, फादर्स या पैरेंट्स डे एक दवाई की तरह है। एक ऐसा समाज जहां बूढ़े मां-बाप, विधवा बुआ, पीड़ित बहन आदि के लिए पति-पत्नी और बच्चे के एकल परिवार में कोई जगह नहीं। उन्हें रखने के लिए, उनके पालन-पोषण के लिए तमाम सरकारी इंतजाम हैं और उनके जिगर के टुकड़ों से बस यही उम्मीद की जाती है कि कम से कम साल भर में एक बार तो वे कुछ कार्ड्स, कुछ उपहार और कुछ मीठी बातें लेकर जीवन के आखिरी पल का इंतजार कर रहे अपनी मदर और अपने फादर से मिलने आ जाया करें।

ऐसे समाज में मदर्स, फादर्स या पैरेंट्स डे का सचमुच काफी महत्व है। लेकिन उस समाज में इसका क्या काम, जहां मां-बाप आखिरी क्षण तक बेटे-बेटियों के जीवन का हिस्सा होते हैं। ये मैं वेदों, पुराणों की सूक्तियों की बात नहीं कर रहा। आज भी आप किसी अस्पताल में चले जाइए या तीर्थ स्थान पर चले जाइए, आपको इस तथ्य की सच्चाई पता चल जाएगी।

आज मदर्स डे है। तो क्या? मेरी मां के प्रति मेरी जिम्मेदारियों का अहसास तो कल भी था और कल भी रहेगा। मेरी मां के प्रति मेरा प्यार कल भी उतना ही गहरा था, जितना कल रहेगा। मेरी मां के लिए मेरे जीवन का हर पल कल भी उतना ही उपलब्ध था, जितना कल रहेगा। मेरे लिए तो साल के सभी 365 दिन मदर्स डे होते हैं। लेकिन वक्त की लहर के साथ बहना भी तो होगा। स्कूलों में मदर्स डे के नाम पर मांओं को बुलाया जा रहा है, तो वहां तो जाना ही होगा। अंग्रेजी स्कूलों में मदर्स डे का महिमामंडन कर उसके नाम पर बच्चों को प्रेरित किया जा रहा है कि वे अपनी मांओं को कार्ड दें, गिफ्ट दें। तो बच्चों की भावनाओं का सम्मान करने के लिए इसमें सहयोग तो करना ही होगा। फिर क्या हमारे बच्चे भी धीरे-धीरे यह नहीं मानने लगेंगे कि मां को प्यार करने का साल में केवल यही एक दिन होता है? शायद मानने लगें। लेकिन इसका हल यह नहीं हो सकता कि हम अपने बच्चे की भावनाओं को कुचल दें। इसका हल एक ही है कि हम अपने बच्चों में मजबूत और पवित्र संस्कारों के जरिए यह सुनिश्चित करें कि वह मां या पिता की भारतीय अवधारणा को समझे। उनका आध्यात्मिक महत्व जाने।

मेरे कम्युनिस्ट मित्र माफ करेंगे। लेकिन अगर उन्हें अपना बुढ़ापा ओल्ड एज होम्स में न गुजारना हो, तो उन्हें भी ऐसा करना चाहिए, भले ही सार्वजनिक तौर पर वे भारतीयता और आध्यात्मिकता को गाली देते फिरें। शायद उनका वैचारिक दुराग्रह उन्हें यह स्वीकार करने से रोके, लेकिन एक भारतीय मां और ए मदर का अंतर तो वे भी बखूबी समझते हैं, तभी तो मदर्स डे को मां दिवस वे भी नहीं कह पाते।

मदर्स डे पर एक सवाल

आज सुबह से ही एक सवाल मुझे परेशान कर रहा है। जिस तरह इंडिपेंडेंस डे को स्वतंत्रता दिवस कहते हैं, रिपब्लिक डे को गणतंत्र दिवस कहते हैं, बर्थ डे को जन्म दिवस कहते हैं, टीचर्स डे को शिक्षक दिवस कहते हैं, उसी तरह वैलेंटाइन डे को प्रेमी दिवस, फादर्स डे को पिता दिवस या मदर्स डे को मां दिवस क्यों नहीं कहते? हां, आप चाहें तो कह सकते हैं, लेकिन मेरे मन का सवाल व्यवहारिक स्तर का है। हर अंग्रेजी शब्द का तर्जुमा करने को तत्पर हम हिंदी वाले भी जहां पहले चार डे को दिवस में अनुवाद कर बोल देते हैं, वैसे ही बाद वाले तीन डे का हम अनुवाद करना क्यों नहीं चाहते? जाहिर है कि आज मदर्स डे की खबरों को पढ़ते-सुनते ही मेरे मन में ये सवाल आया है।

हममें से बहुत होंगे जो इस तरह के डे मनाने में कुछ भी बुरा नहीं मानते होंगे और बहुत सारे ऐसे भी होंगे जो इन्हें मनाने को पश्चिमी संस्कारों और विचारों के सामने घुटने टेकने के बराबर मानते होंगे। लेकिन फिर वही सवाल है कि इन डेज़ का हिंदी अनुवाद तो दोनों में से कोई भी वर्ग नहीं करता है। क्यों?

