शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

वैलेंटाइन बाबा की पुण्यतिथि मनाने में बुरा क्या है?

वैलेंटाइन डे हमारे देश में हर साल पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण होता जा रहा है। दो कारक हैं जो इसके महत्व के लिए कैटेलिस्ट की भूमिका निभा रहे हैं। पहला, बाजार और दूसरा भारतीय संस्कृति के मर्म से अपरिचित संस्कृतिवादी। पहले की बात पहले की जाए। जितने भी लोग वैलेंटाइन डे मनाते हैं, वे वास्तव में इसके दार्शनिक पहलू के प्रति कितने निष्ठावान हैं? पता नहीं। कोई प्रामाणिक आंकड़ा तो मेरे पास है नहीं, फिर भी समाज के प्रति अपनी समझ के आधार पर दावा कर सकता हूं कि 2-3 फीसदी लोगों से ज्यादा को न इस दिन के इतिहास का पता होगा, न दर्शन का। इसलिए "वैलेंटाइन डे मनाने वाले" यह वाक्यांश ही ग़लत है। मनाया विजयदशमी जाता है, मनाए 15 अगस्त और 26 जनवरी जाते हैं, मनाई दिवाली जाती है, लेकिन वैलेंटाइन डे मनाया नहीं जाता है। ये तो "पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए" की तर्ज पर मनता है।

अगर वैलेंटाइन नाम के कोई संत तीसरी शताब्दी के रोम में पैदा हुए थे और अगर उन्होंने वहां के शासक क्लॉडियस द्वितीय की उस राजाज्ञा को चुनौती दी थी, जिसमें युवाओं के विवाह करने पर इसलिए रोक लगा दी गई थी, क्योंकि उसका मानना था कि विवाहित युवक कभी बहुत अच्छा सैनिक नहीं हो सकता और अगर उन्हें इस विद्रोह के लिए मौत की सजा दे दी गई थी, तो यह कहानी पश्चिमी देशों या इसाई संस्कृति को भले ही रोमांचित कर जाए, भारतीयों के लिए तो मुझे इस कहानी में रोमांच का कोई सूत्र नजर नहीं आता। यह एक क्षेत्र विशेष के राजा की सनक के खिलाफ वहां की स्थानीय प्रजा का विद्रोह था, जिसके पीछे कारण प्रेम भी हो सकता है और राजनीति भी। गांधी ने भी तो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में खिलाफत का इस्तेमाल किया था या भारतीय क्रांतिकारियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध को अंग्रेजों को कमजोर करने का एक बेहतरीन मौका माना था। इसका मतलब यह तो नहीं कि हम खिलाफत या द्वितीय विश्व युद्ध के मुरीद बन जाएं। लेकिन वैलेंटाइन डे मनाने वालों से इतने सारगर्भित विचार की उम्मीद भी बेवकूफी होगी क्योंकि यह वो वर्ग है जिसकी चले तो पूरे 365 दिन प्रेम के नाम पर उच्छृंखलता और अमर्यादा का खेल खेलकर आनंदित होता रहे। वैलेंटाइन डे तो बस एक ऐसा दिन है जब इस खेल को सामाजिक मान्यता मिल चुकी है, इसलिए यह उन्हें प्रिय है। और फिर भारतीय संस्कृति के कुछ मूर्ख अलंबरदारों के कारण इस दिन के आयोजन को अनायास ही बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों का समर्थन भी मिलने लगा है। तो महीनों से दिल में दबे अरमानों को अभिव्यक्ति देने का ऐसा बेहतरीन मौका क्यों गवाया जाए, भले ही यह वैलेंटाइन डे की खोल में हो या फिर किसी और दिन के लिफाफे में।

