सोमवार, 30 मार्च 2009

वरुण गांधी पर रासुका : फिर जागा धर्मनिरपेक्षता का भूत

वरुण गांधी पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगा दिया गया है। उन पर हत्या के प्रयास का भी मुकदमा किया गया है। इस देश के धर्मनिरपेक्षतावादी खुश हैं। इसलिए नहीं कि एक वर्ग या सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ विष वमन करने वाले को सही जवाब दिया गया है, बल्कि इसलिए कि, पहला, विष वमन करने वाला अपने को हिंदू हितैषी बता रहा था और दूसरा, क्योंकि विष वमन करने वाला मुस्लिम सम्प्रदाय को अपना निशाना बना रहा था। लेकिन क्या केवल इसीलिए वरुण गांधी आतंकवादियों और राष्ट्रविरोधियों के लिए तैयार किए गए रासुका के हकदार बन जाते हैं?

अभी कुछ ही महीनों पहले महाराष्ट्र में राज ठाकरे के गुंडों ने रेलवे की परीक्षा देने आए विद्यार्थियों, टैक्सी ड्राइवरों और पान दुकान वालों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। उनके सामान लूट लिए, टैक्सियां तोड़ दीं और दुकान उजाड़ दिए। ये विद्यार्थी, टैक्सी ड्राइवर और दुकानदार दो आधारों पर पीटे गए। पहला, कि वे देश के किसी दूसरे प्रांत से थे और दूसरा, कि वे हिंदी भाषी थे। वे मुसलमान नहीं थे, क्या केवल इसीलिए इस देश की सरकार और प्रशासन ने वहां अपने संवैधानिक दायित्व को कूड़ेदान में डाल दिया? वरुण गांधी ने एक भाषण दिया और बाद में उससे मुकरने की भी कोशिश की, लेकिन राज ठाकरे ने हमले करवाए और बार-बार करवाए। भाषणों में और मीडिया इंटरव्यू में खुलेआम कहा कि वह ऐसा करते रहेंगे।

हमारे देश के धर्मनिरपेक्षतावादियों को से कोई शिकायत नहीं क्योंकि उन्होंने तो खुद को और अपनी अंतरात्मा को एक खास सम्प्रदाय के हितों की चिंता तक बांध ही रखा है। लेकिन सरकार और पुलिस की संवैधानिक जिम्मेदारियों का क्या? नक्सलवाद और आतंकवाद को न्यायोचित ठहराने के लिए पुलिसिया जुल्म और सरकारी उदासीनता को कारण बताने वाले इन धर्मनिरपेक्षतावादियों ने राहुल राज जैसे नवयुवकों की हताशा को समझने की कोशिश क्यों नहीं की? मऊ में जीप पर घूम-घूम कर दंगाइयों का नेतृत्व करने वाले विधायक की पार्टी का समर्थन करने वाले वामपंथियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों के गुजरात की मंत्री का दंगा फैलाने के आरोप में गिरफ्तार होने पर खुश होने को चाहे जो सैद्धांतिक मुलम्मा चढ़ाया जाए, यह है तो केवल क्षुद्र साम्प्रदायिकता का ही दूसरा चेहरा।

और साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने वाले भाषणों की ही बात करें तो क्या ऐसा देश में पहली बार हुआ है। मेरे एक प्रगतिशील मित्र का तर्क है कि केवल इसीलिए वरुण गांधी को छोड़ देने की दलील बिलकुल गलत है कि ऐसा पहले भी होता रहा है। मैं भी उनसे बिलकुल सहमत हूं। लेकिन उनका यह तर्क तब सही होता, अगर पहले के उदाहरणों में सरकारें या सरकार से जुड़े दलों ने ऐसे लोगों का बहिष्कार किया होता। कानूनी तौर पर न सही, नैतिक तौर पर उनकी मज़म्मत की होती। पर, सुप्रीम कोर्ट को पागल करार देने वाला इमाम बुखारी तो आपका प्रिय है, लश्कर-ए-तोएबा के केरल रिक्रूटमेंट इंचार्ज के साथ गुप्त बैठकें करने वाला और कोयम्बटूर बम विस्फोट के आरोप में वर्षों जेल में रहने वाला मदनी तो आपका सहयोगी है, बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए मुख्य आतंकवादी के घर जाकर आंसू बहाने वाले नेता तो देशभक्त हैं और अपने पूरे राजनीतिक जीवन के दौरान पहली बार एक सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ भाषण देने वाले और उसके बाद उस पर कायम न रहने वाले वरुण
गांधी देशद्रोही है। यह बात कुछ हजम नहीं होती।

लेकिन हर बार की तरह इस बार भी धर्मनिरपेक्षतावादी (छद्म लगाना जरूरी नहीं है, क्योंकि पिछले 10 सालों की धर्मनिरपेक्ष राजनीति और इसके अलंबरदारों ने इस शब्द को अपने आप छद्म साबित कर दिया है) वरुण गांधी और भाजपा दोनों के सबसे हितैषी बन कर उभरे हैं क्योंकि शायद साल भर के संभावित जेल और रासुका ने एक बार फिर चुनाव से ठीक पहले उन्हें वो ताकत दे दी है, जिसकी उन्हें जरूरत थी।