शनिवार, 10 मई 2008

छगन लाल और खली के लिए कानून के चेहरे अलग-अलग क्यों हैं?

मेरा नाम छगन लाल है। एक फरियाद करना चाहता हूं। दरअसल मैंने दो साल पहले अपने ऑफिस में सिक लीव के लिए अर्जी दी थी। सिक लीव यानी छुट्टी की अर्जी जिसका कारण मैंने इस बुरी तरह बीमार होना बताया था, कि आफिस आने में समर्थ नहीं था। लेकिन आपको एक राज की बात बताउं,किसी से कहिएगा नहीं। मुझे एक जबर्दस्त ऑफर मिला था, अमेरिका जाकर कुश्ती लड़ने का। अब उस अनिश्चित ऑफर के लिए मैं लगी लगाई सरकारी नौकरी तो छोड़ नहीं देता न। मैंने सिक लीव की अर्जी बढ़ा दी और निकल लिया अमेरिका कुश्ती लड़ने। लेकिन मेरी किस्मत, मैं सफल नहीं हो सका।

मेरे प्रायोजकों ने क्योंकि मेरे पर काफी पैसे खर्च कर दिए थे, तो मैं यूं तो आ नहीं सकता था। तो मैं छोटी-मोटी प्रतियोगिताओं में लड़कर उनका घाटा पूरा करता रहा और आखिकार 2 साल बाद मुझे किसी तरह देश लौटने का मौका मिल सका। इस बीच कोई चारा नहीं होने के कारण अपनी सिक लीव बढ़ाता गया था। सो लौटकर सोचा पुरानी नौकरी में ही एक बार फिर लौट जाउं। ज्वाइन करने गया, तो मुझसे कहा गया कि पूरे दो साल के मेडिकल सर्टिफिकेट और दवाओं की रसीद लेकर आउं। किसी तरह कर्ज लेकर कुछ पैसे जुटाए। डॉक्टर को कुछ घूस वगैरह देकर सारे कागज जुटाए और लेकर पहुंच गया ऑफिस। पर ये क्या? वहां मेरा इंतजार पुलिस कर रही थी। किसी ने अमेरिका में मेरी कुश्ती वाली तस्वीरें बॉस तक पहुंचा दीं और ऑफिस में गलत जानकारी देने, धोखाधड़ी करने और कुछ और आरोपों में 4-5 धाराएं लगाकर पुलिस ने मुझे बंद कर दिया। अब आज ही मैं किसी तरह जमानत पर छूटा हूं। घर पहुंच कर कुछ अखबार देख रहा था। मेरी नजर एक ऐसी खबर पर पड़ी कि मेरे तनबदन में आग लग गई। व्यवस्था में मेरा कोई विश्वास रहा नहीं, इसलिए फरियाद लेकर आपके दरबार में आया हूं।

यह खबर है दिलीप सिंह राणा की जिसे अब सब इज्जत से द ग्रेट खली कहकर पुकारते हैं। अमेरिका में दो साल तक एक ऐसा खेल (?) खेलने के बाद वह भारत आया है, जिसके खिलाड़ी से लेकर दर्शक तक, सभी ज्यादा से ज्यादा पशुता प्रदर्शित करने को ही प्रतिष्ठा का प्रतीक मानते हैं। देश के नेता, अभिनेता, पुलिस, मीडिया सब उसके सामने हाथ बांधे खड़े हैं और अखबार उसी के फोटो से रंगे हैं। बच्चे उसे अपना हीरो मानने लगे हैं और वह एक नेशनल कैरेक्टर बन गया है। यह अलग बात है कि उसे देश में यह शोहरत एक ऐसे कथित खेल के लिए मिल रही है, जिसके खिलाड़ी आदमी कम जानवर ज्यादा दिखते हैं और जिसका भारतीय सोच और संस्कृति से दूर-दूर तक का भी कोई वास्ता नहीं हैं। खैर, यह तो है मेरी भड़ास। लेकिन मेरी फरियाद कुछ और ही है।

