शनिवार, 21 अगस्त 2010

इंडिया इंक के डायरेक्टरों का वेतन 1 करोड़ सालाना तो होना ही चाहिए

सांसदों का वेतन तीन गुना होने पर पूरा देश गुस्से और घृणा से भरा हुआ है। मैं इस पूरे मसले के उठने के दिन से ही सोच रहा हूं कि ऐसा क्यों है? मुकेश अंबानी, रतन टाटा, नंदन नीलेकणी और ऐसे सैकड़ों लोग हैं जिनका मासिक वेतन भी कुछ करोड़ रुपयों में है, लेकिन उनके प्रति तो कभी हमें गुस्सा नहीं आता। एक इंजीनियर, प्रोफेसर या टेलीविजन पत्रकार का औसत वेतन भी 30-40 हज़ार रुपए हो चुका है, तो फिर सांसदों का वेतन 16 हज़ार रुपए क्यों होना चाहिए? इस बात से शायद ही कोई इंकार कर सकता है कि 10-15 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले, हर महीने सैकड़ों लोगों की मेजबानी करने वाले और हर हफ्ते किसी ने किसी के निजी कार्यक्रम में शामिल होने और गिफ्ट देने वाले सांसदों का वेतन बढ़ना चाहिए। फिर यह गुस्सा और घृणा क्यों?

मुझे लगता है कि यह गुस्सा और घृणा सासंदों पर नहीं बल्कि उनके सांसदपने पर है? हमारे देश के छह दशकों के महान लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी कमाई है कि हमारे यहां राजनेता गुंडागर्दी, अपराध, भ्रष्टाचार और हर तरह की सामाजिक बुराई का सबसे बड़ा प्रतीक बन चुके हैं। एक राजनेता सांसद चुने जाने के लिए 10-10 करोड़ रुपए तक खर्च करता है। बढ़े हुए वेतन के साथ भी उसका पांच साल का वेतन होगा करीब 2.5 करोड़। तो क्या इसी के लिए वह 10 करोड़ रुपए खर्च करता है?

सांसदों पर इस देश की सुरक्षा से लेकर कृषि और शिक्षा से लेकर कारोबार तक के लिए नीतियां और कानून बनाने की ज़िम्मेदारी है। हमारे सांसद अपनी इस ज़िम्मेदारी को कितनी अच्छी तरह निभाते हैं, हम सबको पता है। कई बार तो कोरम पूरा नहीं होने के कारण संसद में किसी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा तक टालनी पड़ती है। और तो और, संसद के अंदर सवाल पूछने जैसे अपने मूल कर्तव्य के पालन के लिए भी सांसदों द्वारा घूस लिए जाने की घटना सामने आ चुकी है। हर सांसद को उसके 5 साल के कार्यकाल में सीधे उसके माध्यम से खर्च करने के लिए 10 करोड़ की रकम मिलती है। इसके अलावा दसियों सरकारी योजनाओं के लिए मिलने वाली करोड़ों रुपए की अन्य रकम भी सांसदों के ज़रिए खर्च होती है। इनमें वास्तव में कितना कल्याण योजनाओं पर खर्च होता है और कितना जनप्रतिनिधियों की अगुवाई में सरकारी अधिकारियों के बंदरबांट में निकल जाता है, इसका अनुमान हर भारतीय को है।

