गुरुवार, 18 जून 2009

भाजपाई हार के चीथड़े बीनने की एक और कोशिश - 2

अब बात करें भाजपा के स्पेशियलाइज्ड सब्जेक्ट की- हिंदू राष्ट्रवाद। कई विश्लेषकों का मत है कि हिंदुत्व के मुद्दे में चुनाव जिताने की क्षमता नहीं है। हिंदुत्व का मुद्दा भारतीय जनता पार्टी को पूरे भारत की जनता का प्रतिनिधि बनने में बाधा है। ये वही विश्लेषक हैं, जो हमेशा मुस्लिमों को एक वोट वर्ग मानते हुए उसे पाने की जुगत में लगी तमाम पार्टियों की तुष्टिकरण नीतियों की सहज रूप से चर्चा करते हैं। लेकिन हिंदुओं के हित में बोले गए शब्द इन्हें इन्क्लूजिव पॉलिटिक्स की राह में सबसे बड़ी बाधा लगते हैं। खैर, यहां मुद्दा ये विश्लेषक नहीं हैं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी है। अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे को अपनी रीढ़ बना कर सत्ता के करीब पहुंची भाजपा के भीतर हिंदुत्व को लेकर भ्रम कोई नई बात नहीं है। यह भ्रम उसी वक्त से शुरू हो गया था, जब राम मंदिर आंदोलन थकने लगा था। यह कहा जाने लगा कि हिंदुत्व का मुद्दा लंबे समय तक वोट नहीं खींच सकता।

पके बालों वाले खांटी विचारकों और थिंक टैंकों से भरी भाजपा और संघ में कोई भी इसे भ्रम का निदान नहीं खोज सका। दरअसल हिंदू राष्ट्रवाद और उग्र हिंदूवादी आंदोलनों का फर्क समझने की जरूरत है। हिंदू राष्ट्रवाद भारत का एक चिरंतन सत्य है, जबकि हिंदू आंदोलन किसी खास घटना की तात्कालिक प्रतिक्रिया। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि भारत में अपने 25 वर्षों के स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी ने 4-5 बड़े आंदोलन किए। लेकिन इन आंदोलनों की एक खास अवधि रही। क्योंकि एक महान जन नेता होने के नाते गांधी को पता था कि जनांदोलनों को अनिश्चितकाल तक नहीं चलाया जा सकता। इसीलिए जब-जब उन्होंने अपने आंदोलनों को जनता से दूर होते देखा, बिना आलोचकों की परवाह किए, उन्हें वापस ले लिया। चौरी-चौरा कांड के बाद वापस लिया गया असहयोग आंदोलन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। गांधी के आंदोलन वापस लेने का मतलब कभी भी यह नहीं था कि उन्हें जनता में आज़ादी की प्रतिबद्धता को लेकर संदेह कोई संदेह पैदा हो गया। दरअसल गांधी जानते थे कि आम जनता की सहनशीलता और जुझारूपन की एक सीमा होती है। एक महान नेता वही होता है, जो उस सीमा को पहचान कर उसके टूटने से ठीक पहले आंदोलन समाप्त कर दे, नहीं तो प्रतिद्वंद्वी पक्ष को उसकी कमजोरी का आभास हो जाता है। लेकिन फिर महान नेता का काम यहीं खत्म नहीं हो जाता है। वह उस आंदोलन की मुख्य धारा को जीवित ऱखने के लिए दूसरे सामाजिक-आर्थिक माध्यमों का सहारा लेता है, जैसा कि गांधी जी ने आज़ादी की मुख्य धारा को जीवित रखने के लिए खादी, स्वदेशी, महिला शिक्षा, छुआछूत निषेध जैसे माध्यमों से लिया।

लेकिन भाजपा के ज्ञानी रणनीतिकार इस सिद्धांत को या तो समझ नहीं पाए या फिर सत्ता भोग की लिप्सा ने उनकी समझदारी पर पर्दा डाल दिया। राम मंदिर आंदोलन से जगी हिंदू राष्ट्रवाद की धारा की अनंतकाल तक के लिए सत्ता प्राप्ति का माध्यम मान लिया गया। हर बार किसी चुनाव के समय अयोध्या का मुद्दा उछाल कर भाजपा ने न केवल राम मंदिर मुद्दे पर अपनी विश्वसनीयता खो दी, बल्कि हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी के तौर पर बनी उसकी पहचान पर भी धब्बे लगने लगे। पार्टी ने अपनी अगुवाई वाले 6 साल के शासन में मदरसों को मुख्यधारा में शामिल करने, बंगलादेशी घुसपैठियों को बाहर करने और आतंकवाद की रीढ़ तोड़ने से संबंधित कोई ऐसा कदम नहीं उठाया, जिसके लिए वह उसे जनादेश मिला था। यहां तक कि राम मंदिर मुद्दे पर फास्ट ट्रैक अदालत का गठन कर और दैनिक सुनवाई करा कर वह कम से कम जनता को यह संदेश तो दे ही सकती थी कि वह इस मसले के समाधान के लिए गंभीर है। 1991 से 2009 तक भारतीय जनता पार्टी ने केवल आंदोलनों की राजनीति करने की कोशिश की क्योंकि उसके नीतिकारों को भरोसा था कि आंदोलन से पैदा उन्माद ही उन्हें सत्ता में ला सकता है। दो आंदोलनों के बीच उसकी मुख्य धारा को पोषित करने वाले सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों से न तो कभी उसका कोई सरोकार रहा और न ही उन्हें चलाने की इच्छा शक्ति।

