मंगलवार, 23 अगस्त 2011

यह इंसान महामूर्ख है या मुसलमानों का शातिर दुश्मन !

किसी एक ग्रुप के भीतर अगर आपको किसी एक व्यक्ति की मिट्टी पलीद करनी हो, तो दो तरीक़े होते हैं। पहला, आप उसके ख़िलाफ़ सही या ग़लत, किसी भी तरह के मसले पर दुष्प्रचार करें और उसे सबके लिए घृणा का पात्र बना दें। लेकिन इस रास्ते के अपने जोखिम हैं। क्योंकि जैसे ही आप किसी के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करना शुरू करते हैं, आपके विरोधी उसके स्वाभाविक मित्र बन जाते हैं और फिर जो तटस्थ होते हैं, वह भी आपके चरित्र का विश्लेषण शुरू कर देते हैं।

तो इस काम के लिए दूसरा तरीक़ा ज़्यादा प्रभावी हो सकता है। आप पहले उस व्यक्ति के मित्र बन जाइए। फिर पूरे ग्रुप को यह भरोसा दिला दीजिए कि आपसे बड़ा उसका कोई शुभचिंतक नहीं है। इसके बाद आप ग्रुप को और उसमें सबसे ज़्यादा सम्मानित व्यक्तियों को अपने 'मित्र' की तरफ से ग़ालियां देना शुरू कर दीजिए और ग्रुप के श्रद्धेय प्रतीकों का अपमान करना शुरू कर दीजिए। कुछ ही दिनों में आपका 'मित्र' पूरे ग्रुप में घृणा का पात्र बन जाएगा।

जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी ने भारत के मुसलमानों की मिट्टी पलीद करने के लिए यही दूसरा रास्ता अपनाया है। उन्हें मुसलमानों का कितना समर्थन और भरोसा हासिल है, ये तो पता नहीं, लेकिन देश की सबसे प्राचीन और विख्यात मस्जिदों मे से एक के इमाम होने के कारण मीडिया और राजनेताओं के दरबार में इन्हें बहुत महत्व दिया जाता है। इनके पूज्य पिताजी ने एक बार सुप्रीम कोर्ट के उनके खिलाफ़ समन जारी करने को चुनौती देते हुए देश के सबसे बड़े न्यायालय को पागल क़रार दिया था और कोर्ट उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका था।

ये मुसलमानों की रहनुमाई का दावा करते हैं और इसी बूते उन्होंने अण्णा के आंदोलन को मुस्लिम विरोधी क़रार देते हुए क़ौम को इससे दूर रहने की सलाह दी है। इनका कहना है कि भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे इस्लाम विरोधी हैं। इनसे कोई पूछे कि आज़ादी की लड़ाई में ये दोनों ही नारे केंद्र में रहे थे। तो क्या भारत की स्वतंत्रता का पूरा आंदोलन भी इस्लाम विरोधी था? बुखारी के इस मूर्खतापूर्ण बयान से क्या मुस्लिम इस देश की मुख्यधारा से कटे हुए नहीं प्रतीत होते हैं? वैसे भी यह कोई मज़हबी आंदोलन तो है नहीं कि इसमें किसी व्यक्ति को पूजा पद्धति के आधार पर अपना रुख तय करने की ज़रूरत हो।

यह आंदोलन विशुद्ध तौर पर एक सामाजिक आंदोलन है। इसलिए कोई भी व्यक्ति जो इसे मुसलमानों, पिछड़ों, दलितों या किसी भी दूसरे वर्ग के आधार पर समर्थन या विरोध का आह्वान कर रहा है, वह उस क़ौम का सबसे बड़ा दुश्मन है। रही भारत माता या वंदे मातरम नारे की बात, तो यह तो निजी विश्वास का मसला है। मैं हिंदू हूं और सनातन काल से यह देश मेरी मां है। यह मुझे मेरी पूजा पद्धति ने नहीं, मेरे खून में हज़ारों साल से बहते मेरे संस्कारों ने सिखाया है। यही खून इस देश के 20 करोड़ मुसलमानों की नसों में भी बह रहा है। चाहे लोभ से या भय से या फिर कुछ अन्य सामाजिक कारणों से, जब इन मुसलमानों के पूर्वजों ने इस्लाम अपनाया, तो उन्होंने अपनी पूजा पद्धति बदली, अपने श्रद्धा केंद्र बदले और प्रेरणा पुरुष बदले, लेकिन उनकी नसों में आज भी अपने हिंदू पूर्वजों का ही खून है। इसलिए यह देश उनकी भी मां ही है।