तो अब जब लालू जी के नेतृत्व में तमाम सांसदों ने (वामपंथियों को छोड़कर) जब अपने को ग़रीबी का पुतला बना कर वेतन बढ़ाने के लिए अभियान छेड़ ही दिया है, तो यह देश के लिए एक अच्छा मौक़ा है। तमाम सांसदों को देश रूपी कंपनी के बोर्ड का डायरेक्टर मानते हुए 1-1 करोड़ रुपए सालाना वेतन दे दिया जाना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही उन्हें मिलने वाली अनगिनत अन्य सुविधाएं वापस ली जानी चाहिए। वे और उनकी पत्नियों के लिए ट्रेन में प्रथम श्रेणी की आजीवन यात्रा सुविधा के अलावा विमान में मुफ्त टिकट, लुटियंस ज़ोन में मुफ़्त बंगले आदि की सुविधाएं वापस लेना चाहिए। बोर्ड की यानी संसद की बैठकों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य करनी चाहिए। उनके लिए सीएल, पीएल, मेडिकल और सिक लीव तय होनी चाहिए और उससे ज्यादा छुट्टी लेने पर उन्हें विदाउट सैलेरी करना चाहिए। जो फंड उन्हें जनता के लिए दिया जाए, उसके एक-एक पैसे का हिसाब उसी तरह होना चाहिए जैसे किसी कंपनी के डायरेक्टरों के हस्ताक्षर से खर्च होने वाली रक़म का होता है। साथ ही भ्रष्टाचार के किसी भी मामले में पकड़े जाने पर उन्हें बोर्ड से बाहर किया जाना चाहिए।

लालू जी को प्रधानमंत्री बनने का बड़ा शौक़ है। सो एक दिन के लिए ही सही, एक छद्म संसद बनाकर वह प्रधानमंत्री तो बन ही गए। और इत्तेफाक़ तो देखिए, वह छद्म प्रधानमंत्री बने भी तो उसी काम के लिए, जिसके लिए वह वास्तव में प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते हैं- और ज्यादा पैसे बनाने के लिए। तो ये जिस योजना का ब्लूप्रिंट मैं यहां रख रहा हूं, वह निश्चित तौर पर ऐसे सांसदों के बूते की नहीं है जो लालू जैसे नेता को केवल अपना वेतन बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री मानने को तैयार हैं। तो फिर... । इस यूटोपिया को पाने के लिए किसी और नेता की ज़रूरत है, जो कम से कम अभी तो दृष्टिपटल पर नहीं। तो, तब तक हर मंच पर इसके लिए आवाज़ उठाते हुए उस नेतृत्व का इंतज़ार करते हैं।

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

सोनिया जी, आप महान हो, आपको शत-शत प्रणाम

सोनिया जी, आज सभी अखबारों में आपका बयान पढ़ा। आपने बहुत ही सख़्त चेतावनी दी है राष्ट्रमंडल के घोटालेबाजों को। आपने कहा है कि खेल आयोजन ख़त्म होने के बाद किसी भी दोषी को छोड़ा नहीं जाएगा। वाह, इसे कहते हैं टाइमिंग। जिस सरकार और जिस पार्टी में आपकी मर्ज़ी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता है, वहां अगर कहीं किसी को पहले आपके इस रुख़ का अहसास हो गया होता, तो सब गड़बड़ हो जाती। हज़ारों करोड़ की लूट नहीं हो पाती और देश की प्रतिष्ठा मटियामेट नहीं हो पाती।

जो खेल सालों पहले से तय थे, जिसकी निगरानी के लिए आपके लाडले के विराट व्यक्तित्व की छत्रछाया में 2005 में ही समिति का गठन हो चुका था, जिसके आयोजन क्षेत्र यानी दिल्ली में आपके दरबार में शीर्षासन करने वालों की सरकार 12 साल से है, जिन खेलों का सूत्रधार आपकी पार्टी का एक सांसद है, उन खेलों के आयोजन में हो रहा घोटाला महीनों से मीडिया की सुर्खियां बना रहा। लेकिन आपने पूरी तरह यह सुनिश्चित किया कि आपकी चेतावनी खेल शुरू होने से केवल 45 दिन पहले ही सामने आए। जब पहले ही 650 करोड़ रुपए के बजट पर 35,000 करोड़ रुपए की लूट हो चुकी है।

