ये रामनारायण पाकिस्तानी की कहानी है। दो बेटियों का बाप। पत्नी जीवित तो है, लेकिन लापता है। मिलने की उम्मीद भी नहीं, क्योंकि अब उन दोनों के बीच केवल सैकड़ों मीलों की दूरियां ही नहीं, बल्कि हिन्दुस्थान और पाकिस्तान की सर्द, शुष्क सरहद भी है। उम्मीद अगर किसी दिन पैदा हो भी जाए, तो शायद रामनारायण में अपनी जीवनसंगिनी को फिर से पाने की इच्छा ही न हो।
इसलिए नहीं कि उसकी पत्नी का अनगिनत बार बलात्कार किया गया है और इसलिए भी नहीं कि उसे जबरन मुसलमान बनाया जा चुका है, बल्कि इसलिए कि उसके अंदर अपनी पत्नी का नया रूप देख पाने का साहस नहीं है। हर दिन उसे प्यार से भोजन कराने वाली, बीमार होने पर उसकी अनथक सेवा करने वाली और उसके हर दुख में उससे ज्यादा दुखी होने वाली उसकी अर्धांगिनी का नया रूप कैसा होगा, इसकी सोच भी उसे सिहरा देती है। इसलिए अब रामनारायण उसे याद भी नहीं करना चाहता।
अब वह हिन्दुस्थान में है। वह संतुष्ट रहना चाहता है अपनी उन दो बेटियों को देखकर जो तालिबान की दरिंदगी का शिकार बनने से बच गईं। मुसलमान तो अपनी बेटियों के साथ वह खुद भी बन गया था, लेकिन आस्था केवल पूजा पद्धति बदलने का तो नाम नहीं है। कम से कम एक आस्थावान हिन्दू तो यह मानता ही है। इसलिए रामनारायण अपनी बेटियों के किसी तालिबानी नेता का हवस बनने से पहले पाकिस्तान से भागने में कामयाब रहा और अब उसे उम्मीद है तो बस इस बात की कि भारत उसे अपनी गोद में जगह देगा।
वैसे इस देश में एक बड़ी प्रजाति ऐसी है जिनके लिए रामनारायण एक कारतूस है, उन लोगों पर दागने लायक जो बंगलादेशी घुसपैठियों को यहां से निकालने की बात करते हैं। असम की कांग्रेसी सरकारों और पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने इन्हीं प्रजातियों का प्रतिनिधित्व किया है और बंगलादेशी मुसलमानों को इस हद तक भारत में बसाने की साज़िश की है कि पूरे पूर्वोत्तर पर अलगाववाद का खतरा मंडरा रहा है। इस सेकुलर प्रजाति की अंतरात्मा चीख-चीख कर कहती है कि अगर घुसपैठियों को निकालने की शुरुआत करनी ही तो वह रामनारायण से ही करनी चाहिए। लेकिन ख़ैर! यह विषयांतर हो जाएगा। मैं मूल मुद्दे पर लौटता हूं।
ऊपर की कहानी आज टाइम्स ऑफ इंडिया की लीड स्टोरी है। इस कहानी को पढ़ने के बाद से मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है। रामनारायण की जो पत्नी अब मुसलमान बन चुकी है क्योंकि तालिबान ने कई बार बलात्कार कर उसका मतांतरण कर दिया है, तो उसके मन की हालत क्या होगी? उसके मन में इस्लाम के प्रति कितनी श्रद्धा, प्रेम या घृणा होगी। लेकिन लाख आक्रोश के बाद भी वह हर अजान के साथ सजदे में बैठती होगी, वो तमाम प्रक्रिया पूरी करती होगी, जिसके न करने पर उसके साथ फिर जिस्मानी और मानसिक बलात्कार किया जाएगा।
फिर सैकड़ों बलात्कारों के बाद हो सकता है कि उसकी कोई संतति भी पैदा हो। वह बच्चा होश संभालने के साथ ही तालिबान मदरसे में जाएगा। उसे बताया जाएगा कि कश्मीर में हिंदू सैनिक उसके क़ौम की औरतों की इज़्ज़त लूटते हैं। उसे मुंबई और गुजरात के दंगों की तस्वीरें दिखाई जाएंगी कि किस तरह भारत में इस्लाम ख़तरे में है। और फिर रामनारायण की पत्नी के जबरन शोषण से पैदा वही बच्चा हाथ में एके 47 लेकर ज़िहाद का पैगाम फैलाने भारत आएगा। मंदिरों, स्टेशनों और बाजारों में लोगों के परखच्चे उड़ा कर आततायी हिंदुओं को सबक सिखाएगा।
क्या भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश के उन सभी आतंकवादियों की कहानी कुछ ऐसी ही नहीं है, जो ज़िहाद को अपना नया मज़हब मान बैठे हैं। यह एक हक़ीक़त है कि तीनों देशों के करीब 40 करोड़ मुसलमानों (मोटी गणना से) में शायद ही 1 फीसदी भी ख़ालिस पश्चिम एशियाई वंशावली से हों। तो इन 40 करोड़ मुसलमानों में कितने यह दावा कर पाएंगे कि उनके दादे-परदादाओं ने इस्लाम का अध्ययन कर, उसे ईश्वर को पाने का ज्यादा आसान रास्ता मानकर हिंदू मान्यताओं और परंपराओं का त्याग किया था। यानी इन 40 करोड़ में से 39 करोड़ 99 लाख 99 हज़ार मुसलमानों के पूर्वज ऐसे हिंदू थे, जिन्होंने इतिहास के किसी-न-किसी मोड़ पर, किसी-न-किसी मज़बूरी में इस्लाम स्वीकार किया।
