गुरुवार, 1 जुलाई 2010

कश्मीर का हर रिपोर्टर कश्मीरी ही क्यों होना चाहिए?

एक सवाल है- गुजरात के दंगों की रिपोर्टिंग करने के लिए लगभग सभी चैनलों और अखबारों ने दिल्ली से अपने रिपोर्टर भेजे थे। कश्मीर की रिपोर्टिंग के लिए हमेशा कश्मीरियों को ही क्यों सबसे उपयुक्त माना जाता है? गुजरात के ज़्यादातर स्थानीय अखबारों और चैनलों ने गुजरात दंगों के दौरान मोदी सरकार की भूमिका की सराहना की, लेकिन उन्हें मोदी समर्थक और साम्प्रदायिक मानकर ख़ारिज कर दिया गया। कश्मीर की स्थानीय मीडिया की अलगाववादियों से सहानुभूति रखते हुए की जाने वाली रिपोर्टिंग पर सवाल क्यों नहीं उठाए जाते?

मेरे मन में ये सवाल इसलिए आ रहे हैं, क्योंकि मैंने पिछले 4 दिनों में दसियों अखबारों और चैनलों की कश्मीर रिपोर्टिंग देखी है। मुझे एक भी रिपोर्टर ग़ैर कश्मीरी नहीं दिखा। तमामचैनलों के रिपोर्टरों की रिपोर्टिंग सुनी मैंने। सब पहले से आखिरी लाइन तक केवल यही बता रहे हैं कि सुरक्षा बलों की गोलियों से मारे गए बच्चों की उम्र 10 साल, 13 साल, 17 साल और ब्ला-ब्ला... थी। न एंकर ने यह पूछने की जहमत उठाई कि मारे गए इन बच्चों को क्या घर से उठा कर लाया गया था, न रिपोर्टर ने यह बताना उचित समझा कि ये बच्चे उन दंगाइयों में शामिल थे, जो सुरक्षा बलों पर पथराव कर रहे थे।

फ़र्ज कीजिए, आपके शहर में धारा 144 लागू है। आपके घर के बाहर पुलिस की गोलियों की आवाज़ सुनाई दे रही है और लोग पुलिस वालों पर हमले कर रहे हैं। आप 9 साल के अपने छोटे भाई के साथ बाहर निकलते हैं और अपने भाई को एक पत्थर थमाते हुए कहते हैं कि सीधे पुलिस वाले के सर पर मारना। छोटा बच्चा है, आपने ख़ुद तो दीवार की ओट ले ली और बच्चा बेचारा सड़क के बीच मे आकर पत्थर चलाने लगा। पुलिस की रबर की गोली उसकी छाती में लगी और आपके नन्हे से भाई ने वहीं दम तोड़ दिया। आपके भाई का हत्यारा कौन है?

यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा है कि अगर पथराव करने वालों में 30 साल, 32 साल, 40 साल, 28 साल, 37 साल और इसी तरह बड़ी उम्र वाले शामिल हैं, तो मरने वाले केवल बच्चे ही क्यों हैं? क्या इसका मतलब यह नहीं कि कश्मीर के पत्थरबाज छोटे बच्चों को ह्युमन शील्ड के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं? कश्मीर में पत्थरबाजी की कहानी अब राज़ नहीं रह गई है। सबको पता है कि वहां पत्थरबाजी एक धंधा बन गया है। बेरोजगार युवकों को इसके लिए बाक़ायदा रुपए दिए जाते हैं। इसके लिए शहर के बाहर से पत्थर आयात किए जाते हैं और सुरक्षा बलों पर उन्हें फेंकने के लिए ज़खीरा तैयार किया जाता है। पत्थर फेंकने वाले गुस्से से भरे आंदोलनकारी नहीं होते, बल्कि पेशेवर और भावशून्य बेरोजगार युवक होते हैं, जिन्हें इसके बदले रुपए दिए जाते हैं।

तो फिर कश्मीर पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार इन बातों को क्यों नहीं उभारते? इसका जवाब आप ख़ुद सोचिए, क्योंकि कुछ सच्चाइयां ऐसी होती हैं, जिन्हें बोलना या सुनना बहुत कड़वा लगता है। जहां पूरे समाज में ही दिन-रात भारत के खिलाफ विष घोला जाता हो, जहां भारतीय दूरदर्शन से ज्यादा पाकिस्तानी टीवी का प्रोपेगेंडा असर करता हो, जहां शासन के आदेश से ज्यादा मस्जिद की घोषणाओं को तवज़्जो़ दी जाती हो, जहां हर भारतीय सैनिक की छवि हत्यारे और बलात्कारी के तौर पर स्थापित की जाती हो, उस माहौल में पले-बढ़े रिपोर्टर से कैसी रिपोर्टिंग की उम्मीद करेंगे आप? गुजरात की अदालतों तक को निष्पक्ष न मानने वाले हम भारतीय अगर कश्मीर की हर आवाज़ को सच मान रहे हैं, तो हमारी सोच के साथ कुछ गड़बड़ तो है।