आखिर इस देश के प्रधानमंत्री को भी तो केवल 59 दिन पहले ही इन खेलों पर पहली बार ध्यान देने की ज़रूरत महसूस हुई। ईमानदारी और सुराज के प्रति आपकी निष्ठा... वाकई बेजोड़ है। लेकिन ये देश में जो कैग और सीवीसी जैसे कुछ बदमाश संगठन हैं न, आपको परेशान करने पर तुले रहते हैं। दोनों ने टेलीकॉम मंत्री राजा के खिलाफ जांच शुरू कर दी है। दोनों कह रहे हैं कि राजा जी ने टेलीकॉम लाइसेंस देने में 26,000 करोड़ रुपए का घोटाला कर दिया। अब इतनी बड़ी बात कहने से पहले इन्हें आपसे भी तो सलाह ले लेनी चाहिए थी। लेकिन कोई बात नहीं।

आपने दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए कानून मंत्रालय को राजा जी की सुरक्षा में उतार दिया है। आपके कानून मंत्रालय ने कैग और सीवीसी की औकात बताते हुए कह दिया है कि उन्हें न तो इस तरह घोटाले उजागर करने का अधिकार है और न ही उन्हें इसके लिए जिम्मेदारी दी गई है। अब अगर इतने से ही काम हो गया, तो ठीक है, लेकिन अगर ज्यादा हल्ला-हंगामा होगा, तो आप फिर एक बयान दे ही देंगी कि कानून को अपना काम करने दिया जाएगा। आपका बयान सारे अखबारों के पहले पन्ने की सुर्खी बन जाएगा और आपकी सरकार एक बार फिर सार्वजनिक जीवन में शुचिता का प्रतीक बन जाएंगी। आपकी यह रणनीति अचूक है।

मैं इसीलिए आपका फैन हूं। आपको प्रधानमंत्री बनने से रोककर कुछ मूर्खों को ऐसा लगा कि वह उन्होंने आपके प्रभाव की सर्वव्यापी चादर पर कैंची चला दी। लेकिन अगले कुछ वर्षों के भीतर हरकिशन सिंह सुरजीत से लेकर लालू, मुलायम, अमर सिंह जैसे नेताओं को अपने दरबार में नाक रगड़वा कर आपने यह साबित कर दिया कि उन मूर्खों को आपके महान व्यक्तित्व का ज़रा भी आभास नहीं था। आपको राजनीति का नवसिखुआ मानने वालों से बड़ा बुद्धू कौन है? देखिए न, आपका गृहमंत्री नक्सलवाद के खिलाफ पूरी ताकत झोंक दे रहा है और आपके राहुल बाबा के ड्रीम प्रोजेक्ट उत्तर प्रदेश का पार्टी प्रभारी आए दिन उसी गृहमंत्री के खिलाफ अखबारों में लेख लिख रहा है और बयान दे रहा है। बीच-बीच में आपके दरबारी रिपोर्टर अखबारों में यह ख़बर भी देते रहते हैं कि पार्टी हाईकमान ने दिग्विजय जी को गै़रज़िम्मेदाराना बयान न देने की ताक़ीद कर दी है। अब बताइए न, वास्तव में जिस दिन आप दिग्विज जी को एक बार यह चेतावनी दे देंगी, उसके बाद उनकी जबान तालू से न चिपक जाएगी। लेकिन, राजनीति का यह गुर दशकों तक चप्पल घिस कर थोड़े ही सीखा जाता है, जो भाजपाई और वामपंथी समझ जाएंगे। यह तो आपको दैवी वरदान है।