इनमें से लाखों ने हिंदू समाज की उपेक्षा और अमानवीय परंपराओं के खिलाफ इस्लाम को अपना तारणहार माना होगा और करोड़ों ने अपनी बहुओं, बेटियों, बहनों और बीवियों के बलात्कार के बाद, अपने पिता, मां, बेटों और पोतों की अपनी आंखों के सामने हत्या के बाद या फिर उनकी जान बचाने के लिए इस्लाम स्वीकार किया होगा। लेकिन जैसा कि एक बार विवेकानंद ने कहा था कि एक हिंदू के मतांतरित होने का मतलब केवल यह नहीं कि हिंदू समाज से एक सदस्य की संख्या घट गई, बल्कि इसका मतलब यह भी है कि हिंदू समाज के एक शत्रु की संख्या बढ़ गई। तो शायद इसीलिए आज भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश के ज्यादातर मुसलमान हिंदुओं को अपने दुश्मन की तरह ही देख पाते हैं।
वे याद नहीं करना चाहते कि उनके अंदर भी एक हिंदू का ही खून दौड़ रहा है और कि हो सकता है कि उनके दादा या परदादा ने इस उम्मीद में इस्लाम ग्रहण किया हो, कि एक दिन उनके बच्चे वापस अपनी मूल परंपरा में लौट आएंगे। लेकिन, आज की तारीख़ में यह एक कपोल कल्पना जैसी ही लगती है। फिर भी, क्या मेरे मुस्लिम मित्र एक बार यह विचार करने का साहस नहीं कर सकते कि उनके अंदर भी गंगा, नर्मदा, कृष्णा, कावेरी का ही पानी खून बन कर दौड़ रहा है। चाहे उनका मज़हब आज इस्लाम हो, लेकिन उनकी राष्ट्रीयता भी हिंदू ही है।
गुरुवार, 10 सितंबर 2009
बुधवार, 9 सितंबर 2009
इशरत और मोदी, दोनों निर्दोष क्यों नहीं हो सकते?
इशरत जहां और उसके तीन अन्य साथियों के मुठभेड़ पर चल रही बहस के दो आयाम हैं, पहला कि मुठभेड़ में मारे गए युवक और मुंबई के खालसा कॉलेज की लड़की आतंकवादी थे और दूसरा, कि नरेंद्र मोदी आदमखोर हैं (कांग्रेसी प्रवक्ता की भाषा में)। अब भारतीय राजनीति को देखने-समझने वाला कोई शायद ही ऐसा व्यक्ति हो, जो मोदी पर उदासीन (न्यूट्रल) राय रखता हो। मोदी की दो तस्वीरें हैं- एक प्रखर हिंदुत्वादी कर्मठ नेता और दूसरा मुसलमानों का हत्यारा हिंदू साम्प्रदायिक नेता। इशरत और उसके साथियों के मुठभेड़ की असली कहानी मोदी की इन्हीं दोनों तस्वीरों के बीच पिस रही है। क्योंकि मोदी के राज्य से आने वाली किसी भी खबर पर राय बनाने में किसी को भी एक पल से ज्यादा तो लगता नहीं है।
मोदी समर्थकों के लिए गुजरात से आने वाली कोई भी नकारात्मक खबर मोदी के खिलाफ हिंदू विरोधियों का षड्यंत्र है और मोदी के निंदकों के लिए उनके क्रूर प्रशासन का एक और सबूत। यही कारण है कि इशरत मोदी समर्थकों के लिए आतंकवादी है और मोदी विरोधियों के लिए एक बेचारी अबला। लेकिन क्या ऐसी कोई सूरत नहीं हो सकती कि मोदी भी निर्दोष हों और इशरत तथा उसके साथी भी।
सारी कहानी में यह अब तक साफ नहीं हो सका है कि अहमदाबाद पुलिस ने मुंबई जाकर इन चारों का ही अपहरण क्यों किया? कहीं यह सवाल नहीं पूछा जा रहा कि आखिर अहमदाबाद पुलिस को क्या इन चारों ने सपने में दर्शन देकर अपने नाम-पते बताए या फिर क्या कहानी हुई? कम से कम मेरे सामने तो अब तक यह जानकारी आई नहीं है, अगर आप में से किसी को पता हो तो जरूर बताइए। लेकिन ख़ैर, कारण कोई भी हो? हम मान लेते हैं कि अहमदाबाद पुलिस ने किसी गफ़लत में इन्हें उठा लिया और अपनी किसी ग़लती को छिपाने के लिए इनका मुठभेड़ कर दिया।
अब निश्चित तौर पर मोदी ने तो इन्हें इन चारों के पते देकर मुठभेड़ करने के निर्देश दिए नहीं होंगे। लेकिन मुठभेड़ हो गया और खबर राष्ट्रीय मीडिया में आ गई, तो गुजरात पुलिस के आला अधिकारियों को मोदी को तो बताना ही था कि क्या हुआ? तो क्या यह संभव नहीं कि आतंकवाद के खिलाफ मोदी के रवैये का फ़ायदा उठाने के लिए इन अफसरों ने एक ऐसी कहानी गढ़ी हो, जिससे मोदी तुरंत इनके साथ खड़े हो जाएं और इनके बचाव को राज्य का दायित्व मान लें?
