गुरुवार, 9 जनवरी 2014

प. बंगाल की राह पर दिल्ली

दिल्ली में कुछ अद्भुत हो रहा है- चुनाव प्रचार के दौरान एफएम पर अरविंद केजरीवाल दिल्ली वालों को बार-बार, कई बार यह समझाते रहे। चुनाव परिणाम आया और सबको पता चला कि वह अद्भुत क्या था, जो हो रहा था। चुनाव खत्म हुए, परिणाम आए, साल भर पहले पैदा हुई आम आदमी पार्टी की सरकार बनी और अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बने। देश की राजधानी में क्रांति के एक नए युग का सूत्रपात हुआ। उसके बाद शुरू हुआ परिवर्तन का दौर। लेकिन इस दौर के साए में दिल्ली में कुछ और भी अद्भुत घटना शुरू हुआ है, जो अब तक लोगों की चेतना में नहीं आ सका है।

दिल्ली और कोलकाता का वैसे भी बहुत पुराना संबंध रहा है। दिल्ली पर कब्ज़े की ईस्ट इंडिया कंपनी की कोशिशों को 1757 में जिस पलासी की लड़ाई से पहली सफलता मिली थी, वह कोलकाता से केवल 150 किलोमीटर पर है। दिल्ली से पहले 1911 तक ब्रिटिश भारत की राजधानी पर कोलकाता ही हुआ करती थी। लेकिन ख़ैर ये घटनाएं तो महज़ इत्तेफाक़ हैं। एक और इत्तेफाक़ यह भी है कि पश्चिम बंगाल से ढाई दशकों के बाद बेदखल हुई सीपीएम के मुखिया प्रकाश करात आम आदमी पार्टी से बहुत खुश हैं। करात साहब ने कहा है कि आप ने वह कर दिखाया है, जो सीपीएम नहीं कर सकी। वह कम्युनिस्ट राजनीति से मध्यम वर्ग को जोड़ने की बात कर रहे हैं।

लेकिन केजरीवाल की अगुवाई में आप ने दिल्ली में कम से कम एक अद्भुत घटना की शुरुआत तो कर ही दी है, जो पूरी दनिया में कम्युनिस्ट पार्टियों के शासन का मुख्य तरीक़ा है। प. बंगाल में सीपीएम ने यही कर के 25 सालों तक सामाजिक आतंकवाद के साए में अपनी सत्ता कायम रखी। और अब दिल्ली उस कम्युनिस्ट वे ऑफ गवर्नेंस का अगला प्रयोगशाला साबित होने जा रही है।
कुछ घटनाओं पर ग़ौर फरमाइए। जब दिल्ली जल बोर्ड के सीईओ मुफ्त पानी योजना की घोषणा कर रहे थे, तब उनके ठीक बगल में आम आदमी पार्टी के बड़बोले नेता कुमार विश्वास बैठे थे। क्यों? वह सरकार की घोषणा थी, या पार्टी का कार्यक्रम था? 

मेरे एक मित्र जो इंडिया टुडे में रिपोर्टर हैं, उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट में लिखा है कि सरकारी विज्ञप्तियां आम आदमी पार्टी के कार्यालय से जारी की जा रही हैं। क्यों? सरकार के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन ने केंद्र सरकार की योजना राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के तहत चल रही अस्पताल प्रबंधन सोसाइटीज, जिन्हें रोगी कल्याण समिति कहा जाता था, उन्हें भंग कर दिया है और अब अस्पतालों की जवाबदेही तय करने की जिम्मेदारी आप के कार्यकर्ताओं को दे दी गई है (इंडियन एक्सप्रेस न्यूजलाइन, 7 जनवरी)।

प्रदेश के कानून मंत्री सोमनाथ भारती सभी ज़िला जजों की बैठक बुलाना चाहते हैं। चलो मान लिया कि नए हैं, उन्हें पता नहीं था कि ये जज, सरकार को नहीं बल्कि दिल्ली हाई कोर्ट को जवाबदेह हैं। लेकिन मुख्य सचिव (कानून) ए एस यादव ने जब यही बात उनको बताई तो उनको गुस्सा आ गया और उन्होंने यादव को पुराने शासन का पैरोकार करार कर उनके खिलाफ मीडिया में बयानबाज़ी शुरू कर दी। शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने 120 आप कार्यकर्ताओं की टीम तैयार की है, जिसने कल सरकारी स्कूलों का निरीक्षण किया (टाइम्स ऑफ इंडिया, 8 जनवरी)।

यह शासन का वही तरीक़ा है, जो हमने प. बंगाल में 25 साल तक देखा है। इस तरह के शासन में डीएम, पार्टी के ज़िला अध्यक्ष; बीडीओ, पार्टी के ब्लॉक अध्यक्ष; कमिश्नर (राज्यों में डीजीपी) पार्टी के राज्य अध्यक्ष इत्यादि के प्रति जवाबदेह होते हैं। लोगों को अपनी दैनिक शासकीय ज़रूरतों के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं के पास जाना होता है। किसी मोहल्ले की पार्टी इकाई तय करती है कि उस मोहल्ले में बनने वाले मकान के लिए ईंट, सीमेंट, बालू और सरिये किस दुकान से खरीदे जाने चाहिए। पार्टी इकाई ही किसी जगह होने वाले स्थानीय निर्माण के ठेके पर फैसला करती है और वही राशन कार्ड से लेकर वोटिंग कार्ड बनवाने के लिए सिंगल विंडो का काम करती है।