देश के होने वाले प्रधानमंत्री और आपके सुपुत्र ग़रीब जनता के साथ मिट्टी की टोकरी कंधे पर उठाकर तस्वीरें खिंचवाते हैं और सामाजिक-आर्थिक रूप से सबसे ज़्यादा पिछड़े वर्गों के घरों में रात बिताते हैं। यह ज़रूर आप ही की समझदारी होगी। नहीं तो आपकी सरकार ने जिस तरह ग़रीबों का आटा गीला किया है और जीवन की मूलभूत सुविधाओं को भी लग्ज़री बना दिया है, उसके बाद भी आप की पार्टी ग़रीबों की सबसे हमदर्द होने का दावा करे, यह कमाल कैसे हो सकता था। आपकी प्रतिभा का लोहा तो देश को उसी दिन मान लेना चाहिए था, जब आपने एक मिट्टी के माधो को अपने परिवार की सवा सौ करोड़ लोगों की प्रजा का भाग्यनियंता तय कर दिया। क्या शानदार चुनाव था आपका। जैसे नरसिंह राव ने देश की हर समस्या का समाधान चुप्पी में ढूंढ लिया था, वैसे ही डॉ मनमोहन सिंह के लिए हर बीमारी का रामबाण इलाज मंत्रियों का समूह है, जिसे जीओएम कहते हैं।

यहां तक कि सरकार के ही दो विभागों की आपसी लड़ाई में भी प्रधानमंत्री मामला जीओएम को ही सौंप देते हैं। इसीलिए तो राष्ट्रमंडल जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषय को उन्होंने शीला दीक्षित और कलमाडी की बिटिया की शादी का आयोजन सरीखा बनवा दिया। वैसे ही, कश्मीर जैसे अहम राष्ट्रीय मसले पर वह कानों में तेल डाले सोए रहे और जब घाटी में आम लोगों का नक़ाब पहने अलगाववादियों के प्रदर्शन में 50 से ज़्यादा जानें चली गईं और पूरी जनता भारत विरोधी नारे लगाने लगी, तब उनकी ओर से पहला बयान आया। बयान भी क्या? अलगाववादियों के एजेंडे यानी स्वायत्तता और सुरक्षा बलों के विशेष अधिकार वाले कानून पर विचार करने का बयान। मानना पड़ेगा सोनिया जी आपकी पारखी नज़रों को। दस साल पहले आपने अपने एजेंडे को पूरा करने वाला एक ऐसा व्यक्ति तलाश लिया, जो शैक्षणिक डिग्रियों और करियर प्रोफाइल में तो इस देश की व्यवस्था का मज़बूत स्तंभ लगे, लेकिन 7, रेसकोर्स में बैठकर आपके एजेंडे पर मुहर लगाए।

जैसे हरि अनंत, हरि कथा अनंता, उसी तरह आपकी भी महिमा अपरंपार है। पूरी धरती को कागज़ और सातों समुंदरों को स्याही बनाकर भी उसका गान नहीं किया जा सकता। उम्मीद है मेरी इस छोटी सी कोशिश में आपके जो बहुत सारे दूसरे चमत्कारों की चर्चा नहीं हो पाई है, उसके लिए आप मुझे माफ करेंगी। आप महान हैं, आपको शत-शत नमन।

शनिवार, 7 अगस्त 2010

कश्मीर को बचाना है तो यही एक रास्ता है

आज ज़ी न्यूज के क्राइम रिपोर्टर कार्यक्रम में तीन घटनाएं दिखाई गईं। पहली घटना में, हरिद्वार में बलात्कार के आरोपी दो वीडियो डायरेक्टरों को दारोगा जी थाने के बाहर खुलेआम पीट रहे थे। बाकी पुलिस वाले गंडों की तरह उन्हें घेर कर खड़े थे और सरगना अपनी गुंडागर्दी दिखा रहा था। दूसरी में, दिल्ली पुलिस ने एक पटरी कारोबारी को अतिक्रमण हटाने का विरोध करने के आरोप में हिरासत में लिया और दो घंटे बाद कारोबारी के घर वालों को उसकी लाश मिल गई। और तीसरी घटना, बेंगलुरु में एक पार्टी में हंगामा करने के आरोप में 16 छात्रों को थाने में लाने के बाद दारोगा ने उनकी पिटाई की और छोड़ने के लिए घूस मांगा। 15 हज़ार रुपए से शुरू की गई मांग आख़िरकार 300 रुपए प्रति छात्र पर आकर टिकी और वसूली के बाद छात्रों को छोड़ा गया। किसी एक छात्र ने मोबाइल फोन से इस घटना की वीडियो फ़िल्म बना ली और स्क्रीन पर नोट गिनता दारोगा साफ दिख रहा था। घटना का विश्लेषण कैसे किया जाएगा? पुलिस की दरिंदगी, ख़ाकी का रौब, पुलिसिया गुंडागर्दी, पुलिस की ब्रिटिश ज़माने की कार्यपद्धति इत्यादि-इत्यादि।

