बुधवार, 27 अगस्त 2008

'इस चैनल को तो बंद करा देना चाहिए'

लगता है जैसे किसी स्टिंग ऑपरेशन से त्रस्त एक भ्रष्ट नेता प्रेस की आजादी के खिलाफ अपनी भड़ास निकाल रहा है। जब भी ऐसा होता है, तो विश्वास मानिए कि हर पत्रकार को काफी खुशी होती है। लगता है पत्रकारिता जिंदा है। लगता है कि भ्रष्टों के बीच कलम का खौफ कायम है। लेकिन जब एक वरिष्ठ और संवेदनशील पत्रकार ही किसी न्यूज चैनल के बारे में दुख और क्षोभ के साथ ऐसी टिप्पणी करे, तो फिर लगता है कि पत्रकारिता को अपने गिरेबान में झांक कर देखने की जरूरत आ गई है। कल का दिन ओलंपिक में भारतीय तिरंगे को सम्मान दिला कर लौटे जांबाजों के स्वागत का दिन था। करोड़ों देशवासियों के लिए उनके प्रति कृतज्ञता जताने का दिन था कि हमारे द्वारा चुने गए पतित नेताओं के भ्रष्टाचार की दलदल में कमर के नीचे तक धंसे होने के बावजूद अपनी अप्रतिम प्रतिभा और कौशल से तीन धुरंधरों ने देश को ओलंपिक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिया। दिन में इन विजेताओं ने देश के शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात की, एक पांच सितारा होटल में प्रेस से रूबरू हुए। मन में एक गौरवपूर्ण अहसास लिए दिन खत्म करने की उनकी उम्मीद कायम न रह सकी, कम से कम तीनों मुक्केबाजों, विजेन्दर, अखिल और जितेन्द्र के बारे में तो यह कहा ही जा सकता है।

उनकी किस्मत खराब थी कि रात को वो पहुंच गए इंडिया टीवी के स्टूडियो। करीब 11 बजे रात को चल रहा था लाइव। अब या तो बेचारों को ताजा टीवी संस्कृति की जानकारी नहीं है, या फिर उन्हें यह भी नहीं पता था कि इंडिया टीवी ने महीनों पहले न्यूज चैनल के चोले के अंदर सी ग्रेड मनोरंजन चैनल के टोटके भर लिए हैं। एक एंकर (उसके साथ मेरी सहानुभूति है क्योंकि मुझे पता है कि उसने जो भी किया, उसके पीछे केवल चैनल के नीति निर्धारकों का दबाव होगा और सहानुभूति इसलिए कि पत्रकारिता करने आया कोई भी व्यक्ति लंगूरों और भालुओं की तरह स्क्रीन पर नाचना पसंद नहीं करता) बॉक्सिंग ग्लब्स पहन कर बैठी थी और उन तीनों मुक्केबाजों को खुद से लड़ने के लिए ललकार रही थी। बेचारे हरियाणे के खिलाड़ी गिड़गिड़ा रहे थे कि जी, वो... हम तो रिंग में ही लड़ पाते हैं। जी, हमें तो माफ ही कर दो। फिर अंत में उनमें से एक बेचारा लड़ने को तैयार हुआ और इंडिया टीवी को अपना प्रिय टीआरपी तमाशा मिल गया। एक मुक्केबाज को ऐसा कच्छा पहनाया गया था, कि जिन अंगों को तमाम साहित्यों में गुप्त कह कर पुकारा गया है, वो प्रकट होने का आभास दिला रहे थे।

टीआरपी के इस नंगे खेल में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का फट पड़ना स्वाभाविक है। तो इस लेख के शीर्षक के तौर पर जिस बयान का मैंने जिक्र किया, वह आश्चर्यजनक नहीं लगता। लेकिन इसकी गंभीरता तब और बढ़ जाती है जब एक गुजराती और एक हिंदी अखबार शुरू करने वाले अनुभवी और देश के सबसे प्रतिष्ठित आर्थिक अखबार में वरिष्ठ संपादक के पद पर मौजूद मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी जैसे पत्रकार ऐसी टिप्पणी करने पर मजबूर हो जाएं। दरअसल यह पूरा खेल जब इंडिया टीवी पर चल रहा था, उस समय मैं अपने अखबार के पन्ने छोड़ने में व्यस्त था। लेकिन उसी बीच उनका फोन आया और बातचीत में उनका दुख और क्षोभ भी बाहर आ गया। मीडिया के गिरते स्तर पर चर्चा नई नहीं है, लेकिन मेरे मन में कल रात से यही सवाल आ रहा है कि जब ऐसे वरिष्ठ और अनुभवी पत्रकार भी इंडिया टीवी छाप पत्रकारिता से इस हद तक क्षुब्ध हों, तो एक आम आदमी के मन में पत्रकारिता (क्योंकि आम आदमी पत्रकारिता को चैनल या अखबार के नजरिए से नहीं देखता, उसके लिए तो हर पत्रकार पूरी पत्रकारिता का प्रतिनिधि है) की क्या प्रामाणिकता बच रही होगी।

