रविवार, 6 जुलाई 2008

एक और खिलाफत! ईश्वर जाने इस बार परिणाम क्या होगा

अब तक जो बात ढ़क-छिप कर कही जा रही थी, वह सामने है। एक वामपंथी नेता और मायावती ने खुल कर कह दिया है परमाणु करार इसीलिए बुरा है क्योंकि वह देश के मुसलमानों को पसंद नहीं है। और मुसलमानों को इसलिए पसंद नहीं है क्योंकि यह अमेरिका के साथ किया जा रहा है। और अमेरिका मुसलमानों का शत्रु इसलिए है क्योंकि उसने इराक और तालिबान पर हमला किया है। इस तर्क के पीछे का तर्क क्या है? कि पूरी दुनिया के मुसलमान एक राष्ट्र हैं और उनका राष्ट्रहित उन मुद्दों से नहीं जुड़ा है जो उनके देश से जुड़े हैं, बल्कि दुनिया के मुसलमानों से जुड़ा है।

और मैं बहुत जोर देकर यह भी ध्यान दिलाना चाहूंगा कि यह बात भारत का मुसलमान नहीं कह रहा, बल्कि यह कह रहा है एक चीन परस्त वामपंथी नेता और खुद को गहनों में तुलवा कर दलित हित का बिगुल बजाने वाली एक ऐसी नेता, जिसने साल भर पहले मुसलमानों को कट्टरतापसंद कौम करार दिया था। आज के इंडियन एक्सप्रेस में कुछ बयान हैं, जो इस मुद्दे पर भारतीय मुसलमानों की राय जानने में काफी हद तक मदद करते हैं। उमर अब्दुल्ला ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि परमाणु करार अच्छा है या बुरा, इस पर बहस तो हो सकती है, लेकिन यह हिंदुओं और मुसलमानों के लिए किस तरह अलग-अलग है, यह उन्हें समझ में नहीं आता। घोर साम्प्रदायिक इतिहास के वारिस इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के मुहम्मद बशीर ने भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए यूपीए का समर्थन करते रहने की बात कही है। जद (यू) के सांसद महाज अली अनवर ने वामपंथियों और मायावती के विरोध को राजनीति प्रेरित बताया है वहीं हर मुद्दे पर हमेशा साम्प्रदायिक दृष्टि से सोचने वाले सांसद असादुद्दीन ओवैसी ने मायावती के बयान को गंदी राजनीति करार दिया है और कहा है कि मुसलमान प्रेम के नाम पर करार का विरोध करने वाले दरअसल स्वार्थी लोग हैं। तो साफ है कि करार का समर्थन या विरोध केवल एक राजनीतिक मुद्दा है, साम्प्रदायिक नहीं।

लेकिन एक चुके हुए वामपंथी और अपने कॅरियर के शीर्ष पर चल रही मायावती का परमाणु करार पर रुख कुछ याद दिलाती है आपको। आजादी से बहुत पहले 1919-1924 के बीच चला एक आंदोलन, जिसे खिलाफत आंदोलन का नाम दिया गया था। यह आंदोलन दक्षिण एशियाई मुसलमानों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ चलाया था। मुद्दा था कि ब्रिटेन ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद ओट्टोमन साम्राज्य के खलीफा के साथ किया गया वादा पूरा नहीं किया था। अब क्योंकि खलीफा मुसलमानों का मजहबी नेता हुआ करता था, तो मुसलमानों के लिए इस आंदोलन में शामिल होना एक मजहबी मसला माना गया। भारतीय मुसलमान भी उसमें शामिल हो गए थे। भारत में उस समय आजादी की लड़ाई चल रही थी और ऐसे में गांधी जी को लगा कि ब्रिटेन के खिलाफ मुस्लिमों की नाराजगी को भुनाने का यह एक अच्छा मौका है। सो उन्होंने खिलाफत को अपना समर्थन दे दिया। बहुत से लोग (मैं भी) इसे गांधी जी की वह ऐतिहासिक भूल मानते हैं, जिसने पाकिस्तान के निर्माण को सैद्धांतिक मंजूरी दे दी। अल्लाम इकबाल ने जब पाकिस्तान की सोच परोसी, तो यह कहा कि क्योंकि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, इसलिए वह एक देश में नहीं रह सकते। गांधी जी का इस आंदोलन को समर्थन देना यह स्वीकार कर लेना था कि मुसलमानों को इस देश के मुद्दे से जोड़ कर आंदोलित नहीं किया जा सकता। उन्हें इस देश के हितों के लिए खड़ा करने के वास्ते किसी भी मुद्दे को मजहब की चाशनी में लपेट कर पेश करना होगा। यह एक तरफ तो मुसलमानों के अलग राष्ट्र होने के सिद्धांत पर मुहर था, दूसरी ओर उनकी बाह्य निष्ठा को मान्यता देना था।