पिछले दो हफ्तों में आम आदमी पार्टी का शासन देखने के बाद मुझे अब यह साफ समझ में आने लगा है कि जिन मोहल्ला समितियों को सारे फंड और अधिकार देकर सत्ता के विकेंद्रीकरण का मॉडल अरविंद केजरीवाल साहब ने पेश किया है, उसका स्वरूप दरअसल क्या होने वाला है। भ्रष्टाचार विरोध का मुखौटा लगाकर कम्युनिस्ट शासन ने जिस तरह दिल्ली में अपना झंडा गाड़ा है, वह ख़तरनाक और डराने वाला है। उम्मीद की किरण केवल यह है कि दिल्ली, प. बंगाल नहीं है और इसलिए आप के कम्युनिज्म से समाजवाद का मुखौटा उतरने के लिए शायद ढाई दशकों का इंतज़ार नहीं करना होगा। 

बुधवार, 1 जनवरी 2014

‘आप’ अब आंदोलन नहीं, पार्टी है

ये आम आदमी पार्टी की नहीं, आम आदमी की जीत है... यह राजनीति के संस्कारों की शुद्धि का प्रारंभ है... ये भारत में एक नई क्रांति का सूत्रपात है...
ये जुमले हैं, जो आजकल दिल्ली की राजनीति के जरिए देश पर छाने को बेताब हैं। आम तौर पर ऐसा ही होता है कि जब शोर इतना हो, तो आपके सच का पिटारा नितांत अप्रासंगिक लगने लगता है। लेकिन मुझे इससे क्या कि आप सुनें या न सुनें... दिल का हाल सुने दिलवाला, सीधी सी बात, न मिर्च मसाला। तो हम तो कहेंगे, आप अगर आज नहीं सुनेंगे, तो कल आएंगे, पलट कर सुनने के लिए।

आम आदमी पार्टी की जीत के शोर में सब बौराए हैं। मेरे कई मित्र कह रहे हैं, भाई इनको थोड़ा टाइम तो दो। अभी तो ये आए हैं, अगर कुछ शुरू किया है, तो उसका परिणाम तो दिखे। सही है... लेकिन दोस्तों समय नहीं है। ये मैं नहीं कह रहा... अरविंद केजरीवाल भी कह रहे हैं। समय नहीं है। बस 100 दिन बचे हैं लोकसभा के चुनावों में। अगर उससे पहले हम न समझे, तो फिर समझ कर क्या होगा।

पिछले 7 दिनों में आप और अरविंद केजरीवाल के बारे में बहुत सी बातें साफ हो गई हैं। दिक्कत केवल यह है कि मीडिया के जयकारे में वे साफ बातें भी इतनी धुंधली दिख रही हैं कि दिमाग उनको मानने को तैयार नहीं है। बिजली और पानी पर आम आदमी पार्टी के वादों की बात हो रही है। यह भी कहा जा रहा है कि पार्टी ने 72 घंटे के भीतर दोनों वादे पूरे कर दिए। लेकिन क्या यह पार्टी सत्ता में केवल इन्हीं वादों के कारण आई थी? क्या देश में इसे लेकर जो जिज्ञासा और उत्साह पैदा हो रहा है, वह केवल इन्हीं वादों के कारण है?

दरअसल आप ने अपनी पोजिशनिंग राजनीतिक पार्टी के तौर पर की ही नहीं थी। यह एक आंदोलन था, जिसने तंत्र की शुचिता की बात की। वीआईपी कल्चर खत्म हो, सिस्टम का भ्रष्टाचार खत्म हो, सिस्टम को सिरे से बदला जाए- जैसे नारों ने लोगों को एक ताजी राजनीतिक धारा की उम्मीद बंधाई क्योंकिं लोकलुभावने वादे और सरकारी खजाने को लुटा कर रॉबिन हुड बनने वाले वादे भारतीय राजनीति में नए नहीं हैं।

अब देखिए, 28 दिसंबर को आप सरकार के शपथ लेने के बाद से क्या हो रहा है। थोक में प्रशासनिक अधिकारियों के तबादले किए गए, जैसा कि हर सत्ता परिवर्तन पर होता है। साफ है कि इन तबादलों का भ्रष्टाचार या कार्यकुशलता से कोई लेना-देना नहीं था, बल्कि ये केजरीवाल साहब के एक पसंदीदा अधिकारी (जिन्हें उन्होंने पद संभालते ही अफसरशाही की सबसे ऊंची कुर्सी दी है) की सिफारिशों पर किए गए। लाल बत्तियों पर रोक लग गई... बहुत अच्छा, लेकिन क्या इतने से वीआईपी कल्चर खत्म हो जाएगा। नियम तोड़ने पर अपने बाप, भाई, मामा, ताऊ की धौंस देकर पुलिस पर रोब गांठने वाले क्या लाल बत्ती से चलते हैं? सचिवालय से सुरक्षा हटा ली गई। अगले दिन फिर समझ में आया कि गड़बड़ हो गई, तो ऐसी सुरक्षा हुई कि मीडिया तक को अंदर जाने से रोक दिया गया।