अब एक प्रयोग कीजिए। घटनाएं वही रहने देते हैं, जगह बदल देते हैं। पहली घटना हरिद्वार की जगह कश्मीर के पुलवामा की है, दूसरी श्रीनगर की और तीसरी नौशेरा की। अब देखिए, विश्लेषण के विशेषण बदल जाएंगे। भारतीय पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों की दरिंदगी, भारतीय ख़ाकी का रौब, भारत की गुंडागर्दी, भारतीय बलों की कार्यपद्धति इत्यादि-इत्यादि। जिस कश्मीर में चंद वर्षों पहले आतंकवादियों की धमकियों के बावजूद लाखों की संख्या में सड़कों पर निकल कर लोगों ने लोकतांत्रिक ढंग से सरकार चुनने के लिए वोट दिया, उसी कश्मीर में आज सड़कों पर खुले-आम आज़ादी के नारे लग रहे हैं। जो खबरें आ रही हैं, उनसे तो यही लग रहा है कि इन नारों को पाकिस्तानी भोंपू की आवाज़ कह कर ख़ारिज कर देना सही नहीं होगा। इन नारों में बच्चों की, औरतों की और बूढ़े-बुज़ुर्गों की आवाज़ें भी शामिल हैं। यह अलग बात है कि ये सारी खबरें बचपन से पाकिस्तानी प्रोपेगेंडे और आतंकवाद समर्थक मस्जिदों से आने वाले भारत विरोधी फतवों के बीच पले-बढ़े कश्मीरी रिपोर्टरों द्वारा फाइल की जा रही हैं, लेकिन फिर भी, बिना किसी विकल्प के मैं इन्हें सही मान लेता हूं। तो कुल मिलाकर तस्वीर यह बन रही है कि कश्मीर आज़ाद होना चाहता है। भारत एक औपनिवेशिक ताक़त है, जिसने कश्मीर पर कब्ज़ा कर रखा है और जिसके 7 लाख सैनिक चंगेज खां के सैनिकों की तरह हर कश्मीरी बच्चे को बंदूकों के संगीनों पर उछाल रहे हैं और हर कश्मीरी महिला की आबरू लूट रहे हैं। विश्वास मानिए, अपने देश में (कश्मीर के अलावा) इस तस्वीर को सच मानने वालों की एक पूरी जमात है। लेकिन जो लोग ऐसा मानते हैं, उनके लिए मैं अपना लेख यह कहते हुए यहीं समाप्त करता हूं कि उन्हें एक बार कम से कम हफ्ते भर के लिए श्रीनगर, और हो सके तो, कश्मीर के कस्बों में घूम आएं।

जिन लोगों को लगता है कि कश्मीर भारत का उसी तरह हिस्सा है, जैसा कि उनके अपने धड़ पर जमा सिर, वे मेरे साथ आगे चल सकते हैं। वहां वर्षों से हम देख रहे हैं, सुन रहे हैं कि कश्मीर में होने वाले हर भू-स्खलन, आने वाली हर बाढ़ और होने वाले हर हिमपात में देश के कोने-कोने से वहां पोस्टेड सैनिक कश्मीरियों की मदद करते हैं। हर वक्त किसी भी दिशा से होने वाले संभावित हमले का जोखिम झेलते हुए चौबीसों घंटे गश्त लगाते हैं। और जनता के प्रति दोस्ती के सैकड़ों व्यवहार करने के बाद भी जब हजारों की संख्या में लोग उनपर पत्थर फेंकते हैं, तो उन्हें संयम रखना होता है। इसके विपरीत आतंकवादियों को चाहे भय से या लालच से, वहां के घरों के पनाह मिलती है। वे घरों में रुकते हैं, रात को खाना खाते हैं, घर की लड़कियों का बलात्कार करते हैं और सुबह चले जाते हैं। उनके खिलाफ़ कोई चूं नहीं करता। किसी भी किसी एक पुलिस वाले की निजी वहशियत और लालच, पूरी भारत सरकार की साज़िश क़रार दी जाती है।