शनिवार, 23 अगस्त 2008

'प्रमाण पत्र' का जुमला फेंकने की बजाय आइए मुद्दों की बात करें

जब भी आतंकवाद की बात होती है और जब भी उसके खिलाफ मुस्लिम समुदाय के सक्रिय सहयोग की बात होती है, इस समीकरण से असहज हुए एक तबके की ओर से छूटते ही एक बड़ा लोकप्रिय जुमला जड़ दिया जाता है- मुसलमानों को किसी से देशभक्ति का प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है। कल मैंने लिखा था कि भारतीय मुसलमानों को कौम के घोषित ख़ैरख़्वाहों की देशविरोधी नीतियों के विरोध में आगे आना चाहिए। प्रसंगवश आरएसएस का भी जिक्र किया था, क्योंकि दुर्भाग्य से इस देश में राष्ट्रीय गौरव और अल्पसंख्यकवाद का विरोध करने वाले सभी लोगों को संघी ही करार दिया जाता है। मुझे चार टिप्पणियां मिलीं उनमें तीन का स्वर यही था कि मुसलमानों को संघ या बीजेपी से देशभक्ति का प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं हैं।

मैं आम तौर पर टिप्पणियों पर टिप्पणी करने के पक्ष में नहीं रहता, लेकिन मुझे लगता है कि 'प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं है' के जुमले पर मुझे कुछ कहना चाहिए। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि आपको किसी से देशभक्ति का प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं है, लेकिन आपको अपने आसपास के लोगों और समाज के प्रति संवेदनशील तो रहना ही होगा। दरअसल यह बात समझने में उन लोगों को दिक्कत होती है जो अपने घर को साफ रखने के लिए कचरा सड़क पर फेंकने में यकीन रखते हैं। नहीं तो क्या आप खुद उस मुहल्ले में रहना पसंद करते हैं, जहां आपका पड़ोसी रोज शराब पीकर दंगे कर रहा हो, जहां आपकी बेटी और पत्नी खुद को सुरक्षित नहीं महसूस कर रही हों। वहां तो आप यह जुमला नहीं उछालते कि इस दारूबाज को किसी से अच्छा होने का प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं है। वहां आप उसे मुहल्ले से निकालने के लिए सबसे पहले झंडा उठाते हैं, लेकिन जब यही घटना पड़ोस के मुहल्ले में होती है तो आप उस शराबी के मानवाधिकार का कानून पढ़ने लगते हैं।

पिछले 5 साल में हुए दसियों विस्फोट में पकड़े गए सभी आतंकवादी अगर एक ही कौम के हैं तो क्या इसके लिए दूसरे कौम दोषी हैं। हर दूसरे महीने बाजारों में, अस्पतालों में, रेलवे और बस स्टेशनों पर लोगों के चीथड़े उड़ रहे हैं और हमें कहा जा रहा है कि ऐसा करने वाले भटके हुए बच्चे हैं। हर प्राकृतिक आपदा में बिना मजहब देखे लोगों की दिन-रात सेवा करने वाले लोगों को साम्प्रदायिक होने का प्रमाण पत्र देने वाले लोग सिमी और हूजी का खुलकर समर्थन कर रहे हैं, लेकिन उनसे नहीं पूछा जाता कि उन्हें किसी को सेकुलरिस्ट, फासिस्ट, कम्युनलिस्ट आदि के सर्टिफिकेट बांटने का क्या अधिकार है।

बम विस्फोट के मामले में पकड़े गए हर संदिग्ध के घर वाले अपने बयान में यह जरूर कहते हैं कि उनके बच्चे को इसलिए परेशान किया जा रहा है कि वह मुसलमान है। मतलब किसी को केवल इसलिए नहीं छुआ जाए कि वह मुसलमान है। सुप्रीम कोर्ट को पागल घोषित करने वाले बुखारी की जामा मस्जिद में करीब साल भर पहले एक विस्फोट हुआ था। क्या हुआ उसकी जांच का? वहां गए दिल्ली पुलिस के अधिकारी को वहां से अपमानित कर, डरा कर भगा दिया गया था, जांच भी नहीं करने दी गई। और अब वही बुखारी कह रहा है कि बशीर का बलिदान कौम की भलाई करेगा। यानी सारे आतंकवादी मुसलमानों की भलाई में विस्फोट और हत्याएं कर रहे हैं। इसके बाद भी बुखारी मुसलमानों का सबसे बड़ा मजहबी नेता है। सिमी का समर्थन करने वाले लालू और मुलायम मुसलमानों के सबसे बड़े नेता हैं।

तो अनिल जी, तस्लीम जी और दिनेशराय जी मुझे बताएं कि प्रमाण पत्र का सवाल कहां उठता है। हमारे आसपास, अगल-बगल, आगे-पीछे जो हो रहा है, उसकी अनदेखी एक अंधा भी नहीं कर सकता। सब चीजें शीशे से भी ज्यादा साफ है। फिर भी अगर आप नहीं देख पा रहे, तो मतलब यही है कि आपने अपनी संवेदी इन्द्रियां कुंद कर ली हैं और आप देखना ही नहीं चाहते। आपको यह तो जरूर याद होगा कि विश्व हिंदू परिषद के एक नेता वेदांती ने करुणानिधि का सर काटने का फतवा दिया था और उसके साथ खड़ा होने के लिए एक आम हिंदू की तो बात छोड़िए, बीजेपी और संघ के लोग भी तैयार नहीं हुए। उस समय किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि वेदांती को किसी से सभ्य होने का प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं। यह हाल बुखारी या लालू या मुलायम का क्यों नहीं होता?