अब देखें, दो सबसे बड़े वादे, जिन्हें 72 घंटों में पूरा कर इतिहास रचा गया है। पहले पानी की बात। दिल्ली में पानी को लेकर समस्या क्या है? पानी का महंगा होना... पानी का नहीं होना? 37 लाख घरों में से करीब 17.5 लाख घरों में पानी नहीं आता। ये घर ग़रीब है, अनधिकृत कॉलोनियों में बने हैं या फिर झुग्गियों में हैं। वहां रोज टैंकरों से पानी आता है, जिससे अपना हिस्सा पाने के लिए वहां के बाशिंदों को गाली-गलौच, झगड़े और संघर्ष से रोज़ जूझना पड़ता है। आप ने मुफ्त पानी का वादा किया था... दे दिया। लेकिन किसे? क्या जीके, फ्रेंड्स कॉलोनी, सीआर पार्क, गुलमोहर पार्क, नीतिबाग जैसे मोहल्लों में रहने वालों को मुफ्त पानी की जरूरत है?

दूसरा, बिजली। बिजली आधी कीमत में ही क्यों, मुफ्त भी दी जा सकती है। सवाल यह है कि इसका मॉडल क्या है। क्या सब्सिडी पर कोई चीज़ फ्री देना समस्या का समाधान है... या वह आज की समस्या को कल पर टालना है। फिर सब्सिडी का राजस्व, जनता के टैक्स से ही वसूला जाता है। तो आखिर उसका बोझ तो जनता पर ही आना है।

अब मेरे कुछ मित्रों का कहना है कि बाकी काम तो धीरे-धीरे ही हो सकते हैं, ये सारी बातें तो बस केवल आलोचना के लिए आलोचना करना है। बिलकुल सही बात है, मैं सहमत हूं। लेकिन सरकार बनने के बाद से आप नेताओं और अरविंद केजरीवाल के बयान सुनिए, प्राथमिकताएं देखिए। मेट्रो से शपथ ग्रहण में जाने का ड्रामा कर पहले केजरीवाल जी ने साबित किया कि वह गांधी या पटेल नहीं, बल्कि लालू या मायावती लीग के नेता ज्यादा हैं, जिसे अपने प्रचार प्रोपैगैडा के आगे राष्ट्रीय संपत्तियों के नुकसान और उसकी सुरक्षा से कोई खास सरोकार नहीं है। फिर लाल बत्ती हटाने के बाद, उन्होंने कोई ऐसे संकेत नहीं दिए कि वह वीआईपी संस्कृति का गला घोंटना चाहते हैं, न ही उन्होंने पुलिस या बाबुओं को ऐसा कोई संदेश दिया।

मुफ्त पानी की घोषणा के साथ या बाद, कहीं पाइपलाइन बिछाने की जल्दबाजी या प्राथमिकता नहीं दिखी... सब्सिडी से बिजली सस्ती करना तो उसी लोकप्रिय राजनीति का हिस्सा है, जो कांग्रेस, बीजेपी, सपा या अन्नाद्रमुक अपने-अपने राज्यों में कर रहे हैं। सब्सिडी किसी नेता के पिताजी के खाते से नहीं आती, जनता से ही वसूली जाती है। हां, कुल मिलाकर एक कदम जो अब तक आप सरकार ने वास्तव में सिस्टम के तौर पर आम आदमी के हित में उठाया है, वह है दिल्ली-यूपी के बीच ऑटो कनेक्टिविटी देना। लेकिन यह भी देखिए, तो प्रशासनिक फैसला ही है।

दिल्ली के करीब 60-70 हजार लोग इस भीषण ठंड में आसमान के नीचे सो रहे हैं। क्या दिल्ली सरकार
को तुरंत कुछ नहीं करना चाहिए। मनीष सिसोदिया ने दौरा किया, आश्वासन दिया कि जल्दी ही कुछ करेंगे। जल्दी... मतलब, कब? कुछ तो कर सकते हैं आप, जैसे, मेरे विचार से रात 10 से सुबह 6 बजे तक दिल्ली के सारे सब-वे उन्हें सोने के लिए दिए जा सकते हैं। कम से कम दो-तीन हफ्ते, जब तक यह जानलेवा सर्दी कम नहीं हो जाती। 200-300 लोग होंगे, तो अपराध की आशंका भी जाती रहेगी, जिसके कारण फिलहाल उन्हें रात में बंद रखा जाता है। कुछ तो करिए। लेकिन क्योंकि आपने इसका चुनावी वादा नहीं किया, तो शायद मीडिया में इसे इतना कवरेज न मिले। इसलिए आप इस पर कुछ नहीं करेंगे।