दिलीप सिंह अमेरिका जाने से पहले पंजाब पुलिस में हवलदार हुआ करता था (हालांकि वीकीपीडिया उसे 'ऑफिसर इन पंजाब पुलिस' लिखता है)। वह अमेरिका गया लेकिन उसकी हवलदारी नहीं गई। मेरी तरह वह भी सिक लीव लेकर गया और मेरी ही तरह दो साल तक इसे बढ़वाता रहा। वक्त की बात उसका धंधा चमक गया और वह लाखों-करोड़ों डॉलर का मालिक बन गया। मेरी तस्वीर तो ज्वाइनिंग के बाद बॉस के पास पहुंची, लेकिन वह साल भर से अखबारों की सुर्खियां बनता रहा है, टीवी पर लोग रातों को जगकर उसकी वहशियाना लड़ाई देखते रहे हैं। अखबार पढ़ने और टीवी देखने वालों में पंजाब पुलिस के जांबाज अधिकारी भी रहे होंगे। लेकिन अब जब वह भारत आया और जैसा कि हमारे यहां अक्सर होता है, उसे सजदा करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कमर झुकाने की होड़ शुरू हुई। पंजाब पुलिस भला कैसे पीछे रहती। तो द ग्रेट खली को प्रोन्नति देने की घोषणा कर दी गई।

व्यवस्था का इससे घिनौना मजाक क्या हो सकता है? जिस आदमी को पूरी दुनिया लड़ता, लोगों को हाथों में लेकर उछालता और चिग्घाड़ता देख रही है, उसे बीमार होने के नाम पर छुट्टी लेने के बावजूद प्रमोशन दिया जा रहा है। दूसरी ओर इसी अपराध के लिए मैं यानी छगन लाल जेल और कचहरी के चक्कर लगा रहा हूं, नौकरी गई सो अलग। छगन लाल और दिलीप सिंह राणा उर्फ द ग्रेट खली के साथ यह अंतर क्यों? मैं मानता हूं कि मैंने गैर कानूनी काम किया, तो क्या खली इसीलिए कानूनी है क्योंकि वह अमेरिका के मानकों पर सफल है? कानून की देवी कब तक अपनी आंखों पर पट्टी बांधे खड़ी रहेगी?

मंगलवार, 6 मई 2008

'मायावती के राज में दलितों पर अत्याचार सबसे ज्यादा'

उत्तर प्रदेश की राजनीति आधुनिक भारत की एक ऐसी ज़मीन मानी जाती है, जहां दलित-पिछड़ा मुखी राजनीति सबसे ज्यादा मुखर हुई है। मायावती को दलितों की राजनीतिक चेतना का सबसे स्वाभिमानी चेहरा बताकर पेश किया जाता है और उनकी सैकड़ों करोड़ की निजी संपत्ति और हीरों के जगमग हार किसी व्यक्ति के नहीं, बल्कि एक पूरे समाज के वैभव का प्रतीक बन जाते हैं। अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार तो दूर, कोई अपशब्द कहने के लिए भी जितने कड़े कानून उत्तर प्रदेश में हैं, उतने देश के किसी दूसरे हिस्से में नहीं। फिर भी केंद्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इन जातियों के खिलाफ अपराध की सबसे ज्यादा घटनाएं यहीं हो रही हैं।

ऐसा क्यों होता है? जहां सबसे ज्यादा कानून होते हैं, वहीं कानून की सबसे ज्यादा धज्जियां क्यों उड़ाई जाती हैं? अमेरिका में अपराध विज्ञान सबसे ज्यादा उन्नत है, वहां अपराध भी सबसे ज्यादा उन्नत तरीके से किए जाते हैं। पिछड़े गरीब देशों में पुलिस डंडे से काम चलाती है, वहां अपराधी भी चोरी, झपटमारी और गिरहकटी तक ही सीमित रहते हैं। यह पहले मुर्गी या पहले अंडे जैसा कुछ मामला लगता है। अपराधों को नियंत्रित करने के लिए कानून बनते हैं और फिर कानून की काट के लिए अपराधी रास्त ढूंढते हैं। लेकिन क्या उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों के प्रति बढ़ता अपराध केवल कानून-व्यवस्था का मसला है?