क्या देश का कोई ऐसा राज्य या केंद्रशासित प्रदेश है, जो यह दावा कर सके कि उसकी पुलिस कभी फर्ज़ी मुठभेड़ नहीं करती है या उसके यहां पुलिस थाने में हत्याएं नहीं होती हैं। अगर बाकी राज्यों में पुलिस की ऐसी कारस्तानियों के लिए संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होती है, तो गुजरात में इसके लिए नरेंद्र मोदी को फांसी पर क्यों लटकाया जाना चाहिए?
ये तो हुई एक बात। दूसरी बात मजिस्ट्रेट जांच की है। जब केन्द्र सरकार भी अपने हलफनामे में मारे गए लोगों को लश्कर-ए-तोएबा के आतंकवादी बता चुकी है, तब यह अपने आप में जांच का विषय बनता है कि मजिस्ट्रेट साहब को पूरा मामला फर्ज़ी क्यों लगा? मैं इस रिपोर्ट और मजिस्ट्रेट साहब की मंशा पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहता, लेकिन मेरा यह कहना है कि इसे अंतिम शब्द कैसे माना जा सकता है। लोअर कोर्ट्स से साबका रखने वाले किसी भी किसान या मज़दूर तक को वहां की हालत का पता है। जब ऊंची अदालतों तक में वित्तीय या राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामले आम हो चुके हैं, तो किसी एक मजिस्ट्रेट की ऐसी रिपोर्ट, जिससे साफ है कि देश के सबसे विवादास्पद मुख्यमंत्री की जिंदगी दुश्वार हो जाएगी, पर आंख बंद कर भरोसा क्यों किया जाना चाहिए?
आखिरी बात। माननीय उच्चतम न्यायालय तक से ग़लतियां हो सकती हैं। अगर नहीं, तो गुजरात सरकार को खलनायक मानते हुए ज़ाहिरा शेख का मामला राज्य से बाहर स्थानांतरित करने के बारे में क्या स्पष्टीकरण दिया जा सकता है? बाद में जब यह साफ हो गया कि भ्रष्ट वामपंथी 'मानवाधिकारवादी' तीस्ता शीतलवाड़ ने रिश्वत देकर मोदी सरकार के खिलाफ उसे अपने औज़ार की तरह इस्तेमाल किया था, तब इस पूरे मामले पर क्या किया गया? कानून की दलाली करने वाले शीतलवाड़ जैसे लोगों को क्या कोई सज़ा नहीं होनी चाहिए थी?