मेरे कहने का मतलब केवल यह है कि आम आदमी पार्टी ने एक आंदोलन के जरिए सिस्टम को बदलने के नारे के साथ जो शुरुआत की थी, वह अब विशुद्ध वोट खींचू राजनीति में बदल चुकी है। सुराज और स्वराज की जगह चुनावी उन्माद पैदा करने की रणनीति ने ले लिया है। एक आंदोलन के तौर पर आम आदमी पार्टी की मौत हो चुकी है, अब देखना है कि एक राजनीतिक दल के तौर पर इसकी जिंदगी कितनी लंबी चलती है।


केजरीवाल साहब को समर्पित

नेता, बड़ा नेता और महान नेता – इन तीनों में क्या अंतर है? नेता वह है जो एक खास समय में एक खास मुद्दे पर एक निश्चित समाज को नेतृत्व देता है, बड़ा नेता वह है जो एक लंबे समय तक कई छोटे और बड़े मुद्दों पर कई समूहों के समाज को नेतृत्व देता है और महान नेता वह है जो अपने जीवन के बाद भी भौगोलिक सीमाओं के परे जाकर लोगों को विभिन्न समस्याओं से जूझने का समाधान, प्रेरणा देता है।

तो कोई नेता, कैसे बड़ा नेता और फिर महान नेता बन जाता है- कैसे? क्या मैकेनिज्म है इस विस्तार का? कई विचार हो सकते हैं, शोध भी हो सकता है और किताबें भी लिखी जा सकती हैं। लेकिन एकदम संक्षेप में इसका जवाब यह है कि कोई व्यक्ति अपने समाज से जितना ज्यादा जुड़ता चला जाता है, उसकी व्यापकता और प्रभाव उतना ही बढ़ता चला जाता है। लेकिन फिर इसी प्रक्रिया में उस व्यक्ति का सेल्फ डिस्ट्रक्शन मैकेनिज्म (आत्मघाती तंत्र) भी विकसित हो जाता है। व्यक्ति समाज से जुड़ता है, फिर बड़ा बन जाता है और फिर इतना बड़ा बन जाता है कि समाज से कट जाता है। फिर उसे समझ ही नहीं आता कि समाज क्या चाहता है, उससे क्या उम्मीद करता है या समाज में कौन सी धारा बह रही है। ऐसा क्यों होता है?

दरअसल व्यक्ति के समाज से जुड़ने और पहले नेता, फिर बड़ा नेता बनने के साथ ही उसके पास सत्ता और ताकत भी आते हैं। फिर उस सत्ता से लाभ उठाने की इच्छा रखने वाले उससे जुड़ते हैं। ये लोग फिर समाज और नेताजी के बीच एक बफर जोन, फिल्टर जोन बना देते। फिर नेताजी वही सुनते हैं, जो ये लोग सुनाना चाहते हैं और वही देखते हैं, जो ये लोग दिखाना चाहते हैं। नेताजी के इर्द-गिर्द इतना सघन आवरण तैयार हो जाता है कि उनकी ग्रोथ खत्म हो जाती है। फिर नेताजी, बड़े नेता नहीं बन पाते और जो बड़े नेता बन गए वे कभी महान नेता नहीं बन पाते। गांधी, मंडेला, मार्टिन लूथर जैसे महान नेताओं, मोदी, लालू और मायावती जैसे बड़े नेताओं और हजारों छोटे नेताओं की जिंदगियों में यह प्रक्रिया आराम से देखी जा सकती है।

मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

ये भूत तो झाड़ू से ही भागेगा साहब, बंदूक से नहीं

मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का सपना देखने वाले दिल्ली में आप की सरकार बनने के बाद एकदम अधीर हो गए हैं। एकाएक उन्हें लगने लगा है कि मोदी की दाल में केजरीवाल की मक्खी ने सारा खेल खराब कर दिया है। सच भी है, मीडिया का हाल देखिए। पूरा माहौल बदल गया है। लेकिन, राजनीति का हाल  भी क्रिकेट की तरह ही है। अंतिम बॉल तक हार-जीत बाकी रहती है। हां, ये ज़रूर है कि अंतिम बॉल पर हार के जबड़े से जीत खींचने वाली टीमें कम से कम वैसा बदहवास नहीं होतीं, जैसे नितिन गडकरी टाइप के लोग हो रहे हैं।

केजरीवाल के दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही गडकरी ने जिस तरह के बयानों का सिलसिला शुरू किया है, उससे मुझे शक होने लगा है कि उन्होंने मोदी की नैया डुबाने के लिए नई रणनीति तैयार कर ली है। अगर ऐसा नहीं है, तो इसका दूसरा मतलब यह है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी का पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एक राजनीतिक नौसिखुआ है, जो अपने ही गोलपोस्ट में गोल करने पर आमादा है। गडकरी लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि एक उद्योगपति ने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच समझौता करा दिया है। यह आरोप सच है या झूठ, पता नहीं- लेकिन मूर्खतापूर्ण और राजनीतिक आत्मघात का एक नमूना है, इसमें कोई दो मत नहीं। 