बुखारी सरीखों का मानना है कि इस्लाम में अल्लाह के अलावा किसी की इबादत करना कुफ्र है, इसलिए भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे इस्लाम विरोधी हैं। पहली बात तो यह कि किसी की जय करना उसकी इबादत करना नहीं होता है और संस्कृत की प्राथमिक जानकारी रखने वाला भी यह बता देगा कि वंदना का अर्थ हमेशा पूजा के तौर पर नहीं होता है। इसके बावजूद अगर इन दोनों नारों से बुखारी को परेशानी है, तो ये नारे लगाना अण्णा के आंदोलन की कोई पूर्व शर्त नहीं हैं। इससे ऐसे तमाम वामपंथी जुड़े हैं, जो जन्म से भले हों, मन से कत्तई हिंदू नहीं हैं। तो बुखारी मुसलमानों के लिए कुछ नए नारे दे सकते थे। लेकिन वह ऐसा करेंगे नहीं।

इसके बजाए वह मुसलमानों को पूरे देश के सामने खलनायक और देशविरोधी साबित करना चाहते हैं। क्योंकि तभी समाज उनके खिलाफ़ प्रतिक्रिया देगा और केवल तभी वह मुसलमानों को बता सकेंगे कि 90 करोड़ हिंदू तुम्हें खाना चाहते हैं और तुम केवल तभी सुरक्षित रह सकोगे, जब मेरी छत्रछाया में रहोगे। क्योंकि अगर देश का मुसलमान अण्णा के साथ खड़ा हो गया और उसने अपनी मज़हबी पहचान की ज़िद छोड़ दी, तो बुखारी की नेतागिरी का क्या होगा। तो अब गेंद मुस्लिम समाज के पाले में है। उसे ही यह तय करना है कि वह देश की मुख्यधारा में बहने को तैयार है या अपने क़ौम के इस शातिर दुश्मन की गोद में खेलने को। इस सवाल का जवाब तय करेगा कि भारत के भविष्य का इतिहास भारतीय मुसलमानों को किस पन्ने पर रखता है।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

मुझे भ्रष्टाचार से कोई प्रॉब्लम नहीं, लेकिन मैं अण्णा के साथ हूं

मेरी उम्र 34 साल है। मेरे पिता बिहार सरकार के तहत ग्रेड-ए अधिकारी थे और एक अत्यंत प्रतिष्ठित और वरिष्ठ पद से सेवानिवृत्त हुए। मैंने जीवन में आर्थिक तौर पर कोई अभाव नहीं देखा। भागलपुर के टीएनबी कॉलेज में पढ़ाई के दौरान एक-दो बार बेटिकट यात्रा भी की, लेकिन कारण ग़रीबी नहीं, छात्र जीवन की स्वाभाविक अराजक वृत्ति रही। फिर भी, यह भरोसा हमेशा रहा कि अगर टीटीई ने पकड़ा तो उसे रिश्वत देने लायक पैसे हैं। पढ़ाई-लिखाई के बाद पत्रकार बना। तो पहले और अब, जब भी किसी सरकारी विभाग से साबका पड़ा, तो या तो रिश्वत देकर या अपने दूसरे पत्रकार मित्रों के संबंधों के बलपर कभी कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई। कुल मिलाकर अगर सार-संक्षेप में कहूं तो अपनी अब तक की ज़िंदगी में मुझे भ्रष्टाचार से कभी समस्या नहीं हुई। उल्टे कहूं, तो भ्रष्टाचार ने मुझे थोड़ी-बहुत सहूलियत ही दी है।

यह कहानी केवल मेरी नहीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि किसी भी मध्यवर्गीय व्यक्ति की थोड़ी-बहुत फेरबदल के साथ यही कहानी होती है। यह वर्ग ट्रेन में स्लिपर या एससी थ्री टीयर में चलता है। टिकट न भी हो तो 500 का पत्ता निकाल कर टीटीई साहब को देता है और ऐश से एक बर्थ पर पसर कर चलता है। यह वर्ग लाइसेंस, राशनकार्ड या पासपोर्ट बनवाने जाता है तो एजेंट को एकमुश्त 1000-2000 रुपए थमाता है और उसे सीधे अपने हाथ में पाता है। छोटे-मोटे काम के लिए 100-200 रुपए खर्च करने में उसे कोई परेशानी नहीं होती और यह भ्रष्टाचार कुल मिलाकर उसकी ज़िंदगी थोड़ी आसान कर रहा है।