खैर, अब इराक और तालिबान पर हमले के कारण अमेरिका के मुसलमानों का शत्रु होने का फतवा देना और इसी को अमेरिका से भारत के संबंध तय करने का आधार बनाना, एक बार फिर उसी खिलाफत आंदोलन की याद दिला रहा है। इस नए खिलाफत का परिणाम क्या होगा, भगवान जाने। उम्मीद है तो बस इतनी कि न तो ज़मीन से कटे वामपंथी नेता और मायावती, गांधी जी के कद के सामने कहीं ठहरते हैं और न ही जनता अब किसी भी नेता को उस तरह पूजने को तैयार है, जैसा कि वह 1924 में गांधी जी को पूजती थी।

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

अमरनाथ हो या परमाणु करार, बवाल की जमीन तो एक ही है

कश्मीर की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां आजकल एक ही राजनीतिक रणनीति पर काम कर रही हैं। पीडीपी ने साढ़े चार साल तक कश्मीर की सत्ता का सुख लिया, वामपंथियों ने चार साल से ज्यादा तक भारत की सत्ता का। अब जब कश्मीर में विधानसभा और देश में लोकसभा चुनावों की आहट सुनाई देने लगी है, तब दोनों को ध्यान आया कि जिसके साथ मिलकर वे सत्ता का सुख ले रहे हैं, उसी के खिलाफ तो उन्हें चुनाव भी लड़ना है। पश्चिम बंगाल और केरल में कांग्रेस को गालियां देकर वामपंथियों को जहां अपने लिए वोट बटोरने हैं, वहीं कश्मीर में कांग्रेस के खिलाफ पीडीपी को जंग लड़नी है। तो दोनों ने अपने-अपने इलाकों में उन्हीं मुद्दों पर सरकार से समर्थन वापस लेने का एलान किया है, जो पिछले चार-साढ़े चार साल के सत्ता में उनकी भागीदारी के दौरान पैदा हुए और पले।

लेकिन यह गणित कोई महान गुप्त विज्ञान तो है नहीं, जिसे कोई समझ न सके। इसके बावजूद ये निर्लज्ज पार्टियां अगर इस रणनीति पर काम कर रही हैं, तो इसका मतलब है कि उन्हें पता है कि मतदाता मूलतः मूर्ख होता है और भावनाओं में बहकर ही अपने मताधिकार का इस्तेमाल करता है। सच है, कि बाद के पांच सालों में रोता-कलपता ही रहता है, लेकिन तब तक तो चिड़िया खेत चुग चुकी होती है।

दरअसल यह केवल राजनीतिक रणनीति का सवाल नहीं है, दोनों पार्टियों का चरित्र भी एक ही है। वामपंथियों का चीन प्रेम जगजाहिर है और इसके लिए वे भारत के हितों की बलि चढ़ाने से भी नहीं चूकते। खास बात यह है कि इन्हें इसमें कोई शर्म भी महसूस नहीं होती और 1962 में हुए चीन हमले, अरुणाचल, सिक्किम पर चीन के दावे और अमेरिका से परमाणु करार के अनेकों मसले पर उनके रुख को देखते हुए साफ है कि उन्हें भारत से ज्यादा चीन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने की चिंता ज्यादा होती है। इसका एक प्रकट कारण तो उनकी विचारधारा ही हो सकती है, लेकिन इसके गुप्त कारणों को जानने के लिए उस बातचीत का ब्योरा जानने की जरूरत होगी जो हर कुछ महीनों पर चीन जाने वाले वाम दलों के प्रतिनिधिमंडल और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के बीच होती है। वामपंथी दलों की फंडिंग की जांच से भी इसका कुछ अंदाजा मिल सकता है।