केजरीवाल भ्रष्ट हैं – यह उनको वोट देने वाली 25 लाख जनता इसलिए नहीं मान लेगी कि ऐसा नितिन गडकरी कह रहे हैं। और न ही पूरे देश में केजरीवाल को लेकर पैदा हुई जिज्ञासा इससे शांत हो जाएगी। उलटा होगा यह कि आप को वोट देने वाले ऐसे लाखों मतदाता जो अब तक विधानसभा में केजरी, लोकसभा मे मोदी का नारा लगाते रहे हैं, पूरी तरह केजरीवाल के पीछे लामबंद हो जाएंगे। मोदी का विरोध करने वाले, चाहे वे वामपंथी हों या मुसलमान- उन्हें केजरीवाल के रूप में एक सशक्त विकल्प मिला है, जिसके पीछे अपनी पूरी ताकत लगाकर वे मोदी को रोकना चाहेंगे। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को अपनी रणनीति उन मतदाताओं पर केंद्रित करनी चाहिए, जिनके लिए केजरीवाल मोदी के विरोध का जरिया मात्र नहीं, बल्कि एक नई राजनीति की उम्मीद हैं। 

ऐसे मतदाताओं को यह समझाया जा सकता है कि केजरीवाल को लोकसभा में वोट देना परोक्ष रूप से सोनिया गांधी, मुलायम, लालू जैसी ताकतों को मजबूत करने जैसा ही है। देश के युवा मतदाताओं को मोदी के लिए खड़ा करने की रणनीति उस तरह की नकारात्मक प्रोपगैंडिस्ट राजनीति से नहीं तैयार हो सकती, जो गडकरी कर रहे हैं। हो सकता है वह केजरीवाल से अपनी निजी दुश्मनी निकाल रहे हों क्योंकि उनकी कंपनी पूर्ति में घोटाले की खबरें उछाल कर केजरीवाल ने दरअसल दूसरी बार उनके पार्टी अध्यक्ष बनने की संभावनाओं में पलीता लगा दिया था। लेकिन ऐसा कर के दरअसल वह मोदी की संभावनाओं में पलीता लगा रहे हैं और केजरीवाल के पक्ष में उस समूह की लामबंदी का रास्ता भी तैयार कर रहे हैं, जो कम से कम अभी तक मोदी या केजरीवाल की उधेड़बुन में फंसा हुआ है। 

गडकरी हों या मोदी, उन्हें समझना होगा कि केजरीवाल के भंवर जाल से निकलने के लिए सकारात्मक राजनीति की जरूरत है, क्योंकि केजरीवाल की राजनीतिक पैदाइश ही उस नकारात्मक राजनीतिक की देन है, जो अब तक देश में होती रही है। अरविंद केजरीवाल गैर पारंपरिक राजनीति के धुरंधर हैं, उन्हें गैर पारंपरिक राजनीति से ही शिकस्त दी जा सकती है, न कि थके हुए और सड़ांध मारते राजनीतिक हथकंडों से। बाकी काम तो उनके वादे खुद ही कर देंगे। आप का भूत झाड़ने के लिए झाड़ू ही चलाना होगा, बंदूक से काम नहीं चलने वाला।

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

थके-हारे वामपंथ की आखिरी उम्मीद हैं केजरीवाल

आम आदमी पार्टी की दिल्ली में जीत के बाद राजनीति में बदलाव की चर्चा अपने चरम पर पहुंच चुकी है। चर्चा पहले भी हो रही थी, लेकिन उसमें कुतूहल था, उम्मीद की बातें थीं और एक सकारात्मकता (पॉजिटिविटी) थी। मगर अब इस चर्चा ने अपना रूप बदल लिया है। सोशल मीडिया हो या सोशल गॉसिपिंग – अब चर्चा का माहौल गरम है। सकारात्मकतका की जगह नकारात्मकता ने ले ली है। जो समर्थक हैं वे अपने इरादों, नीयत और निष्ठा की बात कम और विरोधियों के इरादों तथा नीयत की बात ज्यादा कर रहे हैं। जो विरोधी हैं, वे तल्ख हो चुके हैं और ईमानदार पार्टी की नैतिकता में किसी भी छेद को नज़रअंदाज करने के मूड में नहीं हैं। आखिर ये बदलाव हुआ क्यों है और इसके राजनीतिक मायने क्या हैं?

