शुक्रवार, 25 जून 2010

लॉन्ग लिव हेगड़े, येद्दुरप्पा इज डेड

'पार्टी विद ए डिफरेंस' के भारतीय जनता पार्टी के दावे की हवा तो बहुत पहले निकल चुकी थी, अब कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े के इस्तीफे के बाद उसे अगर 'पार्टी विद एग ऑन इट्स फेस' (कालिख पुते चेहरे वाली पार्टी) कहा जाए, तो शायद ही कोई अतिशयोक्ति होगी। पब में लड़कियों को बाल पकड़ कर घसीटते हुए गुंडों का संरक्षण करने वाली कर्नाटक की भाजपा सरकार ने इस बार ईमानदारी को अपना निशाना बनाया है।

पिछले साल जब कच्चे लोहे के तस्कर और राज्य के मंत्री रेड्डी भाइयों की ओर से सरकार गिराने की धमकियों के बाद टेलीविजन चैनलों पर येद्दुरप्पा का आंसू बहाता चेहरा हमने देखा था, तो लगा था कि एक ईमानदार, शरीफ राजनेता रेड्डी भाइयों की राजनीति का शिकार हो रहा है। मुझे उस समय भी आश्चर्य हो रहा था कि क्यों भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्व सरकार में मंत्री बनाए गए तीन तस्करों के आगे घुटने टेक रहा है। हो सकता है कि यही सरकार बचाने की कीमत रही हो, लेकिन अगर किसी भी कीमत पर सरकार बचाना ही राजनीति है, तो इस पार्टी के किसी भी नेता के मुंह से 'नैतिकता' और 'मूल्य' जैसे शब्द निकलते ही चार जूते लगाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश और लोकायुक्त हेगड़े ने इस्तीफा देते हुए जिन बातों का खुलासा किया है उसके बाद मुझे समझ में आ रहा है कि येद्दुरप्पा के आंसू दरअसल उनकी शराफत के नहीं, बल्कि उनकी नपुंसकता के आंसू थे। वे आंसू थे, जिंदगी भर के सपने यानी मुख्यमंत्री का पद छिनने के डर के। हेगड़े देश से विलुप्त होती उस दुर्लभ प्रजाति का हिस्सा हैं, जो ईमानदारी को अपना सर्वोच्च धर्म मानती है। उन्होंने रेड्डी भाइयों की तस्करी पर लगाम कस दिया था। कई भ्रष्ट वरिष्ठ पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने उनके डर से इस्तीफे दे दिए थे। उन्होंने जिन निष्ठावान और ईमानदार अधिकारियों की अपनी टीम बनाई थी, उनका कहना है कि तीन वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने कभी किसी जांच में हस्तक्षेप नहीं किया और कभी अपनी ज़िम्मेदारी को दूषित नहीं होने दिया।

जिस शासन में जनप्रतिनिधि और पुलिस वाले अपना घर भरने में लगे हों, वहां हेगड़े ग़रीब और बेसहारा लोगों के लिए भगवान की तरह थे, जो अस्पताल से खदेड़ दी गई एक ग़रीब औरत के रात दो बजे किए गए फोन पर प्रतिक्रिया देते हुए अस्पताल फोन करते थे और उसके आठ महीने के बच्चे की भरती सुनिश्चत करवाते थे (हेगड़े के बारे में कर्नाटक में प्रचलित कई कहानियों में से एक)। ऐसे हेगड़े जब इस दर्द के साथ इस्तीफा देते हैं कि पूरी भाजपा सरकार भ्रष्टाचार का पोषण कर रही है, तो निर्लज्ज येद्दुरप्पा एक शातिर राजनेता की तरह यह बयान देते हैं कि उन्हें इस घटना से बहुत सदमा लगा है, लेकिन हेगड़े साहब का शर्मिंदा न करने के लिए वह उनसे इस्तीफा वापस लेने को नहीं कहेंगे। ठीक ही है। येद्दुरप्पा, रेड्डी और गडकरी से शर्मिंदा होने की तो उम्मीद की नहीं जा सकती, हेगड़े ही शर्मिंदा होने के लिए रह गए हैं अब।