दूसरी ओर पीडीपी है। पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती की प्रेस कॉन्फ्रेंस या सार्वजनिक तकरीरें सुनी हैं आपने? उनके भाषणों में भारत और भारतीय सेना का जिक्र ऐसे होता है, जैसे वह किसी तीसरे मुल्क के बारे में बात कर रही हों। अभी हाल ही में वह पाकिस्तान गई थीं और वहां उनका जैसा भव्य स्वागत हुआ और वह उससे जितनी अभिभूत हुईं, उसका ब्योरा गूगल बाबा के शरण में जाकर कोई भी जान सकता है। कश्मीर लौटकर भी उन्होंने बार-बार पाकिस्तान की अपनी यात्रा का जिक्र इस तरह किया जैसे उनका जन्म ही इसी यात्रा के लिए हुआ था और इसके बाद वह सफल हो गया। तो इसे उनका पाकिस्तान प्रेम कहा जा सकता है। लेकिन महबूबा मुफ्ती के पाकिस्तान प्रेम का कारण समझना बहुत मुश्किल नहीं है। उनकी जवाबदेही पूरे देश के सामने नहीं है। उनका टार्गेट ऑडिएंस केवल कश्मीरी मुसलमान है और सच्चाई यही है कि आज भी कश्मीरी मुसलमान का अधिसंख्य हिस्सा भारत से प्रेम नहीं करता। उसके मन में एक अलगाव बोध (sense of alienation) है। कश्मीर (जम्मू के अलावा) में जो भारतीय पक्ष है, उसका प्रतिनिधित्व कांग्रेस के पास है, जो भारत के प्रति तटस्थ हैं और विरोधी है, उनके प्रतिनिधित्व के लिए नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी में मारामारी है। साथ ही चाहे महबूबा मुफ्ती हों या उमर अब्दुल्ला, कोई भी अलगाववादियों और आतंकवादियों से सीधे टक्कर लेकर कश्मीर में अपनी राजनीति नहीं चला सकता।

तो यही कारण है कि न तो महबूबा मुफ्ती को इस बात से कोई मतलब है कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड पर शुरू हुई राजनीति से कश्मीर में अलगाववादियों को कितनी ताकत मिलेगी और न ही वामपंथियों को इससे कि परमाणु करार नहीं होने से देश की ताकत पर किस तरह का और कितना असर पड़ेगा।

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

मैं एक प्रखर हिंदू हूं, लेकिन मैं आहत नहीं हूं

मेरी पत्नी एक गृहिणी हैं और राजनीति से उनका संबंध उतना ही है, जितना हमारे देश की महिलाओं (चाहे गृहिणी हों या कामकाजी) का आम तौर पर होता है। लेकिन वे अखबार पढ़ती हैं और बड़े ध्यान से पढ़ती हैं। खास बात यह है कि वे उसमें राजनीति की खबरें भी पढ़ती हैं। इस बात का पता मुझे आज सुबह तब चला जब मेरे सोकर उठते ही उन्होंने इस देश में अल्पसंख्यक के विशेषण से विशेष आदर और सम्मान पाने वाले करीब 17-18 फीसदी भारतवासियों के खिलाफ बहुत ही कड़े और उग्र विचार व्यक्त करने शुरू किए। वे विचार इतने उग्र और भड़काउ थे कि यहां उन्हें लिखने का साहस मैं नहीं जुटा पा रहा। मैं इन विचारों को सुनकर घबरा गया और पूछा कि इस तरह के अलोकतांत्रिक और अराष्ट्रीय विचारों का कारण क्या है। पता चला कि वह अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लेने के सरकार के फैसले से बहुत आहत थीं। मैंने सोचा कि हो न हो, उन्होंने किसी राजनेता का कोई भड़काउ बयान पढ़ लिया होगा। मैं आश्वस्त था कि उन्हें इस मुद्दे की पूरी जानकारी नहीं होगी, इसलिए मैंने उनके अज्ञान को ही उनके विचारों की काट का हथियार बनाना चाहा। मैंने पूछा कि क्या आपको पता है ये पूरा मुद्दा क्या है। उन्होंने घटना का सटीक ब्योरा भी दे दिया। फिर मैंने उन्हें समझाने के लिए कुछ दूसरी बातों का सहारा लिया, लेकिन मैं बहुत सफल रहा, इसका मुझे भरोसा नहीं है।

दरअसल इस देश में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हो रहे भेदभावपूर्ण रवैये पर साम्प्रदायिक और फासिस्ट करार दिए जाने से डरे बगैर मैंने हमेशा से लिखा है। यह जानने के लिए कोई डॉक्टरेट लेने की जरूरत नहीं है कि इस देश की राजनीति समय-बेसमय हिंदुओं को लतियाने-गलियाने में लेश भी नहीं हिचकती, जबकि मुसलमानों से लात-जूते और गालियां खाने पर भी दांत निपोर कर उन्हें गले लगाने को बेचैन रहती है। लेकिन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ज़मीन दिए जाने और फिर लिए जाने का खेल सामान्य राजनीति नहीं है। इस राजनीति से कश्मीर का भविष्य जुड़ा है।