दरअसल इसे समझने के लिए आप के राजनीतिक समर्थकों और विरोधियों को समझना होगा। आप ने भ्रष्टाचार उन्मूलन को अपना मुख्य राजनीतिक नारा बनाया और यही उसकी विचारधारा भी बनी। अब भ्रष्टाचार के विरोध से भला किसे विरोध हो सकता है। तो, एक तरह से देखा जाए तो दिल्ली चुनाव के परिणाम आने से पहले आप के विरोधियों की लिस्ट खाली और निस्तेज सी थी। कांग्रेस और भाजपा से जुड़े लोग, जिनकी सत्ता में सीधी हिस्सेदारी की संभावना आप के कारण धूमिल हो रही थी, केवल वही आप का तीव्र विरोध कर रहे थे। लेकिन आम लोग, चाहे वे कांग्रेसी हों, दक्षिणपंथी हों या फिर वामपंथी- आप के मौन और मुखर समर्थन में थे। तो विरोध कहीं बहुत तल्ख और गर्म स्वरूप में हमारे सामने था ही नहीं। स्वयं आप के आंतरिक सर्वे में कहा गया कि उसके 31 फीसदी समर्थक नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते हैं। एक सामान्य समझ यही बनी कि आप के युवा समर्थक विधानसभा में केजरीवाल और लोकसभा में मोदी के झंडाबरदार बनेंगे। तो स्वाभाविक तौर पर मोदी के दक्षिणपंथी समर्थकों ने बढ़चढ़ कर अपना समर्थन जताया। 

दूसरी ओर, वामपंथियों को पहली बार लगा कि गैर कांग्रेसी, गैर भाजपाई कोई ऐसी धारा इस देश में खड़ी की जा सकती है, जिसे जनता का समर्थन मिल रहा है। ऐसे में उन्होंने भी अपना पूरा जोर केजरीवाल के पक्ष में लगाया। लेकिन चुनाव परिणाम आते ही स्थितियां कुछ बदल सी गईं।

चुनाव परिणाम आने के साथ ही केजरीवाल के दक्षिणपंथी समर्थक सकते में आ गए। उन्हें लगा कि केजरीवाल के साए ने मोदी को अपनी परछाईं में समेट लिया है। कल तक जो लोग केजरीवाल को केवल दिल्ली विधानसभा की घटना मान रहे थे, उन्हें लगने लगा कि अब यह घटना मिशन मोदी की राह में आने लगी है। वे तिलमिलाए और उन्होंने केजरीवाल की आलोचनात्मक समीक्षा शुरू कर दी। दूसरी ओर, इसी संकेत ने वामपंथियों में नई जान फूंक दी। पश्चिम बंगाल से भी उखड़ने के बाद वामपंथ भारत में वैसे ही कैंसर रोग का मरीज बना हुआ है। सबसे आशावादी वामपंथी में देश में चुनावी सफलता पाने का सपना नहीं देखता और इसीलिए वामपंथ की पूरी राजनीतिक रणनीति केवल कांग्रेस, लालू जैसी ताकतों के साथ चिपक कर खुद को प्रासंगिक बनाए रखने तक सीमित रही है। 

उनका राजनीतिक दर्शन केवल और केवल भारतीय जनता पार्टी को रोकना है और 2 महीने पहले तक मोदी के सामने वे पस्त हो चुके थे। धूलधूसरित कांग्रेस से उन्हें कोई उम्मीद नहीं थी और इसलिए मोदी को रोकने के लिए वे किसी चमत्कार की ही उम्मीद कर सकते थे। अरविंद केजरीवाल वही चमत्कार बनकर उनके सामने आए हैं। वामपंथियों को एकाएक फिर यह उम्मीद जग गई है कि मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोका जा सकता है। और इसलिए दक्षिणपंथियों की हर आलोचना, हर  समीक्षा पर वे टूट पड़ रहे हैं। तो स्वाभाविक है कि यह चर्चा गर्म और तल्ख हो गई है। लोकसभा चुनावों तक इसमें नरमी आने की संभावना भी नहीं है। 

सोमवार, 31 दिसंबर 2012

एक बहादुर ज़िंदगी की गुमनाम मौत

आज सुबह उस बहादुर लड़की की अंत्येष्टि की कहानी और उससे जुड़ी घटनाएं पढ़ते हुए अनायास ही मेरे दिमाग में कुछ दिनों पहले की इसी तरह की कहानियां ध्यान में आ गईं, जो मुंबई हमलों के एकमात्र ज़िंदा पकड़े गए आतंकवादी को फांसी दिए जाने के बाद अख़बारों में आई थीं। 3.30 बजे सुबह निर्भया (उस लड़की के लिए दिया गया एक छद्म नाम) का शव सिंगापुर से आया। 7.30 बजे उसकी अंत्येष्टि कर दी गई।

उसकी मां चीख-चीख कर बेहोश होती रही कि मेरी बेटी को कुछ देर और मेरे पास रहने दो। लेकिन उस मां को अपनी बेटी को जी भर कर आखिरी बार देखने तक नहीं दिया गया। कांग्रेस सांसद महाबल मिश्रा ने अपने उन्हीं लोगों के साथ, जो उनके लिए चुनावी संसाधन जुटाते होंगे, लड़की की अंत्येष्टि के लिए सामान जुटाए। महाबल निर्भया के पिता की 'मदद' कर रहे थे। लेकिन इस मदद की असलियत इस बात से ही उजागर हो जाती है कि निर्भया के शव को अग्नि देने के लिए सूर्योदय तक का इंतज़ार नहीं किया गया। टॉर्च की रोशनी में आनन-फानन से अंतिम क्रिया कर दिया गया। अंतिम क्रिया कहां किया गया, यह भी गुप्त है।