पूरी बात का लब्बोलुआब यह है कि चाहे इशरत जहां का मामला हो या कोई और, मामले को तथ्यों के नज़रिए से देखा जाए। केवल मोदी का समर्थन और विरोध के चश्मे से देखने पर तो हम किसी निष्कर्ष पर कभी पहुंच ही नहीं सकते। हां, यह जरूर है कि अगर इशरत और उसके बाकी साथी एक प्रामाणिक भारतीय नागरिक थे, तो फिर उनकी हत्या में शामिल सभी पुलिस अधिकारियों को जरूर फांसी की सज़ा दी जानी चाहिए क्योंकि उनकी ऐसी ही हरक़तें राष्ट्रवादी मुसलमानों को अपने क़ौम में कमज़ोर करती हैं और आतंकवादी संगठनों को भारतीय मुसलमानों के बीच अपनी पैठ गहरी करने का ईंधन मुहैया कराती हैं।
मोदी समर्थकों के लिए गुजरात से आने वाली कोई भी नकारात्मक खबर मोदी के खिलाफ हिंदू विरोधियों का षड्यंत्र है और मोदी के निंदकों के लिए उनके क्रूर प्रशासन का एक और सबूत। यही कारण है कि इशरत मोदी समर्थकों के लिए आतंकवादी है और मोदी विरोधियों के लिए एक बेचारी अबला। लेकिन क्या ऐसी कोई सूरत नहीं हो सकती कि मोदी भी निर्दोष हों और इशरत तथा उसके साथी भी।
सारी कहानी में यह अब तक साफ नहीं हो सका है कि अहमदाबाद पुलिस ने मुंबई जाकर इन चारों का ही अपहरण क्यों किया? कहीं यह सवाल नहीं पूछा जा रहा कि आखिर अहमदाबाद पुलिस को क्या इन चारों ने सपने में दर्शन देकर अपने नाम-पते बताए या फिर क्या कहानी हुई? कम से कम मेरे सामने तो अब तक यह जानकारी आई नहीं है, अगर आप में से किसी को पता हो तो जरूर बताइए। लेकिन ख़ैर, कारण कोई भी हो? हम मान लेते हैं कि अहमदाबाद पुलिस ने किसी गफ़लत में इन्हें उठा लिया और अपनी किसी ग़लती को छिपाने के लिए इनका मुठभेड़ कर दिया।
अब निश्चित तौर पर मोदी ने तो इन्हें इन चारों के पते देकर मुठभेड़ करने के निर्देश दिए नहीं होंगे। लेकिन मुठभेड़ हो गया और खबर राष्ट्रीय मीडिया में आ गई, तो गुजरात पुलिस के आला अधिकारियों को मोदी को तो बताना ही था कि क्या हुआ? तो क्या यह संभव नहीं कि आतंकवाद के खिलाफ मोदी के रवैये का फ़ायदा उठाने के लिए इन अफसरों ने एक ऐसी कहानी गढ़ी हो, जिससे मोदी तुरंत इनके साथ खड़े हो जाएं और इनके बचाव को राज्य का दायित्व मान लें?
क्या देश का कोई ऐसा राज्य या केंद्रशासित प्रदेश है, जो यह दावा कर सके कि उसकी पुलिस कभी फर्ज़ी मुठभेड़ नहीं करती है या उसके यहां पुलिस थाने में हत्याएं नहीं होती हैं। अगर बाकी राज्यों में पुलिस की ऐसी कारस्तानियों के लिए संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होती है, तो गुजरात में इसके लिए नरेंद्र मोदी को फांसी पर क्यों लटकाया जाना चाहिए?
ये तो हुई एक बात। दूसरी बात मजिस्ट्रेट जांच की है। जब केन्द्र सरकार भी अपने हलफनामे में मारे गए लोगों को लश्कर-ए-तोएबा के आतंकवादी बता चुकी है, तब यह अपने आप में जांच का विषय बनता है कि मजिस्ट्रेट साहब को पूरा मामला फर्ज़ी क्यों लगा? मैं इस रिपोर्ट और मजिस्ट्रेट साहब की मंशा पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहता, लेकिन मेरा यह कहना है कि इसे अंतिम शब्द कैसे माना जा सकता है। लोअर कोर्ट्स से साबका रखने वाले किसी भी किसान या मज़दूर तक को वहां की हालत का पता है। जब ऊंची अदालतों तक में वित्तीय या राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामले आम हो चुके हैं, तो किसी एक मजिस्ट्रेट की ऐसी रिपोर्ट, जिससे साफ है कि देश के सबसे विवादास्पद मुख्यमंत्री की जिंदगी दुश्वार हो जाएगी, पर आंख बंद कर भरोसा क्यों किया जाना चाहिए?
आखिरी बात। माननीय उच्चतम न्यायालय तक से ग़लतियां हो सकती हैं। अगर नहीं, तो गुजरात सरकार को खलनायक मानते हुए ज़ाहिरा शेख का मामला राज्य से बाहर स्थानांतरित करने के बारे में क्या स्पष्टीकरण दिया जा सकता है? बाद में जब यह साफ हो गया कि भ्रष्ट वामपंथी 'मानवाधिकारवादी' तीस्ता शीतलवाड़ ने रिश्वत देकर मोदी सरकार के खिलाफ उसे अपने औज़ार की तरह इस्तेमाल किया था, तब इस पूरे मामले पर क्या किया गया? कानून की दलाली करने वाले शीतलवाड़ जैसे लोगों को क्या कोई सज़ा नहीं होनी चाहिए थी?