सिद्धांत गढ़ने और लच्छेदार ज़ुमले उछालने में भाजपा नेताओं का कोई सानी नहीं है। भय, भूख और भ्रष्टाचार मिटाने का दावा करने वाली यह पार्टी है, जिसके शासन वाले राज्यों में गुजरात को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा हो, जिसके मुखिया पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप न हों। ज्यादा भयंकर बात यह है कि इन आरोपों पर पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को कोई शर्म नहीं आती, उसके कानों पर जूं नहीं रेंगती। अगर उसका मुख्यमंत्री शातिर है, राज्य को लूट का अड्डा बना कर भ्रष्ट विधायकों को अपने काबू में रख रहा हो, तो इससे शीर्ष नेतृत्व को कोई परेशानी नहीं है।

यह मरती हुई पार्टी के सांसों से उठती दुर्गंध है। मेरी चिंता यह है कि स्वामी विवेकानंद, शिवाजी महाराज, मदनमोहन मालवीय, डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार, बाल गंगाधर तिलक और ऐसे ही सैकड़ों खालिस चरित्रवान और देशभक्त महापुरुषों के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा देकर चुनाव जीतने वाली भाजपा का यह घिनौना चेहरा देश की जनता का भरोसा पूरे सिद्धांत से कमजोर कर देगा क्योंकि आखिरकार किसी भी राष्ट्र का चरित्र उसके नेता के भाषण से नहीं, बल्कि उसके कृत्य से बनता है।

गुरुवार, 24 जून 2010

जसवंत की बाइज़्ज़त वापसी के साथ ही बेआबरू हुई भाजपा

भारतीय जनता पार्टी में जसवंत सिंह की वापसी हो गई है। जसवंत का पार्टी से निकाला जाना और उनकी पार्टी में वापसी, दोनों का भाजपा के इतिहास में खास महत्व रहेगा। मज़ेदार बात यह है कि भले ही ये दोनों घटनाएं आपस में एक दूसरे की पूरक दिख रही हों, मुझे लगता है कि ये दोनों ही पार्टी में आ रही ज़बर्दस्त गिरावट और उसके पतन की राह में दो महत्वपूर्ण मील के पत्थर है। जसवंत सिंह को निकालने के पीछे वजह बहुत ही साफ और तार्किक थी, लेकिन तरीक़ा बिलकुल अलोकतांत्रिक और ग़ैर-राजनीतिक था। खबरें ऐसी भी आई थीं कि तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और राजस्थान की भाजपा नेता वसुंधरा राजे की व्यक्तिगत राजनीति के कारण जसवंत की बलि ली गई। एक एंगल संघ का भी था।

कारण जो भी रहा हो, जिस तरीके से यह पूरी कार्रवाई की गई, उससे साफ था कि यह पार्टी की अंदरूनी राजनीति का हिस्सा था। लेकिन इसके पीछे की वजह बिलकुल उचित थी। पार्टी के शीर्ष पर बैठा नेता अगर पार्टी के बुनियादी सिद्धांतों में ही यक़ीन नहीं रखता, तो उसके पार्टी में रहने का कोई कारण नहीं है। हालांकि जिस तरह शिमला की बैठक के लिए पहुंचने के बाद बिना स्पष्टीकरण मांगे राजनाथ ने उन्हें होटल में ही फोन कर के हटाए जाने की सूचना दी, वह पार्टी के व्यक्तिवादी और पतनशील होते जाने का एक लाजवाब उदाहरण था। मेरा स्पष्ट मत है कि यह विकल्प जसवंत को देना चाहिए था कि या तो वह अपनी लिखी क़िताब के उस हिस्से को एक्सपंज करें यानी वापस लें, जिसमें उन्होंने लिखा है कि जिन्ना विभाजन के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं या फिर स्वयं पार्टी छोड़ दें। लेकिन ऐसा नहीं किया गया और उन्हें आनन-फानन में पार्टी से निकाल दिया गया।