अब दूसरा वर्ग, जिसे उच्च या इलीट कहा जाता है, उसकी ज़िंदगी पर एक नज़र डालते हैं। इस वर्ग में अमूमन बड़े कारोबारी, सांसद, विधायक और प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारी (आईएएस और आईपीएस) आते हैं। यही वर्ग दरअसल भ्रष्टाचार के बड़े हिस्से का जनक और पोषक होता है। नेताजी को चुनाव लड़ने के लिए करोड़ों रुपए चाहिए होते हैं। बाबू साहब (आईएएस) उन्हें सरकारी तंत्र के छिद्र दिखाते हैं। बाबू साहब और नेताजी मिलकर नीतियों में ऐसी जलेबी छानते हैं जिससे किसी खास कारोबारी घराने या कंपनी के सैकड़ों करोड़ के वारे-न्यारे हो जाते हैं और उसमें से कुछ करोड़ नेताजी और बाबू साहब की झोली में भी आ गिरते हैं। पुलिस का खेल थोड़ा दूसरा है और ये हम सब जानते हैं, इसलिए इसका विस्तार नहीं करूंगा।

अब बचा तीसरा वर्ग, जिसे पिछड़ा, ग़रीब, निम्न मध्य वर्ग आदि-आदि नामों से जाना जाता है। नेताओं के जबानी जमा खर्च में यह वर्ग सबसे प्रीमियम होता है। अपने 15 साल के शासन में सैकड़ों करोड़ के घोटाले करने वाले लालू हों या अपने जन्मदिन पर हीरे के गहनों का भौंडा प्रदर्शन करने वाली बहन जी, इन सबका भाषण ग़रीबों, पिछड़ों और कमज़ोरों से शुरू होकर उन्हीं पर खत्म होता है। यह वर्ग आपको दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अक्सर सैकड़ों की संख्या में जनरल बॉगी के आगे लाइन लगाए दिख जाएगा। कभी इनके साथ यात्रा की है आपने जनरल बॉगी में? आप कर ही नहीं पाएंगे, रहने दीजिए। 16-17 घंटों की यात्रा में कई ऐसे होते हैं, जो 1 मिनट के लिए भी बैठ नहीं पाते।

टॉयलेट तक में लोग और सामान ठूंसे होते हैं, इसलिए लोगों के लिए पूरे रास्ते टॉयलेट तक जाना मुहाल होता है। उस पर जब टीटीई आता है, तो उसका व्यवहार लोगों के साथ ऐसा होता है, जैसे वे इंसान हो ही नहीं। उस टीटीई के साथ 1-2 वर्दीधारी सिपाही भी होते हैं। और आपको शायद विश्वास नहीं होगा, ये दोनों-तीनों मिलकर लोगों के बैग की तलाशी तक लेते हैं और क्योंकि इन्हें पता होता है कि सामने वाला अपनी 6-8 महीने की बचत लेकर घर जा रहा होगा, तो उनसे रुपए तक छीन लेते हैं। यह हक़ीकत है और इसमें एक लाइन भी अतिशयोक्ति नहीं है।

यही वर्ग जब लाइसेंस या राशन कार्ड बनवाने पहुंचता है, तो इसे इस टेबल से उस टेबल तक धक्के खिलाया जाता है, क्योंकि उसके पास रिश्वत देने के पैसे नहीं होते। यही वर्ग पुलिस वालों के डंडे भी खाता है और इलाके में कोई वारदात होने पर थानेदार की गालियां और अपमान भी झेलता है।

लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर मीडिया में एक बहस को परवान चढ़ाया जा रहा है कि भ्रष्टाचार विरोधी अण्णा का आंदोलन दलित और पिछड़ा विरोधी है। साफ तौर पर ऊपर जिन वर्गों की बात है, उनका आधार जाति न होकर, पूरी तरह से आर्थक स्थिति है। लेकिन दलित और पिछड़े हितों के पैरोकार होने वालों का ऐसा दावा है कि यह पूरा आंदोलन केवल मेरे जैसे मध्यवर्गीय लोगों को शोशा है और इसमें पिछड़े और दलितों की कोई रुचि नहीं है। और कयोंकि यही लोग हैं, जो यह मानते हैं कि हर पिछड़ा और दलित ग़रीब और बेचारा है, तो हम भी यह मान लेते हैं कि जो तीसरा वर्ग है उसमें ज्यादातर हिस्सेदारी इन्हीं पिछड़े और दलित वर्गों की है।