यही कारण है कि चुनाव परिणाम आने के ठीक एक महीने बाद भी भाजपा नेता हार के असली कारणों की मीमांसा करने के बजाए सरफुटौव्वल में लगे हैं। हिंदुत्व को गालियां दी जा रही हैं और हार का ठीकरा उसी के सिर फोड़ा जा रहा है। इन्हें कौन समझाए कि आंदोलनों के बल पर मिली सत्ता की नींव बहुत कमजोर होती है। उसे मजबूत बनाने के लिए सालों की मेहनत और योजनाबद्ध कार्यक्रम की जरूरत होती है। आडवाणी की एक रथ यात्रा ने 6 साल की सत्ता तो दे दी, लेकिन वह ज़मीनी मेहनत और योजनाबद्ध कार्यक्रम कहां है, जिनसे इस सत्ता की नींव मजबूत होनी थी।

बुधवार, 17 जून 2009

भाजपाई हार के चीथड़े बीनने की एक और कोशिश - 1

15वीं लोकसभा चुनाव के परिणामों आए ठीक एक महीना बीत गया है। नतीजों का विश्लेषण अब भी जारी है। कुछ विश्लेषक राहुल गांधी के युवा नेतृत्व की जीत करार दे रहे हैं और कुछ आडवाणी के थके-बूढ़े नेतृत्व की हार। कुछ ने इसे विकासपरक राजनीति के एक नए दौर का आग़ाज़ क़रार दिया है, तो कुछ ने हिंदुत्ववादी राजनीति का अंत।

कुछ विद्वान इसे क्षेत्रीय राजनीति के अंत की शुरुआत बता रहे हैं, कुछ ने दो दलीय राजनीति के युग का प्रारंभ घोषित कर दिया है और कुछ आत्ममोहित अति उत्साही बंधुओं ने इसे भारतीय जनता पार्टी के ताबूत में आखिरी कील साबित कर दिया है। देश के एक जागरूक नागरिक और सक्रिय पत्रकार होने के नाते मैं भी पिछले 1 महीने से इन तमाम विश्लेषणों और मतों को पढ़ता रहा हूं, सोचता रहा हूं।

अगर यह केवल राहुल गांधी के युवा नेतृत्व की जीत है, तो उड़ीसा में युवा नवीन पटनायक की ऐतिहासिक जीत का क्या राज है? यदि यह केवल बूढ़े और थके आडवाणी का हार है, तो बूढ़े येदियुरप्पा के कर्नाटक में मिली भाजपा की जीत को क्या कहा जाएगा? अगर यह विकासपरक राजनीति की जीत है, तो फिर अपने आप में यह साफ है कि यह कोई राष्ट्रीय जनादेश नहीं है, बल्कि राज्यों के जनादेशों का जोड़ है।

अगर यह हिंदुत्ववादी राजनीति के अंत की शुरुआत है, तो पिछले साल भर में हुए नौ विधानसभा चुनावों में से छह में भाजपा को मिली जीत की व्याख्या कैसे होगी? अगर यह क्षेत्रीय राजनीति का अंत है, तो चुनाव की पूर्व संध्या पर श्रीलंका में अलग तमिल देश के समर्थन की होड़ और एक परिवार में सिमटे द्रमुक को मिली भारी जीत को कैसे समझा जाए?