किसी व्यक्ति या समाज में आक्रामकता बढ़ने के दो मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं। एक तो अपनी ताकत का अहंकार और दूसरा असुरक्षा की भावना। वैदिक काल में जब तक ब्राह्णण और अन्य कथित सवर्ण जातियां अपने पवित्र आचरण के दायित्व बोध से लदी होती थीं, तब तक समाज में उनका प्रभाव अपने आप कायम था। लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने आचरण की पवित्रता को गंगा में बहा दिया और कोई ऐसा घृणित और अनुचित काम नहीं रह गया, जो किसी खास जाति से अछूता रह गया। स्वाभाविक तौर पर उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और असर कम हुआ। लेकिन ठसक नहीं गई। तो उन्होंने अपनी दबंगता कायम रखने के लिए दूसरी जातियों पर अत्याचार शुरू कर दिया।

बाद में देश गुलाम हुआ फिर आजाद हुआ और फिर देश में समतामूलक समाज की स्थापना के सिद्धांत बनाए गए। एक व्यक्ति-एक मत ने धीरे-धीरे सवर्णों की राजनीतिक सत्ता में सुराख करना शुरू किया और साथ ही उनकी सामाजिक सत्ता भी डोलने लगी। फिर आया मंडल राजनीति का दौर। इस दौर ने सवर्णों की सत्ता के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी। सवर्णों ने अपनी राजनीतिक-सामाजिक सत्ता का पराभव स्वीकार कर लिया। लेकिन क्योंकि सत्ता का सिंहासन कभी खाली तो रहता नहीं, इसलिए नए ब्राह्णणों, नए ठाकुरों का जन्म हुआ। कुर्मी, कोइरी, यादव, लोध, जाट, मीणा जैसी पिछड़ी जातियों की अगुवाई में राजनीतिक सत्ता पिछड़े और अन्य पिछड़े वर्गों के हाथों में सरक गई। अब इन नए ब्राह्णणों को भी पुराने ब्राह्णणों का रुतबा और उनकी ताकत चाहिए थी। तो इसके लिए उन्हें चाहिए था नया कमजोर वर्ग। और इस बार दलितों की बारी आई।

दक्षिण भारत के मंदिरों में प्रवेश का संघर्ष बिहार और उत्तर प्रदेश के सामाजिक संघर्ष से बिलकुल अलग है। दक्षिण में अब भी ब्राह्णणों की पवित्रतावादी और अव्यवहारिक मूर्खता से इस तरह की स्थितियां पैदा होती हैं। लेकिन उत्तर भारतीय राज्यों में दलितों पर होने वाला अत्याचार शुद्ध तौर पर सामाजिक है। यह अत्याचार किसी जाति पर नहीं, बल्कि गरीबी और पिछड़ेपन पर है। किसी बड़े किसान के खेत में घुसने वाली बकरी एक ब्राह्णण, राजपूत, यादव, कुर्मी या जाट की भी हो सकती है, लेकिन अगर कहीं वह किसी दलित की हुई तो उसकी शामत आनी तय है। समाज के नए या पुराने ब्राह्णणों के घर में आई किसी भी आफत के लिए एक गरीब, बेचारी दलित औरत को जिम्मेदार ठहराकर उसे नंगा किया जा सकता है, उसकी परेड कराई जा सकती है।

पिछले 60 साल में बनाए गए कानून उनकी मदद कर पाने में नाकाम रहे हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कानून खत्म कर दिए जाएं। लेकिन यह भी सच है कि कानून बनाकर वोट तो लिए जा सकते हैं, इन अत्याचारों को रोका नहीं जा सकता। इन्हें रोका जा सकता है केवल और केवल सामाजिक बदलाव से। क्योंकि सामाजिक बदलाव की जो कोशिशें हो रही हैं, उनका आधार प्रेम नहीं, घृणा है। अमुक जाति ने कल तक हम पर अत्याचार किया, इसलिए अब हमें ज्यादा ताकत मिलनी चाहिए (ताकि हम उनपर अत्याचार कर सकें)- यह है सामाजिक बदलाव का आधुनिक सिद्धांत। इस सिद्धांत की परिणति संघर्ष ही हो सकती है, समरसता नहीं और इसलिए लालू, मुलायम, पासवान या मायावती जैसे नेता अपनी राजनीति तो चमका सकते हैं, दलितों को सम्मान नहीं दिला सकते।

रविवार, 4 मई 2008

खाने की असभ्यता से उपजा अनाज का विश्वव्यापी संकट

खाना हमेशा से सभ्यता का प्रतीक रहा है। आप क्या खाते हैं और कैसे खाते हैं, इसी से तय होता है कि आप कितने सभ्य हैं। यहां सभ्यता शब्द दरअसल अनुवाद है अंग्रेजी के सिविलाइजेशन का, जिसका इस्तेमाल अंग्रेजों ने सदियों से तीसरी दुनिया के देशों को बर्बर यानी असभ्य बताने के लिए किया है। लेकिन यह अकेले अंग्रेजों की बात नहीं है, बचपन से घरों में हम सुनते आए हैं कि 'आदमी की तरह खाया करो', खाने में ज्यादा हबड़-हबड़ मत करो, खाने में चभड़-चभड़ की आवाज नहीं होनी चाहिए आदि। कई सालों तक छुरी-चम्मच से नहीं खाने की कुंठा मुझे भी सालती रही और वह खत्म तभी हुई जब मैंने यह महान कला सीख ली। खाने के तरीके पर पूरी एक संहिता है जो हमें पश्चिमी देशों से मिली है।