तो अगर यह देश भ्रष्टाचार मुक्त हो जाए (हालांकि यह एक यूटोपिया है), तो इसका सबसे बड़ा फायदा क्या इसी तीसरे वर्ग को नहीं होगा? अब यह मेरी समझ से तो पूरी तरह बाहर है कि ऐसी बातें कर और माहौल बनाकर दलितवादी स्वार्थी तत्व क्या हासिल करना चाहते हैं। अलबत्ता इतना ज़रूर है कि इनमें कुछ तो ऐसे हैं जो ख़ुद ही आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हैं और दलितवाद की मलाई चाभ रहे हैं और कुछ दूसरे चंगू या मंगू हैं, जो फेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों का इस्तेमाल कर दलितवादी राजनीति की मलाई में अपने लिए हिस्सेदारी ढूंढ रहे हैं।

अण्णा के आंदोलन में विसंगतियां हो सकती हैं। उनकी कुछ या कई मांगें भी अव्यावहारिक हो सकती हैं। लेकिन उनकी सदिच्छा पर इस देश को भरोसा है और यही इस आंदोलन का सार है। देश अगर भ्रष्टाचार मुक्त हो सके या कम से कम यह बीमारी न्यूनतम स्तर पर आ सके, तो इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा उन्हीं को होगा, जिन्हें सदियों से उनके स्वाभाविक अधिकारों से वंचित रखा गया है। जिनके पास भ्रष्टाचार के राक्षस को भेंट करने के लिए चढ़ावा नहीं है और जो अपने न्यायोचित मांगों के लिए सबसे ज़्यादा अपमानित और प्रताड़ित होते हैं।

मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के लिए तो यह आंदोलन देशभक्ति और समाजनिष्ठा का प्रतीक है, लेकिन ग़रीबों एवं कमज़ोरों के लिए यह उनके स्वाभिमान की लड़ाई है, अधिकारों की लड़ाई है और रोज़गार की लड़ाई है। जो भी लोग इसे पिछड़ो और दलितों का विरोधी बता रहे हैं, उनसे बड़ा उनका कोई दुश्मन नहीं है।

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

गुजराती आईपीएस अधिकारियों की क्रांति का राज़ क्या है?

गुजरात में 2002 के गोधरा बाद के दंगों ने चाहे मानवता को कभी न मिटने वाले घाव दिए हों, लेकिन इन्होंने देश पर एक बड़ा उपकार भी किया है। देश हर्ष मंदर, संजीव भट्ट, राहुल शर्मा, कुलदीप शर्मा, सतीश वर्मा, आर बी श्रीकुमार, रजनीश राय जैसे प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों की एक पूरी फौज से रू-ब-रू हुआ, जो जनहित के लिए पूरी सरकार से टकराने और अपना करियर दांव पर लगाने की हिम्मत रखती है। लेकिन सवाल यह है कि ऐसे अधिकारियों की पीढ़ी केवल गुजरात में ही क्यों पैदा हो रही है?

उत्तर प्रदेश में जीतेंद्र सिंह बबलू, धनंजय सिंह, स्वामी प्रसाद मौर्य, डी पी यादव, कदीर राना और योगेंद्र सागर जैसे जानेमाने जनसेवकों के खिलाफ चल रहे हत्या, बलात्कार जैसे मामलों के सारे मुकदमें पिछले 4 वर्षों में धीरे-धीरे उठा लिए गए हैं (इंडियन एक्सप्रेस पेज 1, 12 अगस्त)। माया सरकार के इन लाडलों के खिलाफ ये केस बनाने के लिए न जाने कितने ईमानदार अधिकारियों और कर्मचारियों ने अपनी ज़िंदगी दांव पर लगाई होगी और न जाने कितनों ने अपनी जानें गंवाई होंगी। लेकिन इन 4 वर्षों में एक भी आईपीएस या आईएएस अधिकारी की अंतरात्मा नहीं जागी।