ये खबरें, ये कहानियां हमारे लोकतंत्र पर एक थप्पड़ है। मैं सुबह से ही सोच रहा हूं सरकार की उस मानसिकता के बारे में, जिसके तहत यह किया गया। सरकारें कसाब और ओसामा बिन लादेन सरीखों के साथ ऐसा ही करती हैं ताकि उनकी तरह सोचने वालों के लिए वह सहेजने की जगह या याद न बन जाए। लेकिन निर्भया न क़साब थी, न ओसामा (अमेरिकी सरकार ने कुछ ऐसा ही किया था। फिर सरकार ने ऐसा क्यों किया? दरअसल क़साब या ओसामा का नाम हमारे ज़हन में इसीलिए आता है कि हम मानते हैं कि यह सरकार हमारी है।

लेकिन क्या यह सरकार भी मानती है कि हम उसके हैं? हां, वह हमें अपनी प्रजा ज़रूर मानती है, लेकिन अपना नहीं मानती। ठीक उसी तरह जैसे अंग्रेज हमें अपनी प्रजा ज़रूर मानते थे, लेकिन अपना नहीं मानते थे। इसीलिए भगत सिंह को जब फांसी दी गई, तो ऐसे कि किसी को पता न चले। उनके शव को आनन-फानन में जलाया गया। क्या इसलिए कि अंग्रेज भगत सिंह की निजता का सम्मान करते थे? निर्भया देश की नवोदित युवा क्रांति की प्रतीक बन चुकी है। और यह सरकार नहीं चाहती कि इस क्रांति को कोई चेहरा मिले।

सरकार दरअसल निर्भया की निजता नहीं, इसी क्रांति के प्रतीक को छिपाना चाहती है। वह नहीं चाहती कि नेहरुओं और गांधियों को टक्कर देता कोई ऐसा स्मारक भी खड़ा हो जाए, जो जनता का हो। यह बलात्कार की शिकार किसी आम लड़की की कहानी नहीं है, जिसे सामाजिक अपमान और क्लेश से बचाने के लिए निजता के नियम को बनाया गया है। उस लड़की के सभी संबंधी उसे जानते हैं, उसका गांव, उसका मोहल्ला उसको जानता है।

फिर यह सरकार किससे उसकी पहचान को छिपाना चाहती है? एक मिनट के लिए मान लीजिए कि उस लड़की का नाम राधा था। आप जान गए कि उस लड़की का नाम राधा था, तो उसकी निजता कैसे खंडित हो सकती है? आप तो उसे पहले भी नहीं जानते थे और अब भी नहीं जानते। यह जनता को बेवकूफ बनाने के लिए गढ़ा गया सिद्धांत है, जिसमें मीडिया को भी शामिल कर लिया गया है। उस बहादुर लड़की ने कोई पाप नहीं किया है कि उसकी पहचान छिपाया जाए।

इस क्रांति को सरकार कितनी हिकारत भरी नजर से देखती है, इसका प्रमाण पहले तो गृहमंत्री के उस मूर्खतापूर्ण बयान से मिला था, जब उसने कहा कि कल अगर गढ़चिरौली में 100 आदिवासी मारे जाएं तो क्या सरकार वहां बात करने चली जाएगी और दूसरा सबूत प्रधानमंत्री के उस घड़ियाली संदेश से मिला, जिसके खत्म होने के साथ ही उन्होंने कैमरामैन से पूछा कि उनका शॉट ठीक रहा कि नहीं। 12 दिनों तक देश का (क्योंकि दिल्ली में पूरा देश रहता है) युवा यहां-वहां मोमबत्तियां जलाता रहा, नारे लगाता रहा और वर्ल्ड कप की जीत के जश्न में भीड़ का हिस्सा बनने वाली सोनिया गांधी या उनके भावी प्रधानमंत्री बेटे में से कोई या उनका कोई विश्वस्त दरबारी एक बार भी उनके बीच नहीं आया। यह भी इस पूरे आंदोलन के प्रति इस सरकार की समझ का ही सबूत है।

यह सचमुच हमारा दुर्भाग्य है कि हम एक ऐसी सरकार की प्रजा हैं, जो लोकतंत्र की घोर अलोकतांत्रिक उपज है। इस विशुद्ध जनाक्रोश से निपटने के लिए इसकी प्रतिक्रिया देखिए। इंडिया गेट बंद कर देना, मेट्रो के 10 स्टेशनों को हर दूसरे-तीसरे दिन बंद करना, 1-2 जगहों को छोड़कर पूरी दिल्ली में 144 लगाना और दिल्ली पुलिस को लाठियां भांजने के लिए सड़कों पर उतार देना। लेकिन यह सरकार निश्चिंत है कि 2014 से पहले कैश सब्सिडी फेंक कर यह चुनाव जीत लेगी। 60 साल में हमारा लोकतंत्र इतना ही परिपक्व हुआ है कि पहले वोट के लिए दारू बंटती थी, अब नीतिगत टुकड़े फेंके जाते हैं। फिर क्या फ़िक्र, अंतिम लक्ष्य तो सत्ता ही है।