पूरी बात का लब्बोलुआब यह है कि चाहे इशरत जहां का मामला हो या कोई और, मामले को तथ्यों के नज़रिए से देखा जाए। केवल मोदी का समर्थन और विरोध के चश्मे से देखने पर तो हम किसी निष्कर्ष पर कभी पहुंच ही नहीं सकते। हां, यह जरूर है कि अगर इशरत और उसके बाकी साथी एक प्रामाणिक भारतीय नागरिक थे, तो फिर उनकी हत्या में शामिल सभी पुलिस अधिकारियों को जरूर फांसी की सज़ा दी जानी चाहिए क्योंकि उनकी ऐसी ही हरक़तें राष्ट्रवादी मुसलमानों को अपने क़ौम में कमज़ोर करती हैं और आतंकवादी संगठनों को भारतीय मुसलमानों के बीच अपनी पैठ गहरी करने का ईंधन मुहैया कराती हैं।
सोमवार, 7 सितंबर 2009
पाकिस्तानी झंडा लगाने वाले कैम्पस पर बुलडोजर चलवाइए
कल और आज में दो घटनाओं का खुलासा हुआ हैं। कल पता चला कि कुछ चीनी सैनिक लेह में भारतीय सीमाक्षेत्र में घुस कर चीनी भाषा में चीन लिख गए और आज पता चला है कि गुजरात के साणंद में हफ्तों से दो पाकिस्तानी झंडे लहरा रहे थे। दोपहर से सोच रहा हूं कुछ लिखूं। लेकिन सोचता हूं कि क्या लिखूं कि मेरी बात एक हिंदू या मुसलमान के तौर पर नहीं, बल्कि एक भारतीय के तौर पर सुनी जाए?
पाकिस्तान का झंडा लगाने वाली दोनों जगहें मुस्लिमों के मजहब से जुड़े स्थल हैं, एक दरगाह और दूसरा कब्रिस्तान। लेकिन मेरे बहुत से मित्र ऐसी किसी भी घटना का जवाब देने के लिए पहले से ही तैयार रहते हैं कि कुछ मुट्ठी भर मुसलमानों के लिए पूरे देश के मुसलमानों को पाकिस्तान परस्त नहीं करार दिया जा सकता। मैं भी सहमत हूं, लेकिन मेरे वे मित्र मुझे समाधान नहीं बताते। खबर यह है कि आसपास के लोगों ने करीब हफ्ते भर पहले से इसकी शिकायत स्थानीय पुलिस थाने में की थी, लेकिन मोदी जी की पुलिस सोई रही। सवाल यह भी है कि उन हफ्तों में उस दरगाह के पीर या पुजारी ने इस बारे में क्या किया? उस कब्रिस्तान के केयरटेकर ने क्या किया? अगर कुछ नहीं किया, तो क्यों नहीं उन्हें इस कृत्य का दोषी माना जाना चाहिए? क्यों नहीं उस दरगाह पर बुलडोजर चलवा देना चाहिए और कब्रिस्तान को नेस्तनाबूद कर देना चाहिए?
इसका जवाब देने की हिम्मत आप तब तक नहीं जुटा सकते, जब तक आप देशद्रोह को एक खालिस देशभक्त के नज़रिए से नहीं देखेंगे। आप दरगाह और कब्रिस्तान को मंदिर और शवदाह गृह से बदल दीजिए। फिर देखिए, आपके लिए जवाब कितना आसान है। यह मसला मजहब का नहीं है, यह मसला है देशनिष्ठा का। कोई नहीं कहता कि सारे मुसलमान पाकिस्तानपरस्त हैं। लेकिन यदि दरगाह पर बुलडोजर चलवाने के बाद अमर सिंह, मुलायम, लालू या सोनिया सरीखा कोई इस पर चूं भी करता है तो ख़ुद मुसलमानों को उनके गाल पर थप्पड़ जड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए।
अगर वे ऐसा नहीं करते और बदले में मेरे सेकुलर और वामपंथी मित्रों के उस कुतर्क के साये में छिपना चाहते हैं कि हमें अपनी देशभक्ति के लिए किसी से प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं, तो फिर जरूर पूरे कौम से पाकिस्तानपरस्ती की बू आएगी। मेरे घर की छत पर अगर महीने भर तक पाकिस्तान का झंडा लहराता रहे और मुझे चैन की नींद आती रहे, तो मेरे घर पर जरूर बुलडोजर चलवा देना चाहिए और मुझे जूतों से पीटना चाहिए।
क्या फ़र्क पड़ता है कि मेरा घर कोई दरगाह है या मंदिर और मेरा नाम भुवन भास्कर है या मोहम्मद अब्दुल्ला। इस पर अगर मेरा कोई पड़ोसी यह तर्क देना चाहे कि मुझे किसी से अपनी देशनिष्ठा का प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है, तब उस पड़ोसी का घर भी सलामत नहीं बचना चाहिए।