इसलिए जब पहली बार मैंने अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस से यह सुना कि भारतीयों और चीनियों के ज्यादा खाने से पूरी दुनिया में अनाज का संकट पैदा हो गया है, तो मुझे ताज्जुब नहीं हुआ। अब अमेरिकी राष्ट्रपति और विशेषज्ञ भी इसी सिद्धांत की पुष्टि कर रहे हैं। इससे पहले मैंने कहीं पढ़ा था कि दुनिया भर में अनाज संकट पैदा होने के पीछे मुख्य दोषी अमेरिका है, जिसने करीब 1 करोड़ टन अनाज को जैव ईंधन में बदल दिया है।

अब यही तो सभ्यता और असभ्यता का कंट्रास्ट है। असभ्यों का आरोप है कि सभ्यों ने खाने का सारा माल ईंधन में बदल दिया। यानी वह काम जो वे खुद नहीं कर सकते, वह काम जिसमें बहुत उच्च तकनीक और बहुत विज्ञान चाहिए। दूसरी ओर सभ्यों का कहना है कि संकट इसलिए पैदा हुआ कि असभ्यों ने बहुत खा लिया। इसलिए कि उनके पास अभी हाल में बहुत पैसे आ गए। समझे आप! यानी अमेरिकियों का मानना है कि अगर आपकी आमदनी महीने के दस हजार रुपए हैं तो आप एक किलो अनाज खाएंगे और अगर आपके पड़ोसी की 1 लाख रुपए महीने तो वह दस किलो अनाज खाएगा। क्या सच में ऐसा हो सकता है। नहीं न! अगर एक सामान्य आदमी महीने में 1 किलो खा सकता है तो उसकी आमदनी कितनी भी हो, वह 1 किलो ही खाएगा। तो दूसरा मतलब तो यही हो सकता है कि जहां पहले दस में से एक आदमी को भर पेट भोजन मिल पाता था, वहीं अब शायद छह लोग भरे पेट सो सकते हैं। अगर ऐसा है तो क्या भारत या चीन इसीलिए दोषी हैं कि उनके यहां अब कुछ कम लोग भूखे पेट सो रहे हैं।

उसमें भी खुद अमेरिकी कृषि विभाग के आंकड़ों को देखें तो भारत में हर आदमी साल भर में केवल 178 किलो अनाज खाता है जबकि अमेरिका में हर आदमी 1,046 किलो अनाज खा जाता है। अब ऐसा तो है नहीं कि राइस या बुश को ये आंकड़े पता न हों। तो फिर भारतीयों को पेटू कहने का मतलब। इसे इस तरह से समझिए। हमारे गांव में अगर 1,000 लोगों का एक भोज देना हो तो सारे प्रबंध करने के बाद एकदम टॉप क्लास खाने पर मेरे करीब एक लाख रुपए खर्च होंगे। यानी हर आदमी पर करीब 100 रुपए। यहां दिल्ली में इनते रुपए में शायद 100 लोगों को भी टॉप क्लास रिसेप्शन न दिया जा सके। यानी हर आदमी पर 1,000 रुपए भी कम। लेकिन गांव में आपको चावल शायद ढाई सौ किलो खरीदना हो जबकि दिल्ली में 20 किलो चावल भी ज्यादा पड़े। तो यह गणित है सभ्यता और असभ्यता का। सभ्य जहां 20 किलो चावल खाने में 1 लाख रुपए खर्च करते हैं, वहीं असभ्य इतने में 250 किलो चावल खा जाते हैं।

राइस और बुश अमेरिकियों के अधिक खाने का यह गणित समझते हैं। अमेरिकी भात और रोटी खाने पर चावल, गेहूं बरबाद नहीं करते। वह चावल और गेहूं खिलाते हैं गायों और सुअरों को और फिर खाते हैं उनका मांस। अमेरिका में गेहूं की बड़ी खपत होती है शराब बनाने में। जबकि हम तो बस ये सब सान-मान के पकाते हैं और खा जाते हैं। इसीलिए दुनिया के अनाज संकट के लिए सबसे बड़े दोषी हैं भारत और चीन। क्योंकि दोषी हमेशा गरीब होते हैं, कमजोर होते हैं।