अब उस घटना के क़रीब 10 महीने बाद पार्टी को यह लग रहा है कि बीती बातों को भुला देना चाहिए। 'बीती बातें' !!! राष्ट्रीय जीवन के सार्वभौम सिद्धांत क्या कभी पुराने पड़ सकते हैं? ख़ास बात यह है कि जसवंत ने इस दौरान एक बार भी जिन्ना या सरदार पटेल पर अपने विचारों में बदलाव का संकेत तक देना ज़रूरी नहीं समझा। यानी जसवंत ने अपनी निजी साख पर तो धूल का एक कण तक नहीं लगने दिया, लेकिन पार्टी के कर्णधारों ने पार्टी की साख को पूरे कालिख में ही रंग दिया। वाह री कैडर आधारित पार्टी की सैद्धांतिक निष्ठा।

अब मामला बातों और मुद्दों का तो है ही नहीं, अब मामला ताकतवर शख़्सियतों की व्यक्तिगत इच्छाओं का है। आपकी शक़्ल मुझे अच्छी लगती है, आप रोज़ सुबह-शाम मेरे को हाज़िरी देते हैं, आप मेरी हर हां में हां मिलाते हैं, पार्टी में आपका रहना मेरी व्यक्तिगत ताक़त को बढ़ाता है, तो आप पार्टी के लिए अपरिहार्य हैं। और फिर जिन्ना तो आडवाणी की भी कमज़ोर नस हैं। जसवंत की वापसी एक तरह से आडवाणी के पाकिस्तान में दिए बयान पर पार्टी की मुहर है। साथ ही यह इस बात का भी सबूत है कि भाजपा पर से संघ का नियंत्रण पूरी तरह ख़त्म हो गया है। यह इस बात का भी सबूत है कि भारतीय जनता पार्टी में सामूहिक नेतृत्व अब केवल भाषणबाजी का विषय रह गया है और सिद्धांत की राजनीति केवल अगरबत्ती दिखाने की धार्मिक कवायद रह गई है।

मंगलवार, 22 जून 2010

हर दिन लग रहा है कांग्रेस का आपातकाल

आडवाणी का कहना है कि एंडरसन को भारत से भगाना आपातकाल जैसी घटना थी। उन्होंने इस सूची में एक तीसरी घटना को भी शामिल किया है- इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुआ सिक्खों का सामूहिक नरसंहार। सूची पूरी हो गई। लेकिन क्या सचमुच पूरी हो गई? आपातकाल में बुराई क्या थी? मेरी जैसी जिस पीढ़ी ने उन ढाई सालों को महसूस नहीं किया है, झेला नहीं है, उसके लिए यह समझना बहुत मुश्किल है। इसलिए कि हम कहीं आपातकाल का इतिहास नहीं पढ़ते। आज़ादी के दौरान हुए अत्याचारों को तो हम फिर भी जानते हैं, लेकिन आपातकाल के दौरान क्या हुआ, हमें नहीं पता। अगर ग़ैर कांग्रेसी नेताओं के भाषणों और कुलदीप नैयर जैसे कुछ पत्रकारों को छोड़ दें, तो कभी कोई आपातकाल की विभीषिका के बारे में नहीं बताता। लगता है जैसे, देश को आपातकाल से कोई परेशानी नहीं थी, कोई नुकसान नहीं था। क्या यही सच है? उलटे हमारी पीढ़ी के लोगों को तो बहुत बार यही बताया जाता है कि उस समय ट्रेनें बिलकुल समय पर चलती थीं और भ्रष्टाचार लगभग ख़त्म हो चुका था। तो क्या सचमुच आपातकाल देश का एक ऐसा स्वर्णकाल था, जिसमें नेताओं और पत्रकारों को छोड़ कर किसी को कोई तकलीफ नहीं थी।

