शनिवार, 27 सितंबर 2008

मैं आभारी हूं मुशीरुल, अर्जुन, लालू और मुलायम का

फिर दिल्ली में एक बम फटा है। गिनती मायने नहीं रखती। और सच पूछिए तो अब राहत देती है। दो शनिवार पहले जब बम फटे तो राहत हुई कि चलो केवल पांच ही जगह फटे, 20 जगहों की तैयारी थी। यानी 15 जगहों पर तो बचे। आज फटा तो लगा कि एक ही फटा। फॉर ए चेंज। अब तो आदत हो गई है, सीरियल धमाकों की। देश की सरकार के काबिल मंत्री व्यवहारिकता का पाठ पढ़ाते हुए जब कहते हैं कि 100 करोड़ लोगों के पीछे पुलिस की सुरक्षा तो नहीं जा सकती। उसके बाद तो सड़े कुत्ते के चमकते दांत देखने वाले आशावादी लोग भी यह उम्मीद करने की बेवकूफी नहीं कर सकते कि अब और धमाके नहीं होंगे। तो फिर कुल मिलाकर राहत की दो ही बातें बचती हैं। पहला, अपना तो कोई नहीं मरा। दूसरा, अच्छा चलो एक ही जगह फटा, केवल पांच मरे। जब तक हमारा कोई नहीं मरा, तब तक मरने वाले केवल एक संख्या ही तो होते हैं।

खैर, ये हमारी नियति है। हमारी व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक नहीं बल्कि राष्ट्रीय नियति। हमारी नियति हैं सोनिया गांधी और उनके प्रिय पालतू चारण। मान लो सोनिया गांधी नहीं होतीं, तो? मान लो, 2009 में हमारा नेतृत्व बदल जाए, तो? नियति नहीं बदलेगी। नेतृत्व उस पूर्व गृहमंत्री का होगा, जिन्हें यह कहने में शर्म नहीं आती कि तीन आतंकवादियों को छोड़ने के फैसले का उन्हें ज्ञान नहीं था, वह भी तब जब वह उस समय गृहमंत्री, सरकार के दूसरे सबसे बड़े और अपनी पार्टी के सबसे ताकतवर नेता थे। अगर उनमें इतना नैतिक साहस होता कि वह देश के सामने अपनी नपुंसकता स्वीकार कर माफी मांगते, तो फिर कुछ उम्मीद जग सकती थी, लेकिन....।

इसीलिए मैंने कहा कि यही हमारी राष्ट्रीय नियति है। नेतृत्व बदल जाए तो भी नियति नहीं बदलेगी। यह विक्रमादित्य का सिंहासन है। जो बैठेगा, वहीं सत्ता की भाषा बोलेगा। तो फिर क्या सब खत्म हो गया है? क्या एक राष्ट्र के नाते हम आखिरी सांसें गिन रहे हैं? शायद। लेकिन उम्मीद की एक आखिरी किरण बची है। और वह है, जनता, आम लोग। नियति नेतृत्व के बदलने से नहीं, जनता के बदलने से बदलेगी। मैं शुक्रगुजार हूं, मुशीरुल हसन का, अर्जुन सिंह का, लालू प्रसाद का, मुलायम यादव का। यही वो हैं, जो मुझे उम्मीद की किरण दिखा रहे हैं।

सोनिया और आडवाणी के देशभक्ति के नारे मुझे डराते हैं, क्योंकि इनमें भुलावे का खतरा है। लेकिन मुशीरुल, अर्जुन, लालू और मुलायम इस देश की मदहोश, बेहोश जनता की छाती पर चढ़कर उसकी आंखों में उंगली डाल कर दिखा रहे हैं कि देखो, हमने तुम्हारे भारत को तबाह करने की शपथ उठा ली है, अगर तुममें थोड़ी भी गैरत बाकी है, अगर तुममें अपनी मिट्टी, अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों के प्रति थोड़ा भी सम्मान बाकी है, तो जाग जाओ।

मुशीरुल हसन मानते हैं कि जामिया के आरोपी आतंकवादियों के लिए चंदा जुटाना उनका शिक्षक धर्म है। अशोक वाजपेयी को एनडीटीवी पर मैंने उनका समर्थन करते हुए सुना। तर्क है कि जब तक आरोप साबित नहीं हुआ, वे बच्चे निर्दोष हैं। इसलिए यह कुलपति महोदय का पैतृक कर्तव्य है कि उन्हें कानूनी मदद दी जाए। और इसके लिए मुशीरुल साहब ने पूरी जामिया के छात्रों को चंदा इकट्ठा करने को कहा है। इस तर्क से तो किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय के हर उस छात्र को कानूनी मदद देना यूनिवर्सिटी का दायित्व है, जिस पर कोई भी आपराधिक मुकदमा चल रहा हो। जेएनयू के किसी चिनॉय महाशय का कहना था, कि हॉस्टल में रहने वाला हर छात्र कॉलेज प्रशासन का बच्चा है। तो फिर हॉस्टल में होने वाले हर अपराध और मिलने वाले हर हथियार के लिए सीध प्रिंसिपल या कुलपति की हड्डी क्यों नहीं तोड़ देनी चाहिए। मुशीरुल साहब गृह युद्ध की तैयारी करा रहे हैं। आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए लड़कों को उन्होंने पूरे कौम के पीड़ित अबोध बच्चों का तमगा दिया है। अर्जुन सिंह का मुशीरुल को समर्थन करना आश्चर्यजनक नहीं है। जिस तरह मुशीरुल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला कर अपने इरादे की घोषणा की, साफ है कि उन्हें मानव संसाधन मंत्री से हरी झंडी पहले ही मिल चुकी थी। लालू जी और मुलायम जी को सिमी भी ऐसे ही अबोध बच्चों की टीम लगती है, जो क्रिकेट या फुटबॉल खेलने के लिए बनी है।

जिन बातों को समझाने के लिए पहले किताबों से खोज कर उदाहरण लाने पड़ते थे, प्रखर वक्तृत्व क्षमता की जरूरत होती थी, वो अब एक अनपढ़, अनगढ़ भारत वासी को भी अपने-आप समझ में आने लगी है। इसलिए बस यही मेरी उम्मीद हैं। शाबास मुशीरुल, शाबास अर्जुन, शाबास लालू, शाबास मुलायम। शायद भारत मां के सीने में सुराख करने की आपकी कोशिशें ही इस देश की जनशक्ति की कुंभकरनी नींद को तोड़ सकें और शायद इन्हीं के कारण हमारी नियति बदल सके।