बुधवार, 22 जुलाई 2009

3 रुपए किलो चावल और 'अमेरिकी उपनिवेशवाद' का बौद्धिक जुमला

इन दोनों में किसमें ज्यादा वोट खींचने की ताकत है? इस सवाल का जवाब जितना आसान है, उतना ही आसान कांग्रेस की अगुवाई वाली मौजूदा सरकार की हाल की 'विदेश नीति के मोर्चे पर की गईं भयानक गलतियां' के पीछे के कारणों का जवाब ढूंढना है।

पहले पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए आतंकवाद पर उसका समर्थन बंद होने की शर्त को माचिस दिखाना, 60 साल में पहली बार किसी द्विपक्षीय वार्ता में बलूचिस्तान का जिक्र ले आना, फिर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर दशकों की भारतीय नीति पर मिट्टी डाल कर अमेरिका से गलबहियां करना और अब अमेरिकी प्रशासन को देश के अतिसंवेदनशील रक्षा प्रतिष्ठानों में चहलकदमी करने का लाइसेंस देना- ये सब ऐसे कदम हैं, जिनकी व्याख्या के लिए यही एक पंक्ति कही जा सकती है कि हमने अपनी वैदेशिक सम्प्रभुता अमेरिका के हाथों गिरवी रख दी है। लेकिन जैसे ही मेरे जेहन में भारी-भरकम बौद्धिक जुमलों से भरी यह पंक्ति आती है, मेरा मन डर से भर जाता है। यह अकेली पंक्ति यह साबित करने के लिए काफी है कि भारतीय राष्ट्र की संप्रभुता कितनी वलनरेबल (कमजोर) है।

ऐसा इसलिए कि मैं जब भी सोचता हूं कि क्यों नहीं पूरा देश इस सरकार के इन राष्ट्रविरोधी फैसलों के खिलाफ उठ खड़ा होता है, तो मेरे सामने दिल्ली की झुग्गियों में खुली नालियों के किनारे खेलते बच्चे, विदर्भ के किसानों का जीवन से हारा चेहरा, डिस्कोथेक में शराब के पैग के साथ झूमते अति संपन्न युवाओं का बेतकल्लुफ अंदाज, अपने करियर को बुलंदियों तक पहुंचाने के जुनून में 16-18 घंटे की पढ़ाई करने वाले होनहार छात्र, सुबह 8 बजे से शाम 6 बजे तक अपने बॉस और अपनी नौकरी की दुनिया में गिरे-पड़े रहने वाला मध्य वर्ग और कुछ बोतल देसी शराब तथा मुर्गे की टांग के लिए किसी भी राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं का सर फोड़ देने को हमेशा तैयार गरीब बेरोजगारों का छुट्टा समूह आ खड़ा होता है।

फिर मैं कल्पना करता हूं कि मैं पूरे देश के सामने खड़ा होकर सरकार के ऐसे भयानक फैसले के खिलाफ कोई ओजपूर्ण उद्भोधन दे रहा हूं, और फिर अपनी कल्पनाओं में ही मैं देखता हूं कि धीरे-धीरे भीड़ का चेहरा उदासीनता और उपेक्षा से भरने लगा है। फिर कुछ खुसफुसाहट। तभी भीड़ में से कोई एक आवाज आती है- अरे, ये भाषण क्या दे रहे हो, कौन है ये अमेरिका और ये बलूचिस्तान किस मोहल्ले में है। आतंकवाद! कौन सा उसके बिना इस देश में लोग मरते नहीं है और फिर, कि ये पागल कार्बन उत्सर्जन जैसी अंग्रेजी बोलकर हमें बरगलाने की कोशिश कर रहा है। भीड़ कहती है- अरे ये तो विपक्ष का आदमी है, जो हमारे पेट पर लात मारने की कोशिश कर रहा है। अमेरिका और बलूचिस्तान के चक्कर में पड़े रहेंगे तो हमें 3 रुपए किलो चावल कैसे मिलेगा?

सच भी तो है। भूखे पेट सोने वालों को आप एंड यूजर टेक्नोलॉजी निगरानी के मुद्दे पर आंदोलित कैसे करेंगे? रोज आयरन की अधिकता वाला गंदा पानी पीने वालों को जलवायु परिवर्तन की अंतरराष्ट्रीय राजनीति आप कैसे समझाएंगे? रोज डीटीसी बसों से कुचल कर और लोकल ट्रेनों से गिर कर मरने वालों को आप आतंकवाद की कूटनीति कैसे बताएंगे? तो क्या 3 रुपए किलो चावल के बदले हमें एक बार फिर हमारे राजनीतिक नेतृत्व की रीढ़हीनता का खामियाजा भुगतना पड़ेगा? भारत को 'आध्यात्मिक विश्वगुरू' और 'सामरिक एवं आर्थिक महाशक्ति' बनाने के हमारे सपने की आयु क्या इतनी ही थी?

कोई आशाजनक जवाब तो मुझे मिल नहीं रहा। घोर निराशा के अंधेरे में बस एक मद्धिम चिराग है, जो एक अपरिभाषित उम्मीद के तेल से टिमटिमा रहा है, देखें कब तक?