मुझे लगता है इसका जवाब 'हां' में होना चाहिए। भारत में आम जनता बिलकुल ही आम है। उसका सिद्धांत वाक्य है- कोउ नृप होए हमें का हानि। डॉक्टर को अपनी क्लिनिक चलने से मतलब है, इंजीनियर को अच्छी सैलेरी वाली नौकरी से मतलब है, दुकानदार को अपनी दुकान चलने से मतलब है और अब तो पत्रकार को भी खूब चमक-दमक वाले और ऊंचे वेतन के करियर से ही मतलब रह गया है। यही कारण है कि समाज का आम इंसान आपातकाल को किसी डरावने सपने की तरह याद नहीं करता। लेकिन मेरी व्यक्तिगत समझदारी यह है कि आपातकाल ने आम लोगों को जितना नुकसान पहुंचाया, उतना किसी को नहीं। आपातकाल ने इस पूरे देश की नसों में एचआईवी के ऐसे कीटाणु छोड़े, जो सालों निष्क्रिय रहने के बाद अपना असर दिखा रहे हैं। आपातकाल भले ही ढाई साल में खत्म हो गया हो, लेकिन आपातकाल के संस्कार देश अब तक झेल रहा है। यह संस्कार दरअसल कांग्रेस के खून में है और क्योंकि कांग्रेस इस देश की सबसे स्वाभाविक शासक है और इसलिए आपातकालीन एचआईवी भी पूरे देश के खून में समा चुका है।

आपातकाल क्यों बुरा था? दरअसल देश में राजनेताओं का अहंकार और उनकी महत्वाकांक्षा आजादी के तुरंत बाद से ही अपना रंग दिखाने लगी थी। इसके बावजूद जवाहरलाल नेहरू का राजनीतिक कद इतना बड़ा था कि तमाम संस्थाएं उनके सामने बौनी नज़र आती थीं। इस कारण सत्ता के कर्णधारों और शासन की संस्थाओं के बीच कभी टकराव नहीं हुआ। नेहरू के बाद शास्त्री जी आए, जो नेता के लिबास में संत के समान थे। और इसलिए उनके छोटे से शासनकाल में भी देश की संस्थाओं की निष्ठा और पवित्रता बहुत हद तक अक्षुण्ण रही। लेकिन इंदिरा गांधी के समय से चीजें बदलने लगीं। इंदिरा गांधी को सिंडिकेट ने गूंगी गुड़िया क़रार दिया था और कोई यह मानने को तैयार नहीं था कि उनकी सत्ता को चुनौती नहीं दी जा सकती। क्योंकि देश की संस्थाएं देश के संविधान के प्रति जवाबदेह होती हैं, इसलिए अगर सत्ता और संस्था में से कोई भी एक भ्रष्ट हो जाए, तो दोनों में टकराव निश्चित है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का निर्वाचन अवैध ठहराया और आपातकाल लागू हो गया। इंदिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस को यह समझ में आ गया देश पर लंबे समय तक निर्बाध शासन करने के लिए यहां की संस्थाओं को भ्रष्ट करना आवश्यक है। आपातकाल से यह काम शुरू हो गया। कांग्रेस ने देश की संवैधानिक जड़ों में मट्ठा डालना शुरू किया। संविधान की शपथ लेने वाले आईएएस और आईपीएस अधिकारियों की सेवानिवृत्ति के बाद राजदूत, राज्यपाल और ऐसे पदों पर नियुक्ति शुरू हो गई ताकि सारे वरिष्ठतम अधिकारी यह समझ लें कि सरकार का साथ देने में क्या फायदे हैं। उच्च और उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को मानवाधिकार आयोग जैसे शक्तिशाली और सुविधायुक्त पदों पर बैठाया जाने लगा, जिससे उनके सामने हमेशा सरकार से पंगा न लेने का लोभ बना रहे। तमाम समितियों, आयोगों और ऐसे दूसरे वैधानिक पदों पर नियुक्तियों के लिए कोई तय मानदंड न बनाकर भ्रष्टाचार के रास्ते साफ रखे गए। इन सारी प्रक्रियाओं का सारांश इंदिरा के समय देश का प्रथम नागरिक, संविधान का केयरटेकर और तीनों सेनाओं का प्रमुख यानी राष्ट्रपति बनने वाले एक व्यक्ति का वह बयान है, जिसमें उसने कहा था कि वह इंदिरा गांधी के घर झाड़ू तक लगाने के लिए तैयार है। इंदिरा जी गईं, आपातकाल गया, लेकिन कांग्रेस ने संस्थाओं को भ्रष्ट करने का संस्कार आत्मसात कर लिया। चुनाव आयोग में नवीन चावल की नियुक्ति और प्रोन्नति इसका सबसे प्रकट उदाहरण है।