इसलिए मुझे लगता है कि यह जनादेश, ये चुनाव परिणाम इनमें से कुछ भी नहीं हैं, जो हमें अब तक बताया जा रहा है। मेरा साफ मत है कि यह परिणाम देश में एक सक्षम, समर्थ विपक्षी दल के अभाव का नतीजा है। क्यों? क्योंकि आप खुद याद कर देखिए। चुनाव परिणाम आने और उसके पहले के लगभग 4-5 महीने में कौन से मुद्दों ने आपके विचार को मथा है। किन मुद्दों ने एक मतदाता के तौर पर आपको झकझोरा है? आप जब मतदान केंद्र पर गए, उस समय आपके दिमाग में क्या मुद्दे थे? मैं जब आज इन्हीं सवालों पर विचार करता हूं, तो मन वितृष्णा से भर जाता है।

वितृष्णा इस देश की उस विपक्षी पार्टी के लिए, जिसे एक मजबूत प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने का जनादेश मिला था। पिछले पांच साल में यूपीए की सरकार आतंकवादी घटनाओं को रोक पाने में पूरी तरह विफल रही, लेकिन चुनाव की पूर्व संध्या पर यह तर्क दिया गया कि आडवाणी के गृहमंत्री रहते एक आतंकवादी को अफगानिस्तार ले जाकर सी ऑफ किया गया था। यानी क्योंकि वाजपेयी की सरकार आतंकवाद के खिलाफ घुटने टेकने में डॉक्टरेट है, इसलिए को भी इसमें पीएचडी करने का पूरा अधिकार है।

पिछले पांच साल में आर्थिक मोर्चे पर सरकार का योगदान शून्य रहा, लेकिन तर्क यह दिया गया कि वाम मोर्चे ने कुछ करने ही नहीं दिया। विपक्ष ने यह सवाल नहीं उठाया कि जिस तरह मनमोहन सिंह ने परमाणु करार के मुद्दे पर जुआ पटक दिया, उसी तरह उन्हें देश हित के लिए जरूरी आर्थिक सुधारों के लिए सत्ता छोड़ने की धमकी देने का साहस क्यों नहीं किया?

नरेगा जैसे सामाजिक कार्यक्रमों से निश्चत तौर पर आम ग्रामीण जनता को अपेक्षाकृत काफी फायदा हुआ, लेकिन उसमें चल रहे भ्रष्टाचार और वादे से काफी कम कामकाजी दिन काम देने जैसी विसंगतियों को देश के सामने लाना क्या एक सशक्त विपक्ष का काम नहीं था? लेकिन महत्वाकांक्षी सत्तालोभियों से भरी भ्रष्ट भाजपा ने लगभग तमाम घेरे जा सकने वाले मुद्दों पर कांग्रेस को वाकओवर दे दिया।

(अगले खंड में हिंदू राष्ट्रवाद के मसले पर भारतीय जनता पार्टी की रणनीतियों का विश्लेषण)

सोमवार, 15 जून 2009

'डायन हिंदुत्व! इसे नंगा कर चौराहे पर घुमाओ'

भारतीय जनता पार्टी चुनाव क्या हारी, बेचारी हिंदुत्व पर तो मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा है। उसे समझ ही नहीं आ रहा है कि उसका दोष क्या है। उसकी हालत उत्तर प्रदेश या बिहार में आए दिन होने वाली उन घटनाओं से समझा जा सकता है, जिनमें किसी एक दबंग जाति के कुछ 'जांबाज़ मर्द' इसलिए किसी दलित अबला को नंगा कर गांव में घुमाते हैं, क्योंकि उनके घर का कोई लड़का ज्यादा दारू पीने से बीमार हो गया। बेचारी वह दलित स्त्री अपनी झोपड़ी में पड़ी होती है या फिर किसी के खेत में मजदूरी कर रही होती है कि तभी उन जांबाज़ मर्दों की टोली आती है, उस पर डायन होने का आरोप लगाती है और इससे पहले कि वह कुछ समझ पाए, उसके कपड़े फाड़ कर उसे गांव भर में घुमाती है। वो तो उसे क़यामत के उन सदियों से लंबे घंटों के बीतने के बाद पता चलता है कि दरअसल उसे इसलिए डायन क़रार दिया गया कि वह बाबू साहब के घर के सामने से निकली थी और उसी के बाद उनके दारूबाज बेटे को खून की उलटियां होने लगीं थीं।

भाजपा की हार के बाद बेचारी हिंदुत्व की हालत भी उसी दलित बेसहारा स्त्री की सी हो रही है। हिंदुत्व बेचारी को तो भाजपा ने बहुत पहले, यानी जब अटल जी की 13 दिन की सरकार बनी थी, उस की पूर्व संध्या पर ही धकिया दिया था। वह तो बस अब अपने उन कुछ शुभचिंतकों की रूखी-सूखी रोटियां खाकर अपनी ज़िंदगी निकाल रही थी, जिनके लिए वह कभी केवल सत्ता चढ़ने की सीढ़ियां नहीं रही। लेकिन अब उसके करीब 12 साल बाद एकाएक उसे अपने नाम का शोर सुनाई दे रहा है। कुछ 'जांबाज़ भाजपाई', जो कल तक सत्ता की कुंजी जानकर उसके दरवाजे पर मत्था टेकते थे, उसकी झोपड़ी के आगे उसे ललकार रहे हैं। उसे पार्टी की हार का दोषी बताया जा रहा है।