इस खेल को समझने के लिए यह समझना होगा कि किस पार्टी का क्या दांव पर लगा है। कश्मीर में इस खेल के दो मुख्य पक्ष हैं। कांग्रेस और पीडीपी। कांग्रेस से कोई पूछे कि अगर पिछली आधी शताब्दी से सब कुछ ठीक ही चल रहा था, तो एकाएक बोर्ड को ज़मीन देने की जरूरत क्या पड़ गई। दरअसल ऐन चुनाव के वक्त किया गया कांग्रेस का यह खेल शाहबानो केस की याद दिलाता है। पहले मुसलमानों को खुश करने के लिए संविधान संशोधन कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलना, फिर नाराज हिंदुओं को खुश करने के लिए बिना किसी उकसावे के अयोध्या के राम मंदिर के ताले खोलना। इस बार मामला थोड़ा उलटा है। पहले हिंदुओं को खुश करने के लिए अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ज़मीन देना और फिर मुसलमानों को खुश करने के लिए उसे वापस लेना।

पीडीपी की राजनीति में उलझाव नहीं है। उसे कश्मीरी मुसलमानों का वोट चाहिए (वैसे भी घाटी में अब शायद ही कोई हिंदू बचा है)। इसके साथ ही उसकी जमीनी मजबूरियां हैं कि वह अलगाववादी और आतंकवादी ताकतों के सीधे निशाने पर नहीं आना चाहेगी। जिस कांग्रेस सरकार ने बोर्ड को ज़मीन दी, पीडीपी उसका हिस्सा थी और उसके उप मुख्यमंत्री ने संबंधित दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे। ऐसे में चुनाव के ठीक पहले पीडीपी के इस नाटक को समझने के लिए राजनीति का पंडित होने की जरूरत नहीं है।

अब एक तीसरा पक्ष भी है, जो वैसे तो इस घटनाक्रम में पक्ष नहीं है, लेकिन भारतीय राजनीति में हिंदू हितों के एकमात्र पैरोकार के तौर पर उसका पक्ष बनना लाजिमी है। यह तीसरा पक्ष है भाजपा और विहिप का, जिन्होंने बोर्ड से ज़मीन वापस लिए जाने के विरोध में आज भारत बंद रखा है। भाजपा और विहिप आहत हैं हिंदू हितों पर हुए आघात से।

लेकिन एक प्रखर और मुखर हिंदू होने के बावजूद मैं इस भारत बंद से अलग हूं। मैं आहत नहीं हूं, क्योंकि मैं समझ सकता हूं घात और प्रतिघात की यह राजनीति। जिस तरह पीडीपी ने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए कश्मीरी मुसलमानों के मन में भारत के प्रति जहर भरा है, कुछ वही काम भाजपा और विहिप देश के मन में कश्मीरी मुसलमानों के प्रति जहर भर के कर रहे हैं।

पाकिस्तान न तो कश्मीरियों का हामी है, न उसे कश्मीर से कोई मतलब है। उसका एकमात्र उद्देश्य भारत को तोड़ना और कमजोर करना है। इस बात के पूरे संकेत हैं कि घाटी में हुआ बवाल पाकिस्तान के इशारे पर हुआ। बोर्ड को ज़मीन देने का मुद्दा अलगाववादियों और आतंकवादियों के लिए कश्मीरी जनता के बीच फिर से अपनी पकड़ बनाने का एक बेहतरीन मौका लेकर आया था। इसलिए मेरे विचार से बोर्ड से ज़मीन वापस लेकर आजाद सरकार ने एक सही कदम उठाया है। कश्मीरी जनता बोर्ड को ज़मीन देने का विरोध नहीं कर रही थी, दरअसल वह इस अफवाह के कारण सड़क पर उतरी थी कि यह जमीन स्थाई निर्माण और बाहर से लोगों को वहां बसाने के लिए दिया गया है। इस पर अड़ने का अर्थ कश्मीर अवाम में फिर यह सोच मजबूत करना होता कि बाकी देश को उसकी भावनाओं से कोई मतलब नहीं है।

यहां प्रकारांत से एक और मुद्दा भी उठा है। यह है धारा 370 का। मेरा सुविचारित मत है कि इस धारा को हटना चाहिए और कश्मीर में बाहरी लोगों के बसने का रास्ता खुलना चाहिए। लेकिन यह जोर-जबर्दस्ती से नहीं हो सकता। इसके लिए पहले कश्मीर की जनता को तैयार करना होगा। पूरी कश्मीरी जनता को खिलाफ कर हम कश्मीर को अपने साथ नहीं रख पाएंगे। वैसे भी जब राज ठाकरे जैसा देशद्रोही महाराष्ट्र से गैर मराठियों को बाहर करने का अभियान छेड़ कर जननेता कहला सकता है, तो कश्मीरियों को इसी मांग के लिए देशद्रोही कहने का हमें क्या अधिकार है?