और इसी कड़ी में सबसे ताजा उदाहरण है यूलिप पर सेबी और इरडा में हुई लड़ाई पर सरकार का फैसला। सेबी और इरडा के बीच यूलिप (शेयर बाजार में निवेश के साथ बीमा सुविधा देने वाला उत्पाद) पर अधिकार को लेकर झगड़ा चल रहा था। सेबी के प्रमुख सी बी भावे और इरडा के जे हरिनारायण को सरकार की ओर से निर्देश मिले कि वे हाईकोर्ट में एक संयुक्त याचिका दाखिल करें। लेकिन भावे ने अपनी पहल पर मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने का फैसला किया। फिर क्या था, सरकार को गुस्सा आ गया। सरकार की ओर से हरिनारायण को संपर्क किया गया और कहा गया कि एक मसौदा तैयार करें ताकि यूलिप पर इरडा का नियंत्रण हो सके। यानी एक अभिभावक ने दो बच्चों की लड़ाई में फैसला लिखने का अधिकार इसलिए एक के हाथ में दे दिया, क्योंकि दूसरे ने उसकी बात मानने से इंकार कर दिया। क्या सरकारें ऐसे काम करती हैं? यूलिप में आम लोगों के लाखों करोड़ रुपए लगे हैं, इस भरोसे पर कि सरकार उनके हितों की निगहबान है। लेकिन सरकार केवल अपने अहंकार को तुष्ट करने के लिए किसी एक रेगुलेटर को इसकी कमान थमाने का फैसला कर रही है। अब सोचिए प्रणव मुखर्जी के एहसानों से दबे जे हरिनारायण इरडा प्रमुख के हैसियत से निवेशकों के हितों की सुरक्षा करेंगे या सरकार और कांग्रेस पार्टी के हितों की।

यही कांग्रेस की कार्यसंस्कृति है, जो उसे इंदिरा गांधी और आपातकाल से विरासत में मिली है। संस्थाओं को भ्रष्ट करने की कार्यसंस्कृति। संवैधानिक पदों को भ्रष्ट करने की कार्यसंस्कृति। यह केवल एंडरसन को भगाने में नहीं है, बल्कि यह कांग्रेस सरकारों के हर दिन के कामकाज का अभिन्न हिस्सा है।

रविवार, 20 जून 2010

क्या यह सचमुच गुजरात को बिहार का स्वाभिमानी जवाब है?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आखिरकार गुजरात को 5 करोड़ रुपए लौटा ही दिए। बहुत ही अजीब सी घटना है। जैसे, स्कूल के एक बच्चे ने किसी दिन चार दोस्तों के बीच मजाक में इस बात का जिक्र कर दिया हो कि उसने अपने फलां दोस्त को अपनी टिफिन में से एक परांठा खिलाया था और परांठा खाने वाले बच्चे को बात इतनी बुरी लगी हो कि अगले दिन वह मां से जबरन परांठा बनवा कर लाया हो और पूरे स्कूल के सामने अपने दोस्त के सामने परांठा फेंक कर हेठी से कहा हो, 'ले! उस दिन खाई थी, आज वापस कर दी।'