बेहतर होता कि अगर प्रमाण पत्र का जुमला फेंकने के बजाय उन मुद्दों पर बात की जाती जिनके कारण यह कहने की जरूरत पड़ रही है कि हमें आपसे प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

भारत का मुसलमान- राष्ट्रवादी या आतंकवादी ?

भारत में लगातार हो रही आतंकवादी घटनाएं, इनमें स्थानीय मुसलमानों की बढ़ती भूमिका, साथ ही साथ इस्लामी आतंकवाद के विरोध में मुखर होता मुसलमानों का एक तबका। इन तीनों घटनाओं के बीच एक आम भारतीय मुसलमान का खुद को आतंकवादी कहे और समझे जाने का दर्द। गड़बड़ कहां है? इसे समझे बिना नतीजे पर तो पहुंचा नहीं जा सकता। तो आइए समझने की कोशिश करते हैं।

वामपंथियों, सेकुलरों और मुसलमानों की नजर में भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन राष्ट्रवाद। और राष्ट्रवाद का प्रतिनिधि संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)। दूसरा पक्ष, सेकुलरों के सबसे बड़े प्रतिनिधि लालू यादव और मुलायम यादव और मुसलमानों का सबसे पड़ा पंथिक नेता अब्दुल्ला बुखारी। आरएसएस कहता है कि इस देश के 98 फीसदी मुसलमानों की मूल भूमि भारतवर्ष है इसलिए इन सभी की संस्कृति राम और कृष्ण की संस्कृति है। मक्का, मुहम्मद और कुरान मुसलमानों का धर्म हो सकते हैं, लेकिन उनकी संस्कृति आर्य संस्कृति है। इस ढांचे को समझने-समझाने के लिए वह इंडोनेशिया का उदाहरण देता है जो इस्लामिक देश है, लेकिन जहां का सबसे बड़ा सामाजिक आयोजन रामलीला होती है, जहां का राष्ट्रीय एयरलाइन 'गरुड़' है और जहां के मुसलमान का नाम मेगावती सुकर्णोपुत्री जैसा होता है। तो आरएसएस की
नजर में हिंदू राष्ट्रवाद और इस्लाम का आपस में कोई विरोध नहीं है। अपनी इसी सोच के कारण संघ ने राष्ट्रवादी मुसलमानों के संगठन की कोशिशें भी शुरू कर दी हैं और इसके लिए एक प्रचारक इंद्रेश को बाकायदा जिम्मेदारी भी सौंपी गई है।

और आइए अब देखते हैं कि दूसरे पक्ष के प्रतिनिधि लालू, मुलायम और बुखारी क्या कहते हैं? लालू और मुलायम घोषित और सिद्ध आतंकवादी संगठन सिमी पर प्रतिबंध का विरोध कर रहे हैं। और बुखारी? अहमदाबाद बम विस्फोट के मास्टर माइंड बशीर के पिता को सांत्वना देने गए बुखारी साहब कहते हैं कि बशीर के इस बलिदान से कौम की सलाहियत होगी। (इंडियन एक्सप्रेस, फ्रंट पेज, 22 अगस्त)। समझने की बात यही है और गड़बड़ भी यहीं है। लालू, मुलायम और बुखारी ने मुसलमान समाज के प्रति अपनी राय साफ कर दी है। उन्हें लगता है कि देश का हर मुसलमान या तो आतंकवादी है या आतंकवाद का समर्थक है, पाकिस्तान का हामी है।

दृश्य अब कुछ साफ लग रहा है। एक ओर राष्ट्रवाद और दूसरी ओर आतंकवाद। राष्ट्रवाद की धारा कह रही है कि मुसलमान राष्ट्रवादी है और उसे मिलकर आतंकवाद को कुचल देना चाहिए। आतंकवाद कह रहा है कि मुसलमान आतंकवादी है और उसे राष्ट्रवाद को मटियामेट कर देना चाहिए। गेंद मुसलमानों के पाले में है। चुनाव मुसलमान का है। अगर इस देश का मुसलमान बशीर को कौम का शहीद मानने वाले और सिमी पर प्रतिबंध से अनिद्रा के शिकार हुए राष्ट्रद्रोहियों के साथ खड़ा होगा, तो फिर खुद को संदेह की नजरों से देखे जाने का उसका दर्द ढकोसले से ज्यादा कुछ नहीं लगेगा।