पुणे में पुलिसिया गुंडई के दृश्य तीन दिनों से लगातार हम अपने टीवी स्क्रीनों पर देख रहे हैं। वहां एक पुलिस अफसर निशाने लगा-लगा कर खरगोशों की तरह किसानों का शिकार कर रहा था। कुछ टुच्चे पुलिसिए कारों और मोटरसाइकिलों पर गली के गुंडों की तरह डंडे और लात बरसा रहे थे। यह सब बिना राजनीतिक प्रश्रय और संकेत के तो हो नहीं रहा होगा? एक किसान को तो बाक़ायदा पुलिस हिरासत में लेकर गोली मार दी गई- यानी फ़र्ज़ी मुठभेड़। लेकिन किसी आईएएस और आईपीएस अधिकारी का ज़मीर नहीं जाग रहा। इसकी तुलना गुजरात से कीजिए। सोहराबुद्दीन, इशरत जहां और तुलसीराम प्रजापति- पुलिस के हाथों मारे गए ये तीन, सुप्रीम कोर्ट से लेकर कई आईपीएस अधिकारियों के लिए फर्ज़ और अन्याय के खिलाफ लड़ाई का प्रतीक बन गए हैं। इनमें सोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति तो घोषित इनामी अपराधी थे। और इशरत जहां के आतंकवादियों से संबंध भी साबित हो चुके हैं।

लेकिन आए दिन इन कथित फर्ज़ी मुठभेड़ों को लेकर सुप्रीम कोर्ट अपनी सक्रियता दिखाता रहता है। कई अति वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जेल में है। अखबारों में सोहराबुद्दीन की एक तस्वीर छपती है, जिसमें वह एक अति पारिवारिक आम शहरी की तरह अपनी पत्नी के साथ ताजमहल के आगे बैठा दिखाया जाता है। दूसरी ओर अपनी पैशाचिक हंसी से न्याय व्यवस्था की हंसी उड़ाने वाला हरियाणा का पूर्व डीजीपी राठौड़ एक किशोरी को आत्महत्या के लिए मज़बूर करने और उसके भाई की ज़िंदगी तबाह करने के बावजूद ज़मानत पाकर मज़े लूट रहा है। किन्हीं माननीय न्यायाधीश की, किसी आईएएस या आईपीएस अफसर की आत्मा नहीं जागती।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 1993 से 2009 के बीच 2,318 लोग पुलिसिया अत्याचार नहीं झेल पाने के कारण हिरासत में मारे गए। हम सब जानते हैं कि पुलिस हिरासत में हुई मौतें कैसे होती हैं। अपनी खाल बचाने के लिए या नियमित सत्कार करते रहने वाले किसी गुंडे या अपने किसी राजनीतिक आका को खुश करने के लिए किसी अपराध के लिए कोई ग़रीब पकड़ लिया जाता है। फिर हवालात में उसे उलटा लटकाया जाता है, उसके हलक में और कभी-कभी तो मलद्वार में भी डंडे डाले जाते हैं, बिजली के झटके लगाए जाते हैं, लातों-जूतों से पिटाई की जाती है और उससे अपराध कबूल करवाया जाता है। इसी पुलिसिया पराक्रम के दौरान कई बार पकड़ा गया आदमी मर जाता है। पूरा पुलिस महकमा, एसपी, एसएसपी, डीजीपी, डीआईजी, आईजी, डीएम और कानून-व्यवस्था से जुड़े सेक्रेटरी (आईएएस) सभी इन घटनाओं से अवगत होते हैं। माननीय न्यायालय को भी सब पता होता है।

लेकिन किसी आईएएस या आईपीएस अफसर की आत्मा नहीं जागती। ख़ास बात यह है कि इन 2,318 लोगों में से 190 मौतें गुजरात में भी हुईं। लेकिन सोहराबुद्दीन, प्रजापति और इशरत की मौतों के लिए रात भर करवटें बदलने वाले गुजरात के कर्तव्यनिष्ठ आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को पुलिस हिरासत में मरते इन ग़रीबों पर कोई दया क्यों नहीं आती?