नीतीश कुमार ने कुछ ऐसी ही बचकानी हरकत की है कोसी आपदा फंड से पैसे लौटा कर। मैंने जब से खबर सुनी, सोच ही रहा था कि इसका विश्लेषण कैसे करना चाहिए? पहले मुझे लगा, यह उभरते हुए बिहार का आत्मसम्मान है। कुछ ऐसा ही आत्मसम्मान लाल बहादुर शास्त्री ने भी तो अमेरिका को दिखाया था, जब उन्होंने वहां जानवरों को खिलाए जाने वाले पीएल-80 किस्म की गेहूं का आयात बंद कर हरित क्रांति का नारा दिया था। लेकिन क्या वास्तव में गुजरात सरकार का विज्ञापन बिहार का अपमान करने की मंशा से दिया गया था? नीतीश के पैसा लौटाने की घोषणा के अगले दिन पटना के गांधी मैदान में भाषण देते हुए नरेंद्र मोदी ने जो कहा, कम से कम उससे तो ऐसा लगता नहीं। मोदी ने बिहार को लातूर भूकंप के समय मदद देने के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने यहां तक कहा कि वह गुजरात में रहने वाले लाखों बिहारियों के प्रतिनिधि के तौर पर उनका कुशल क्षेम देने उनके घर आए हैं और उन्होंने गुजरात के विकास में बिहारियों के योगदान के लिए भी बिहार को धन्यवाद दिया। फिर यह मानने का कोई कारण नहीं है कि नीतीश की प्रतिक्रिया उभरते बिहार के आत्मसम्मान पर लगे चोट का जवाब है। तो यह क्या है?

सरकारी विज्ञापन देने की प्रक्रिया हम सब को पता है। वह मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या रेल मंत्री तय नहीं करते। अभी हाल में क्या हमने भारत सरकार के एक विज्ञापन में पाकिस्तानी सेनाधिकारी की तस्वीर नहीं देखी थी? क्या हाल ही में रेल मंत्रालय के एक विज्ञापन में दिल्ली को पाकिस्तान का हिस्सा नहीं दिखाया गया था? मीडिया में कुछ हो-हंगामे के अलावा विपक्ष तक ने उन विज्ञापनों को तूल नहीं देकर समझदारी का ही परिचय दिया। लेकिन नीतीश में यह समझदारी नहीं है। क्या सच में नीतीश में समझदारी नहीं है? पिछले चार साल का जद (यू)- भाजपा गठबंधन का शासनकाल दरअसल नीतीश का वन मैन शो ही है। नतीश की कार्यप्रणाली कुछ-कुछ कांग्रेस के गांधी परिवार सी है। शासन की सारी शक्ति नीतीश से निकलती है और वहीं समाप्त होती है। इन चार सालों ने नीतीश को नेता से प्रशासक बना दिया है। अंग्रेजी में बात ज्यादा साफ होगी- नीतीश अब लीड नहीं करते, एडमिनिस्टर करते हैं। उनका अहंकार संगठन और शासन दोनों से बड़ा हो गया है और इसलिए उन्हें ऐसी कोई बात बर्दाश्त नहीं, जो उनके अहंकार को चुनौती देती हो।

बिहार में पिछले चार साल के शासनकाल में मुस्लिम तुष्टीकरण का जो नंगा खेल खेला जा रहा है, वह अद्भुत है। क्योंकि भाजपा सरकार का हिस्सा है, इसलिए मुस्लिमपरस्ती के ऐसे दसियों मसले हैं, जो न मीडिया में आ रहे हैं और न ही लोगों की जानकारी में। लेकिन नीतीश कुमार का लक्ष्य बहुत साफ है। उन्हें न तो बिहार के आत्मसम्मान की चिंता है, न बिहारियों की अपेक्षाओं की। उन्हें मुसलमानों का वोट चाहिए। किसी भी कीमत पर। क्योंकि तभी वह भाजपा को दुलत्ती मार कर अपने बूते सरकार में आ सकते हैं।