लगभग ढाई महीने के चुनाव अभियान में किसी भाजपाई नेता ने उसका नाम तक नहीं लिया। वरुण गांधी के मूर्खतापूर्ण एक बयान ने ज़रूर उसकी जगहंसाई कराई, लेकिन कहीं भी उसके सच्चे स्वरूप यानी हिंदू राष्ट्रवाद का नामलेवा नहीं था। पार्टी के पीएम इन वेटिंग की चुनावी रणनीति तय करने वाले सुधींद्र कुलकर्णी ने कमजोर पीएम के नारे को केन्द्रीय विषय बनाने के बाद बहुत बेशर्मी से हार के बाद यह सलाह दे डाली कि हिंदुत्व ने ही उनकी यह दुर्गति करा दी। पार्टी के अल्पसंख्यक कोटे से तमाम विशेष पद और जिम्मेदारियां हथियाने वाले और अपने संसदीय क्षेत्र में चौथे स्थान पर आने वाले मुख्तार अब्बास नकवी ने तो चुनाव परिणाम आने के अगले दिन ही घोषणा कर दी थी कि अब हिंदुत्व की राजनीति का अंत हो गया है। स्वप्न दास गुप्ता ने अपने एक लेख में हिंदुत्व के सर हार का ठीकरा फोड़ते हुए कहा कि भावनात्मक ज्वार के आधार पर लंबे समय की राजनीति नहीं की जा सकती।

इन सब दिग्गज रणनीतिकारों के बयानों से ऐसा लग रहा है कि भाजपा ने यह चुनाव हिंदुत्व के केन्द्रीय मुद्दे पर ही लड़ा था। वरुण गांधी के जिस बयान पर सबसे ज्यादा वितंडा खड़ा किया गया और किया जा रहा है, हालांकि वह हिंदुत्व की राजनीति का आत्मघाती पक्ष है, लेकिन फिर भी भाजपा ने कौन सा उसका समर्थन कर दिया था और उसे अपना केन्द्रीय विषय बना लिया था। उसमें भी दो कदम आगे, तीन कदम पीछे का रणनीतिक खोखलापन ही दिखा। इसके अलावा हिंदू राष्ट्रवाद की दृष्टि से जो भी महत्वपूर्ण मुद्दे थे, उनमें से एक पर भी पार्टी ने ढाई महीने में एक क्षीण सा स्वर भी नहीं निकाला।

प्रधानमंत्री का देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक बताना, आम शेयरधारकों और जमाकर्ताओं की हिस्सेदारी वाले सरकारी बैंकों पर कर्ज देने के लिए मुसलमानों को आरक्षण देने का दबाव बनाना, सेना में मजहबी आधार पर गिनती कराना, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद बंगलादेशी घुसपैठियों को संरक्षण देने वाले आईएमडीटी एक्ट को बनाए रखना, सुप्रीम कोर्ट के ही आदेश का उल्लंघन कर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा बरक़रार रखना, मदरसे के दकियानुसी और साम्प्रदायिक पाठ्यक्रम को सीबीएसई के समकक्ष मान्यता देना और ऐसे तमाम गंभीर और राष्ट्र विरोधी फैसले कांग्रेसी सरकार के नाम हैं। लेकिन आप सर्वे कर लीजिए, देश की कितनी फीसदी जनता को इन मुद्दों में से आधे की भी जानकारी है। ये हैं हिंदू राष्ट्रवाद के असल मुद्दे। क्या इनमें से कोई भी एक हममें से किसी ने भी चुनाव प्रचार के दौरान सुना। यहां तक कि वरुण गांधी के मूर्खतापूर्ण बयान के तुरंत बाद आंध्र प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष ने लगभग वैसा ही बयान दिया कि मुसलमानों के खिलाफ उठने वाली उंगली के बदले पूरा हाथ काट लिया जाएगा। मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूं कि देश की 90 फीसदी से ज्यादा जनता को इस बयान का पता भी नहीं है, जबकि वरुण गांधी पर हुआ बवाल हम सब जानते हैं। क्या यह भाजपा की जिम्मेदारी नहीं थी कि इन मुद्दों से देश को अवगत कराएं।

'मजबूत नेतृत्व, निर्णायक सरकार' का ढोल पीटने वाली पार्टी अब हिंदुत्व पर लाल-पीला हो रही है। जैसे यह पूरा चुनाव हिंदुत्व के केन्द्रीय विषय पर ही लड़ा गया। ऐसे में हिंदुत्व सबसे निरीह और बेचारा दिख रहा है। देखें इसकी बेचारगी खत्म करने के लिए राष्ट्रवाद के किसी नायक के उभरने का इंतजार और कितना लंबा होगा?