कारण चाहे जो भी हो, कम से कम दो ऐसे दयावंत, दयालु मानवाधिकारवादियों की कहानी तो हम सब को पता है। एक हैं गुजरात दंगों के समय वहां आईएएस रहे हर्ष मंदर, जो अब देश भर के वामपंथियों और हिंदू विरोधियों के भगवान हो गए हैं। इन्हें नरेंद्र मोदी के खिलाफ अभियान छेड़ने के एवज़ में देश की सबसे ताकतवर गैर सरकारी संस्था राष्ट्रीय सलाहकार परिषद यानी एनएसी में सदस्यता का तोहफा दिया गया है।

दूसरी मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ हैं। यह बात साबित हो चुकी है कि उन्होंने पैसे देकर बेस्ट बेकरी कांड की मुख्य गवाह को मोदी सरकार के खिलाफ किस तरह इस्तेमाल किया। मोदी के खिलाफ अपने इस अभियान में उन्होंने अपने दुष्प्रचार का प्रोपगेंडा कुछ इस तरह चलाया कि सुप्रीम कोर्ट ने बेस्ट बेकरी की सुनवाई गुजरात से बाहर करवाने के निर्देश दिए। लेकिन अब उनकी करतूतों का काला चिट्‌ठा सामने आने के बावजूद वह कानून की गिरफ्त से बाहर हैं। उनके एनजीओ को विदेश से मिलने वाले करोड़ों रुपए से उनकी हिंदू विरोधी कारस्तानियां बदस्तूर जारी हैं।

पुणे के किसानों को मारने वाला पुलिसकर्मी हफ्ते भर बाद मीडिया से गायब हो जाएगा, मऊ के दंगों में खुली जीप पर घूमघूम कर कत्लेआम करवाने वाले मुख्तार अंसारी को हर कोई भूल चुका है, थानों में चीखचिल्ला कर दम तोड़ने वाले ग़रीबों की किसी को हवा भी नहीं लगती। लेकिन मोदी का भूत ज़िंदा रहना चाहिए। योंकि इसके बड़े फायदे हैं। इससे सोनिया का वरदहस्त भी मिल सकता है और करोड़ों रुपए का डोनेशन पाने वाले समाजसेवक होने का तमगा भी। तो क्या इसीलिए सारे क्रांतिकारी पुलिस अफसर गुजरात में ही पैदा हो रहे हैं?

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

भाजपा के लिए कहीं दक्षिण का वाटर लू न बन जाए कर्नाटक?

कर्नाटक दक्षिण भारत में भाजपा का वाटर लू तो साबित नहीं होने जा रहा। अगर हो जाए, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए और अगर न हो तो, यही मानना चाहिए कि भाजपा को सचमुच राम का सहारा है। कर्नाटक को दक्षिण भारत का गेटवे मानकर खुश होने वाले भाजपाइयों के लिए तीन सालों का वहां का शासन किसी दुःस्वप्न से कम नहीं रहा है। एक राष्ट्रीय और कैडर आधारित पार्टी के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है कि भ्रष्टाचार के आरोपों में कंठ तक डूबा उसका एक मुख्यमंत्री पिछले करीब साल भर से उसे ब्लैकमेल कर रहा है और वह बेबस, लाचार नजर आ रही है।

लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? भारतीय दर्शन में लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मार्ग की शुचिता को बहुत महत्व दिया गया है। यह सही है कि आधुनिक भारतीय राजनीति में इस शुचिता की भी अपनी एक सीमा है। लेकिन अगर लक्ष्य केवल सत्ता हासिल करना न हो और आप एक विचारधारा के साथ राजनीति करने का दंभ भरते हों, तो उस सीमा तक की शुचिता तो आपको रखनी ही चाहिए। अगर आप नहीं रखेंगे, तो आपका हश्र वही होगा, जो कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी का हुआ है। साल 2008 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले कर्नाटक में सत्ता के मुहाने पर बैठी भाजपा के धैर्य का बांध टूट गया और उसने घोषित तस्करों, रेड्‌डी बंधुओं को अपनी गोद में बिठा लिया। ये रेड्‌डी बंधु, जिनका किसी राजनीतिक दल या विचारधारा से किसी तरह का कोई सरोकार नहीं था और जो पूर्ववर्ती सरकारों में मंत्री बन कर राज्य में लूट का तंत्र चला रहे थे, एकाएक भाजपा के प्रिय हो गए। बेल्लारी उनका चारागाह था और सुषमा स्वराज ने वहां से सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव भी लड़ा था। अब सुषमा जी को रेड्‌डी बंधुओं की कौन सी सेवाएं मिली थीं, यह तो वही जानें, लेकिन जिन भ्रष्ट स्मगलरों की कारस्तानी कर्नाटक के बच्चे-बच्चे को पता थी, उन्हें सार्वजनिक तौर पर अपना भाई और प्रिय बताकर सुषमा जी ने भाजपा की वैचारिक प्रतिबद्धता की जड़ों में मट्‌ठा डाल दिया।