यह स्थिति बहुत करीब भी है। क्योंकि मुसलमान, महादलित (नीतीश की नई परिभाषा में) और कुर्मी एवं कोइरी उनके साथ हैं। यादव, ओबीसी की कई जातियां और मुसलमानों का एक वर्ग लालू के साथ है। अगड़ी जातियां कुछ तो जद (यू) के बागी नेताओं के साथ टूटेंगी और बाकी कांग्रेस के हलका सा भी मजबूत होते ही, उसकी झोली में जा गिरेंगी। भारतीय जनता पार्टी अपनी भ्रमित राजनीति और सुशील मोदी जैसे स्वार्थी तथा पदलोलुप नेताओं के कारण मटियामेट होने ही जा रही है। ऐसे में नीतीश के सामने वह विज्ञापन एक धारदार हथियार के तौर पर हाथ आया, जिसे भुनाने के लिए उन्होंने तुरंत वार कर दिया।

कुल मिलाकर इस घटना से तीन बातें बहुत साफ तौर पर सामने आई हैं। एक, नीतीश की प्रतिक्रिया केवल एक शातिर और अहंकारी राजनेता की राजनीतिक चाल है। दूसरी, नरेंद्र मोदी की प्रतिक्रिया ने एक बार फिर उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व का मजबूत उम्मीदवार बना कर पेश किया है। और तीसरी बात यह, कि भारतीय राजनीति में मुसलमानों को खुश करने के लिए कोई दल या नेता किसी भी स्तर तक जा सकता है।

शुक्रवार, 18 जून 2010

अभी और होंगे बहुत से भोपाल

मैक्सिको की खाड़ी में ब्रिटिश पेट्रोलियम की तरफ से हुई तबाही और उस पर सख़्त अमेरिकी रुख़ के बाद कंपनी द्वारा चुस्ती से कार्रवाई करते हुए 20 अरब डॉलर का मुआवज़ा दिए जाने की घटना से भारतीयों के मन में क्षोभ है, गुस्सा है। अमेरिकी भेदभाव का गुस्सा। यूनियन कार्बाइड और डाओ केमिकल की उदासीनता का गुस्सा। यह गुस्सा इस बात का प्रमाण है कि अभी और भी बहुत से यूनियन कार्बाइड होने बाकी हैं। यह गुस्सा इस बात का प्रमाण है कि भारत अब भी ग़ुलाम मानसिकता के साथ जी रहा है। आंखों में महाशक्ति बनने के सपने के बावजूद हृदय की गहराइयों में हम ग़ुलाम हैं।

कोई हमारे देश में आकर हमारी ही धरती पर क़त्ल-ए-आम करके चला जाता है और उसे न केवल क़त्ल करने के बाद निकलने में, बल्कि क़त्ल करने में भी वे लोग सहयोग देते हैं, जिनके लिए हम जय-जयकार के नारे लगाते हैं। फिर भी, हमारा गुस्सा ओबामा और बीपी पर निकलता है। चुरहट लॉटरी में करोड़ों की रकम डकारने वाले (जिसमें यूनियन कार्बाइड ने भी कुछ करोड़ रुपए का 'अनुदान' दिया था) अर्जुन सिंह तिल-तिल मरने वाले उस समाज में आज भी सुरक्षित घूम रहे हैं। उनके घर में अब भी आग नहीं लगाई गई है।

एंडरसन को देश से निकालने में सूत्रधार की भूमिका निभाने वाले राजीव गांधी की बेवा आज भी चुपचाप मूर्ख, जाहिल और तलवे चाटने वाले कांग्रेसियों की भगवान बनी हुई है, 6 साल के अपने केंद्रीय शासनकाल और 10 वर्षों से ज्यादा से अपने राज्य शासन के दौरान चुपचाप भोपाल को मरते देखने वाली और वोट मांग कर सत्ता का जश्न मनाने वाली भारतीय जनता पार्टी के निर्लज्ज नेता अब भी अपने एयरकंडीशन मीडिया रूम में बैठकर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं। उनके घर और कार्यालय अब भी मटियामेट नहीं हुए। तो ओबामा और बीपी की न्यायप्रियता पर सवाल उठाना क्या केवल हमारी नपुंसक ग़ुलाम मानसिकता का परिचायक नहीं है।