रही बात चीन के हमारी सरहद के अंदर पहले हेलीकॉप्टर से घुसकर खाने के पैकेट गिराने और बाद में चीन लिखने की, तो इससे निपटना कोई एक दिन की बात नहीं है। यह हमें याद दिलाता है 1962 के पहले के कुछ महीनों की, जब चीन की ओर से लगातार इस तरह की भड़काउ घटनाएं होती थीं, और रोम के नीरो की तर्ज पर भारत के जवाहरलाल वंशी बजाते रहे। ग्लोबल स्टेट्समैन बनने की महत्वाकांक्षा में भारतीय जनता को धोखा देते रहे कि चीन कभी कोई ऐसी हरकत नहीं करेगा, जो भारत के लिए नुकसानदेह हो। हुआ क्या, यह इतिहास है।
चीन से लगी भारतीय सीमाओं पर घटी पिछले साल भर की घटनाओं पर नजर डालें, तो लगता है जैसे 1962 के पहले के कुछ महीनों का रिप्ले चल रहा है। भारत सरकार अगर इस पर तुरंत सतर्क न हुई और हमने अगर तुरंत रक्षात्मक उपाय नहीं किए, तो 1962 भी दूर नहीं है।
पाकिस्तान का झंडा लगाने वाली दोनों जगहें मुस्लिमों के मजहब से जुड़े स्थल हैं, एक दरगाह और दूसरा कब्रिस्तान। लेकिन मेरे बहुत से मित्र ऐसी किसी भी घटना का जवाब देने के लिए पहले से ही तैयार रहते हैं कि कुछ मुट्ठी भर मुसलमानों के लिए पूरे देश के मुसलमानों को पाकिस्तान परस्त नहीं करार दिया जा सकता। मैं भी सहमत हूं, लेकिन मेरे वे मित्र मुझे समाधान नहीं बताते। खबर यह है कि आसपास के लोगों ने करीब हफ्ते भर पहले से इसकी शिकायत स्थानीय पुलिस थाने में की थी, लेकिन मोदी जी की पुलिस सोई रही। सवाल यह भी है कि उन हफ्तों में उस दरगाह के पीर या पुजारी ने इस बारे में क्या किया? उस कब्रिस्तान के केयरटेकर ने क्या किया? अगर कुछ नहीं किया, तो क्यों नहीं उन्हें इस कृत्य का दोषी माना जाना चाहिए? क्यों नहीं उस दरगाह पर बुलडोजर चलवा देना चाहिए और कब्रिस्तान को नेस्तनाबूद कर देना चाहिए?
इसका जवाब देने की हिम्मत आप तब तक नहीं जुटा सकते, जब तक आप देशद्रोह को एक खालिस देशभक्त के नज़रिए से नहीं देखेंगे। आप दरगाह और कब्रिस्तान को मंदिर और शवदाह गृह से बदल दीजिए। फिर देखिए, आपके लिए जवाब कितना आसान है। यह मसला मजहब का नहीं है, यह मसला है देशनिष्ठा का। कोई नहीं कहता कि सारे मुसलमान पाकिस्तानपरस्त हैं। लेकिन यदि दरगाह पर बुलडोजर चलवाने के बाद अमर सिंह, मुलायम, लालू या सोनिया सरीखा कोई इस पर चूं भी करता है तो ख़ुद मुसलमानों को उनके गाल पर थप्पड़ जड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए।
अगर वे ऐसा नहीं करते और बदले में मेरे सेकुलर और वामपंथी मित्रों के उस कुतर्क के साये में छिपना चाहते हैं कि हमें अपनी देशभक्ति के लिए किसी से प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं, तो फिर जरूर पूरे कौम से पाकिस्तानपरस्ती की बू आएगी। मेरे घर की छत पर अगर महीने भर तक पाकिस्तान का झंडा लहराता रहे और मुझे चैन की नींद आती रहे, तो मेरे घर पर जरूर बुलडोजर चलवा देना चाहिए और मुझे जूतों से पीटना चाहिए।
क्या फ़र्क पड़ता है कि मेरा घर कोई दरगाह है या मंदिर और मेरा नाम भुवन भास्कर है या मोहम्मद अब्दुल्ला। इस पर अगर मेरा कोई पड़ोसी यह तर्क देना चाहे कि मुझे किसी से अपनी देशनिष्ठा का प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है, तब उस पड़ोसी का घर भी सलामत नहीं बचना चाहिए।
रही बात चीन के हमारी सरहद के अंदर पहले हेलीकॉप्टर से घुसकर खाने के पैकेट गिराने और बाद में चीन लिखने की, तो इससे निपटना कोई एक दिन की बात नहीं है। यह हमें याद दिलाता है 1962 के पहले के कुछ महीनों की, जब चीन की ओर से लगातार इस तरह की भड़काउ घटनाएं होती थीं, और रोम के नीरो की तर्ज पर भारत के जवाहरलाल वंशी बजाते रहे। ग्लोबल स्टेट्समैन बनने की महत्वाकांक्षा में भारतीय जनता को धोखा देते रहे कि चीन कभी कोई ऐसी हरकत नहीं करेगा, जो भारत के लिए नुकसानदेह हो। हुआ क्या, यह इतिहास है।