यह बहुत ही रोचक घटनाक्रञ्म है। करीब साल भर पहले इन्हीं रेड्‌डी बंधुओं ने येद्दयुरप्पा को खून के आंसू रुलाए। येद्दयुरप्पा ने रेड्‌डी बंधुओं की लूट पर अंकुश लगाई और उन तीनों भाइयों ने अकूत संपत्ति के बल पर खरीदे विधायकों के बूते मुख्यमंत्री को इस्तीफे के लिएम जबूर कर दिया। पार्टी हाईकमान आंखों पर पट्‌टी डाल कर सोया रहा। सुषमा जी ने अपने मुख्यमंत्री की जगह स्मगलर भाइयों को गले लगाया। फिर येद्दयुरप्पा भागे-भागे दिल्ली आए। दिल्ली में बैठे भाजपा नेताओं ने साफ कर दिया कि रेड्‌डी बंधु नाम के कैंसर से छुटकारा पाने का उनका कोई इरादा नहीं है। अत्यंत अपमानजनक परिस्थितियों में येद्दयुरप्पा को रेड्‌डी बंधुओं से समझौता करना पड़ा।

उनके लोगों को, जिन्हें मंत्रिमंडल से निकाला गया था, फिर से शामिल करना पड़ा। क्या उसी समय भाजपा को रेड्‌डी बंधुओं को पार्टी से चिपकाने की अपनी गलती का सुधार नहीं करना चाहिए था? सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन लंबी अवधि की राजनीति करने वाली एक राष्ट्रीय पार्टी एक सरकार के लिए अपनी मूलभूत जमीन कमजोर करने का जोखिम कैसे ले सकती है? लेकिन भाजपा ने यह जोखिम लिया। येद्दयुरप्पा को राजनीति का समीकरण समझ में आ गया। उसके बाद साल भर में उन्होंने अपने विधायकों को क्या घुट्‌टी पिलाई, किस तरह के फायदे दिए, किस तरह की छूट दी कि पूरा मामला पलट गया। आज कर्नाटक के 60 विधायक उनके साथ आंसू बहाने को तैयार हैं। यह ठीक है कि ये सभी उनके लिंगायत समुदाय से ही हैं। लेकिन ये लोग साल भर पहले भी तो लिंगायत ही थे।

अब एक नजर येद्दयुरप्पा के इतिहास पर भी डालिए। साल 2004 विधानसभा चुनाव में भाजपा को 79 सीटें मिलीं और वह विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। लेकिन कांग्रेस ने जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बनाया। मुख्यमंत्री बनने के सपने देख रहे येद्दयुरप्पा इतने मायूस और हतोत्साहित हुए कि उन्होंने भाजपा छोड़ने का फैसला कर डाला। जेडीएस के एच डी देवेगौड़ा और उनके बेटे कुमारस्वामी के आगे मत्था टेकने पहुंच गए। हालांकि बाद में भाजपा ने उन्हें रोकने में सफलता पा ली, लेकिन 2008 के चुनावों में ऐसे नेता को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करना क्या वैचारिक दिवालियापन नहीं था। जब येद्दयुरप्पा का असली चरित्र सामने आ चुका था, तो क्यों नहीं पार्टी ने अगले चार साल में एक नया नेता तैयार किया जिसकी अगुवाई में चुनाव लड़ा जा सके?

ये वो सवाल हैं, जिन पर भाजपा को विचार करना होगा और इनके जवाब खोजने होंगे। कर्नाटक की घटनाओं का राज्य और देश में भाजपा की राजनीति पर चाहे जो असर हो, लेकिन देश के लोगों के मन में इन घटनाओं को जो असर हो चुका है, उसे धुलने में वर्षों लग जाएंगे। यह कीमत निश्चित तौर पर पांच साल तक कर्नाटक की सरकार चलाने के फायदों के मुकाबले बहुत ज्यादा है।