अब बात करते हैं दूसरे तरह के कैटेलिस्ट की, जिसका पर्याय फिलहाल प्रमोद मुतालिक के गुंडे और शिव सेना जैसी क्षुद्र पार्टियां बनी हुई हैं। इन्हें यह छोटी सी बात समझ में नहीं आ रही कि क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती है। जब से इन लोगों ने वैलेंटाइन डे का विरोध शुरू किया है, तभी से इसका ग्लैमर भी बढ़ता गया है। अगर इन मूर्खों ने इसके खिलाफ नकारात्मक प्रचार अभियान चलाने के बजाए सकारात्मक आंदोलन चलाया होता, तो ऐसी कुरीति का ज्यादा सक्षम विरोध किया जा सकता था। क्योंकि वैश्वीकरण, इंटरनेट और टेलीविजन के प्रभाव ने जिस तरह पूरी दुनिया को एक गांव में बदल दिया है, उसमें अपने गांव को पूरी दुनिया से अलग रखने की कोशिश समय की लहरों को पलटने का दुस्साहस ही कहा जाएगा। और समय के साथ तारतम्य नहीं बैठा पाने से तो डायनासोर भी विलुप्त हो गए। इसलिए जरूरत पश्चिमी संस्कृति की खाद से फल-फूल रहे इस तरह के आयोजनों का विरोध करने की नहीं, बल्कि इनका भारतीयकरण करने की है। अगर वैलेंटाइन बाबा सचमुच प्रेम के प्रतीक हैं, तो वह प्रेम केवल कॉलेज जाने वाले ऐसे लड़के-लड़कियों तक सीमित क्यों रहे, जिसकी परिणति किसी पार्क में
एक-दूसरे के स्पर्श या उससे भी अधिक किसी बंद कमरे में हो जाती है। वह प्रेम समाज के हमारे पिछड़ों (जाति आधार पर नहीं) और वंचितों तक क्यों नहीं पहुंचे। श्री राम सेने, शिव सेना और बजरंग दल जैसे संगठन इस दिन का खास इस्तेमाल समाज के इन वर्गों को मुख्यधारा में लाने के लिए कर सकते हैं। और वैलेंटाइन डे को एक ऐसे भारतीय आंदोलन में बदला जा सकता है जहां क्षुद्र शारीरिक कामेच्छाओं को प्रेम की चाशनी में लपेटने की कोशिश करने वाले खुद ही शर्मिंदा होकर भौंडे सार्वजनिक प्रदर्शनों से बाज आ जाएं।

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

बोलो बेटा क्या बनोगे ....गांधी या मुतालिक?

टाइम्स ऑफ इंडिया में दिल्ली संस्करण के मास्टहेड पर आज दो कटआउट लगे हैं, जिनका कंट्रास्ट अद्भुत है। दाईं ओर महात्मा गांधी और बाईं ओर प्रमोद मुतालिक। मुझे पूरा विश्वास है कि इस लेख को पढ़ते समय किसी के भी मन में यह सवाल नहीं कौंधा होगा कि "कौन प्रमोद मुतालिक"। क्योंकि आज की तारीख में प्रमोद मुतालिक से भी इस देश के लोग उतने ही ज्यादा परिचित हैं, जितने मोहनदास करमचंद गांधी। दरअसल भारत में यह गुंडागर्दी का इनाम है।

कॅरियर का विचार करते समय हम अक्सर मुनाफे और नुकसान का हिसाब लगाते हैं। बहुत बार हमें हिंदी अच्छी लगती है, लेकिन हम इसलिए स्नातक के लिए अंग्रेजी का चुनाव करते हैं, क्योंकि वहां कॅरियर की संभावनाएं व्यापक और बेहतर हैं। अब अगर देश के सबसे प्रभावशाली अखबार के पैनल पर छपने की मेरी इच्छा जाग जाए, तो मेरे लिए गांधी बनने का रास्ता तो हजारों मील लंबा और वर्षों की तपस्या से होकर गुजरेगा, लेकिन मुतालिक बनने का रास्ता...... बस कुछ गुंडों के साथ एक पब में घुस कर गुंडागर्दी करना। या शायद खुद पब में जाने की भी जरूरत नहीं। कुछ बेरोजगार मू्र्खों को उकसा कर मारपीट करवाइए और गांधी के बराबर खड़े हो जाइए।

कुछ मित्रों को लग सकता है कि पैनल के कटआउट को इतना बड़ा आयाम देना उचित नहीं है। लेकिन, क्योंकि मैं भी अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर एक अखबार के मास्टहेड के लिए रोज पैनल कटआउट का चुनाव करता हूं, तो हम आपस में जरूर इस बात पर विचार करते हैं कि क्या अमुक व्यक्ति को इतना बड़ा मंच देना उचित है। तो यह मानने का कोई कारण नहीं कि टाइम्स ऑफ इंडिया में इस विषय के लिए जिम्मेदार पत्रकारों ने यह विचार नहीं किया होगा। दूसरी बात, सवाल एक कटआउट का नहीं, सवाल हमारी व्यवस्थागत त्रुटि का है, जहां किसी समाज के सबसे वंचित समुदायों के लिए दशकों तक काम करने वाले को तो हम केवल तभी जान पाते हैं जब उसे कोई विदेशी पुरस्कार मिलता है, लेकिन प्रमोद मुतालिकों और राज ठाकरों को एक दिन की गुंडागर्दी से राष्ट्रीय पहचान मिल जाती है।

यह त्रुटि किसी कानून से ठीक नहीं हो सकती। इसके लिए मीडिया को ही अपने ऊपर संयम और अनुशासन लगाना होगा। लेकिन जब भूत, गड्ढे और नागों की कहानी से नंबर वन पाने की दौड़ मची हो, तो इस प्रकार का आत्मसंयम और आत्मानुशासन लागू हो पाना फिलहाल तो किसी आकाश कुसुम से कम जान नहीं पड़ता।