चीन से लगी भारतीय सीमाओं पर घटी पिछले साल भर की घटनाओं पर नजर डालें, तो लगता है जैसे 1962 के पहले के कुछ महीनों का रिप्ले चल रहा है। भारत सरकार अगर इस पर तुरंत सतर्क न हुई और हमने अगर तुरंत रक्षात्मक उपाय नहीं किए, तो 1962 भी दूर नहीं है।
बुधवार, 2 सितंबर 2009
हे ईश्वर, इन गहलोतों को चिदंबरम की सद्बुद्धि दे
दिल्ली और दूसरे संघ शासित राज्यों में अब किसी भी टुच्चे नेता या अपराधी विधायक के लिए एक फोन कॉल पर एसएचओ या इंस्पेक्टर का तबादला करवा देने सरीखी धमकी शायद अब काम न आ सके। चिदंबरम ने पुलिस सुधार की दिशा में पहला कदम बढ़ाते हुए यह व्यवस्था कर दी है कि साधारण परिस्थितियों में इंस्पेक्टर या उससे ऊपर दर्जे के पुलिस अधिकारियों को कम से कम 2 साल से पहले ट्रांसफर नहीं किया जा सकेगा। सभी केन्द्रशासित प्रदेशों में राज्य सुरक्षा आयोग बनेंगे, जो पुलिस महकमे के लिए नीतियां तैयार करने के अलावा पुलिस अधिकारियों के प्रदर्शन का मूल्यांकन भी करेंगे।
इसके अलावा दो और बोर्ड बनेंगे, जो पुलिसकर्मियों के ट्रांसफर, उनकी पोस्टिंग और प्रमोशन के अलावा उनकी नौकरी से जुड़े दूसरे तमाम फैसले करेंगे। एक बोर्ड इंस्पेक्टर और उससे ऊपर रैंक के अधिकारियों के लिए होगा और दूसरा सब इंस्पेक्टर और उससे नीचे रैंक के लिए। सबसे अच्छी बात यह है कि उन बोर्डों में जनता के कथित सेवकों की कोई भूमिका नहीं रहेगी (अगर कोई चोर दरवाजा बचा रखा गया हो, तो कम से कम अब तक तो उसकी जानकारी नहीं है।)
ये फैसले दिल को खुश करने वाले हैं और पुलिसिया अत्याचार एवं पुलिस-राजनीति गठजोड़ से त्रस्त समाज के लिए उम्मीद की किरण जगाते हैं। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह भी है कि देश के 28 राज्यों का इन सुधारों के प्रति क्या नजरिया है। इसकी एक बानगी राजस्थान सरकार ने दी है। गहलोत सरकार ने अपने अधिकारियों के लिए एक निर्देश जारी किया है, जिसमें ताकीद की गई है कि अगर किसी विधायक या सांसद के आने पर अफसर अपनी कुर्सी से उठकर खड़ा नहीं होगा, तो उसका निजी रिकॉर्ड खराब कर दिया जाएगा। कहा गया है कि कोई भी विधायक या सांसद कभी भी किसी भी अधिकारी से अगल मिलना चाहे, तो उसे प्राथमिकता से समय देना होगा। मानो, अधिकारियों का एकमात्र 'सब्जेक्ट' ये माननीय जनप्रतिनिधि ही हैं।
इसके अलावा ज्यादातर राज्यों ने भी इन सुधारों के प्रति अनिच्छा ही जताई है। यह स्वाभाविक ही लगता है क्योंकि किसी भी राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी पुलिस के जरिए ही अपनी राजनीतिक ताकत का सही-ग़लत इस्तेमाल कर पाती है। फर्ज़ कीजिए कि अगर बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार के हाथ में राज्य पुलिस की लगाम न होती, तो क्या वामपंथी गुंडे सिंगूर और नंदीग्राम में पाशविकता का वो नंगा नाच कर पाते, जैसा कि उन्होंने किया। मान लीजिए कि गुजरात के पुलिस प्रमुख को यह डर न होता कि मोदी सरकार उन्हें किसी पुलिस महाविद्यालय का प्रिंसिपल बना देगी, तो क्या गोधरा नरसंहार के बाद हुए दंगों में उसकी भूमिका अधिकतर मामलों में मूकदर्शक की होती।
याद कीजिए जयललिता के शासनकाल में टेलीविजन पर दिखे वे दृश्य, जब कुछ पुलिस अधिकारी आधी रात के अंधेरे में पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि को लगभग घसीटते हुए लेकर गए थे। क्या पुलिस पर नियंत्रण के बिना जयललिता द्वारा प्रशासन का इतना घृणित इस्तेमाल संभव था। जब लालू यादव चारा घोटाले के सिलसिले में पटना हाईकोर्ट की पेशी पर पहुंचते थे, तो पटना की डीएम राजबाला वर्मा वहां उनकी कार का दरवाजा खोलने के लिए पहले से ही मौजूद होती थीं। अगर पुलिस सुधार लागू हो जाएंगे, तमाम राज्यों की गद्दी पर बैठे घोटालाबाज लालुओं का क्या होगा?