तुलसीदास 500 साल पहले ही कह गए थे- समरथ को नहीं दोष गोसाईं। जनसंहार के हथियारों की काल्पनिक कहानी बनाकर इराक को नेस्तोनाबूद कर देने की कहानी दरअसल अमेरिका के सामर्थ्य की ही कहानी है। दूसरी तरफ महाशक्ति बनने की गाल बजाने वाला भारतीय नेतृत्व है, जो पाकिस्तान की ज़मीन में तमाम आतंकवादियों की जड़े होने के पुख्ता प्रमाण के बावजूद वर्षों से अमेरिका से अनुरोध ही करता जा रहा है कि वह पाकिस्तान को रोके। भीख में केवल रोटी के टुकड़े मिलते हैं, आत्मसम्मान और जीने का अधिकार नहीं। यह बात पता नहीं भारत की जनता कब समझेगी। अपनी बहन और बेटी की इज़्जत बचाने के लिए अगर हम गांव के ज़मींदार का दरवाजा खटखटाएंगे, तो बदले में वह उसी बहन और बेटी का एक रात का नजराना तो मांगेगा ही। अपने बुजुर्ग पिता के सम्मान के लिए अगर हम अपने पड़ोसी के आगे गिड़गिड़ाएंगे, तो अपनी महफिल में पानी पिलाने के लिए हमारे पिताजी की सेवाएं तो वह मांगेगा ही।

माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले मेरे एक मित्र हैं, जिन्होंने एक दिन कहा कि भोपाल गैस पीड़ितों ने सैकड़ों की संख्या में वर्षों तक जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन किया और बदले में उन्हें क्या मिला? धोखा, अन्याय और मौत। यही लोग अगर हाथ में हथियार लेकर सड़कों पर उतर जाएंगे, तो उन्हें माओवादी कहकर उनके खिलाफ सेना उतार दी जाएगी। नैतिकता, अध्यात्म और राष्ट्रवाद के तर्क की कसौटी पर इसके खिलाफ बहुत कुछ कहा जा सकता है, लेकिन भावुकता के मोर्चे पर क्या वास्तव में यह लाजवाब नहीं है? जिसके घर दिन-रात मौत का तांडव हो रहा हो, जिसके देखते-देखते जिसकी पीढ़ियां अपंगता और लाचारी के अंधकूप में समा गई हों, वह नैतिकता, अध्यात्म और राष्ट्रवाद के तर्क समझेगा या नक्सलवाद के करारे जवाब का तर्क। यहां मजेदार बात यह है कि अर्जुन सिंह का बचाव करने वाले मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह नक्सवादियों के ज़बर्दस्त पैरोकार भी रहे हैं।

भोपाल पर चल रहे हंगामें में रोज नए खुलासे हो रहे हैं। लेकिन इन खुलासों से जितने जवाब मिल रहे हैं, उनसे कहीं ज्यादा सवाल खड़े हो रहे हैं। इन तमाम सवालों के बीच एक जवाब तो मुझे साफ समझ आ रहा है कि पिछले हजार सालों में हम भारतीयों की ग़ुलाम मानसिकता और परमुखापेक्षी स्वभाव में कुछ भी बदलाव नहीं आया है। जब तक हम अपने घर की सुरक्षा के लिए अमेरिका, चीन और पाकिस्तान से भीख मांगते रहेंगे, तब तक कई यूनियन कार्बाइड कई भोपाल बनाते रहेंगे और हमारी कई पीढ़ियां मानसिक और शारीरिक तौर पर विकलांग पैदा होती रहेंगी।