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

फांसी मांगकर इस सरकार को सेफ पैसेज मत दीजिए

बलात्कारियों को कड़ी सज़ा देने की मांग के साथ शुरू हुए आंदोलन में जिस एक भावना का सबसे उग्र प्रदर्शन हुआ है और हो रहा है, वह है पुलिस का विरोध। कल जिस तरह अलग-अलग जगहों पर आंदोलनकारियों ने दिल्ली पुलिस के कॉन्स्टेबलों की ओर थूका, रोड ब्लॉक कर रहे पुलिस के जवानों की ओर सिक्के उछाले और उन्हें नोट दिखा कर यह संकेत दिया कि आओ, इसी के तो भूखे हो तुमलोग। तो आकर ले जाओ अपनी बोटी और हमें जाने दो- वह दिखा रहा है कि अन्ना के आंदोलन में जो घृणा, जो नफ़रत नेताओं के खिलाफ दिखी थी, कुछ उसी तरह का माहौल इस आंदोलन में पुलिस के खिलाफ़ दिख रहा है।

इस गैंगरेप ने देश को एक बेहतरीन मौक़ा दिया है। मौक़ा व्यवस्था परिवर्तन का। एक बार फिर हमें वही बेवकूफ़ी नहीं करनी चाहिए, जो अन्ना आंदोलन ने की। बलात्कारियों को फांसी तो दीजिए, लेकिन इसका आधार क्या होगा? सबूत और पुलिस का आरोप पत्र। लेकिन अगर पुलिस जांच ही नहीं करे, पैसे खाकर सबूत ही नष्ट कर दे, आरोप पत्र ही न दाखिल करे, तो?

हत्या के लिए फांसी होती है, तो कितनों को फांसी हुई अब तक! 6 महीने और साल भर की बच्चियों का बलात्कार कर हत्या कर देते हैं शैतान- तो क्या यह रेयरेस्ट ऑफ द रेयर केस नहीं है? तो उनमें आरोपियों को फांसी क्यों नहीं होती? उसके लिए तो किसी कानून में बदलाव या संविधान में संशोधन की भी ज़रूरत नहीं। जब देश में 54 फीसदी बलात्कार के मामले पुलिस तक पहुंच ही नहीं पाते और जो पहुंचते हैं उनमें 97 फीसदी के आरोपी 24 घंटे भी जेल में बंद नहीं रहते, तो साफ है कि गड़बड़ी कानून में नहीं, नीयत में है।

यह मौक़ा केवल फांसी की सज़ा मांगने का नहीं, पूरी पुलिस व्यवस्था में सुधार की मांग उठाने का है। सुप्रीम कोर्ट के कई प्रयासों के बाद पुलिस सुधार लागू होने की कोई गुंजाइश नहीं बन रही। इसलिए की राजनीति पुलिस को अपने टूल के तौर पर इस्तेमाल करना चाहती है। हमें यह याद रखना चाहिए कि यह वही आईपीएस और आईएएस सेवाएं हैं, जिनका गठन अंग्रेजों ने भारतीयों का खून चूसने के लिए किया था।

यह वही पुलिस व्यवस्था है, जिसे भारतीयों को ग़ुलाम बनाए रखने के हथकंडे सिखाए गए थे। इसीलिए ब्रिटेन की पुलिस और भारत की पुलिस में इतना अंतर है। अंग्रेजों ने ब्रिटेन की पुलिस को अपने लोगों की सेवा के लिए बनाया, जबकि भारत की पुलिस को यहां के लोगों पर शासन करने के टूल के तौर पर खड़ा किया। गठन का यह विज्ञान भारत की पुलिसिया व्यवस्था में अब तक उसी तल्खी के साथ दिखता है। इस बदलने का समय आ गया है। पुलिस सुधार तुरंत लागू करने की ज़रूरत है। केवल बलात्कारियों को लिए फांसी का प्रावधान कर इन नेताओं को, इस सरकार को बचने का रास्ता मत दीजिए।

इस पूरे आंदोलन के खिलाफ़ जिस तरह सरकार अपना मुंह चुराती नज़र आ रही है, वह इस बात का सबूत है हम एक ऐसी सरकार के शासन में रह रहे हैं, जो केवल लाल बत्तियों की कारों, एयर कंडीशंड मीडिंग हॉल्स और एसपीजी के सुरक्षा घेरों से शासन करना जानती और चाहती है। ऐसी सरकार की पुलिस से केवल ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद की जा सकती है, जो उसने कल दोपहर बाद और शाम को इंडिया गेट पर दिखाया। शांतिपूर्ण तरीक़े से बैठी लड़कियों पर लाठियां भांजी गईं और कड़ाके की ठंड में युवाओं पर पानी की बौछारें छोड़ी गईं। मेट्रो का इंडिया गेट के आसपास के 9 स्टोशनों को बंद करने का फैसला इस डरी हुई बहरी सरकार की चरम मूर्खता का ही संकेत है।