ऐसे में चिदंबरम ने 7 केन्द्रशासित प्रदेशों की जनता पर जो उपकार किया है, उसके लिए उन्हें मेरी ओर से बधाई। ईश्वर करे दूसरे गहलोतों, मोदियों, लालुओं और जयललिताओं को भी सद्बुद्धि आए, क्योंकि ये महानुभाव हमेशा सत्ता में नहीं रहने वाले और फिर जब वसुंधराएं, नीतीशों और करुणानिधिओं के हाथ में सत्ता आएगी तो उसका शिकार वे खुद भी होंगे। जनता का क्या है, अगर पुलिस सुधार नहीं हुए तो शासन किसी का भी हो, उसके लिए तो हर हाल में ही खाकी खौफ का प्रतीक है।
इसके अलावा दो और बोर्ड बनेंगे, जो पुलिसकर्मियों के ट्रांसफर, उनकी पोस्टिंग और प्रमोशन के अलावा उनकी नौकरी से जुड़े दूसरे तमाम फैसले करेंगे। एक बोर्ड इंस्पेक्टर और उससे ऊपर रैंक के अधिकारियों के लिए होगा और दूसरा सब इंस्पेक्टर और उससे नीचे रैंक के लिए। सबसे अच्छी बात यह है कि उन बोर्डों में जनता के कथित सेवकों की कोई भूमिका नहीं रहेगी (अगर कोई चोर दरवाजा बचा रखा गया हो, तो कम से कम अब तक तो उसकी जानकारी नहीं है।)
ये फैसले दिल को खुश करने वाले हैं और पुलिसिया अत्याचार एवं पुलिस-राजनीति गठजोड़ से त्रस्त समाज के लिए उम्मीद की किरण जगाते हैं। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह भी है कि देश के 28 राज्यों का इन सुधारों के प्रति क्या नजरिया है। इसकी एक बानगी राजस्थान सरकार ने दी है। गहलोत सरकार ने अपने अधिकारियों के लिए एक निर्देश जारी किया है, जिसमें ताकीद की गई है कि अगर किसी विधायक या सांसद के आने पर अफसर अपनी कुर्सी से उठकर खड़ा नहीं होगा, तो उसका निजी रिकॉर्ड खराब कर दिया जाएगा। कहा गया है कि कोई भी विधायक या सांसद कभी भी किसी भी अधिकारी से अगल मिलना चाहे, तो उसे प्राथमिकता से समय देना होगा। मानो, अधिकारियों का एकमात्र 'सब्जेक्ट' ये माननीय जनप्रतिनिधि ही हैं।
इसके अलावा ज्यादातर राज्यों ने भी इन सुधारों के प्रति अनिच्छा ही जताई है। यह स्वाभाविक ही लगता है क्योंकि किसी भी राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी पुलिस के जरिए ही अपनी राजनीतिक ताकत का सही-ग़लत इस्तेमाल कर पाती है। फर्ज़ कीजिए कि अगर बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार के हाथ में राज्य पुलिस की लगाम न होती, तो क्या वामपंथी गुंडे सिंगूर और नंदीग्राम में पाशविकता का वो नंगा नाच कर पाते, जैसा कि उन्होंने किया। मान लीजिए कि गुजरात के पुलिस प्रमुख को यह डर न होता कि मोदी सरकार उन्हें किसी पुलिस महाविद्यालय का प्रिंसिपल बना देगी, तो क्या गोधरा नरसंहार के बाद हुए दंगों में उसकी भूमिका अधिकतर मामलों में मूकदर्शक की होती।
याद कीजिए जयललिता के शासनकाल में टेलीविजन पर दिखे वे दृश्य, जब कुछ पुलिस अधिकारी आधी रात के अंधेरे में पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि को लगभग घसीटते हुए लेकर गए थे। क्या पुलिस पर नियंत्रण के बिना जयललिता द्वारा प्रशासन का इतना घृणित इस्तेमाल संभव था। जब लालू यादव चारा घोटाले के सिलसिले में पटना हाईकोर्ट की पेशी पर पहुंचते थे, तो पटना की डीएम राजबाला वर्मा वहां उनकी कार का दरवाजा खोलने के लिए पहले से ही मौजूद होती थीं। अगर पुलिस सुधार लागू हो जाएंगे, तमाम राज्यों की गद्दी पर बैठे घोटालाबाज लालुओं का क्या होगा?
ऐसे में चिदंबरम ने 7 केन्द्रशासित प्रदेशों की जनता पर जो उपकार किया है, उसके लिए उन्हें मेरी ओर से बधाई। ईश्वर करे दूसरे गहलोतों, मोदियों, लालुओं और जयललिताओं को भी सद्बुद्धि आए, क्योंकि ये महानुभाव हमेशा सत्ता में नहीं रहने वाले और फिर जब वसुंधराएं, नीतीशों और करुणानिधिओं के हाथ में सत्ता आएगी तो उसका शिकार वे खुद भी होंगे। जनता का क्या है, अगर पुलिस सुधार नहीं हुए तो शासन किसी का भी हो, उसके लिए तो हर हाल में ही खाकी खौफ का प्रतीक है।
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