पहले मुझे भी लगता था कि कश्मीर की समस्या का समाधान वहां की जनता के दिलों को जीत कर किया जा सकता है। लेकिन पिछले कुछ समय की घटनाओं ने इस तस्वीर का एक बिलकुल नया ही आयाम सामने आया है। पिछले साल अमरनाथ के यात्रियों के लिए वहां की सरकार ने कुछ सुविधाएं घोषित की थी। लेकिन जिस तरह वहां की जनता ने व्यापक पैमाने पर उन सुविधाओं का विरोध किया, उससे राज्य के अलगाववादियों का एजेंडा साफ हो गया। वैसे तो पाकिस्तान के रोडमैप पर चलने वाले आतंकवादियों का एजेंडा काफी सालों पहले उसी समय साफ हो गया था, जब चुन-चुन कर कश्मीरी हिंदुओं को घाटी के बाहर खदेड़ दिया गया था।

लेकिन उसके बाद से कांग्रेसियों, फारूक़ अब्दुल्ला सरीखे नेताओं और यासीन मलिक जैसे कथित उदारवादी अलगाववादियों के कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के समर्थन में दिए गए भ्रामक बयानों से यह ग़लतफ़हमी बनी रही कि यह एजेंडा कश्मीरी मुसलमानों का नहीं, मुट्ठी भर आतंकवादियों का है। पर, अमरनाथ यात्रियों को दी गई सुविधाओं के खिलाफ उठे आंदोलन ने यह ग़लतफ़हमी दूर कर दी। यह दरअसल उसी सत्य का प्रतिस्थापन था कि मुसलमान तभी तक सेकुलर रहता है, जब तक वह अल्पसंख्यक होता है।

जिस देश में हज पर जाने वाले हर मुसलमान को 40 हजार रुपए की सब्सिडी (2009-10 में हज सब्सिडी के लिए सरकारी खजाने से 941 करोड़ रुपए खर्च किए गए) दी जाती है, वहां देश के हिस्से में तीर्थ जाने वाले हिंदुओं को सुविधा देने की सरकारी कोशिश स्थानीय मुसलमानों को इतनी नागवार क्यों गुजरनी चाहिए? वह भी तब जब अमरनाथ की यात्रा पर जाने वाले हर हिंदू को इसके लिए अतिरिक्त टैक्स देना होता है। अमरनाथ जाने वाले यात्रियों के लिए सरकार ने केवल 99 एकड़ (0.4 वर्ग किलोमीटर) ज़मीन अधिगृहित की थी। वो भी इस शर्त के साथ कि उस पर केवल यात्रा के सीजन में अस्थाई निर्माण किए जाएंगे।

लेकिन कश्मीर के मुसलमानों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ। इसके विरोध में 5 लाख मुसलमानों का जुलूस निकला, जो कश्मीर के इतिहास में किसी एक दिन में हुआ अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन है। यह है कश्मीरी मुसलमानों का सेकुलरिज़्म। अक्सर कहा जाता है कि अमरनाथ के लिए दी जाने वाली खच्चर या पालकी सेवा तो मुसलमान ही देते हैं या कि अमरनाथ के शिवलिंग की व्यवस्था एक मुसलमान परिवार करता है। यानी जब कमाई और चढ़ावे से फायदा लेने की बात आती है तो कश्मीरी मुसलमान सेकुलर हो जाता है, लेकिन जैसे ही श्रद्धालुओं को चंद सुविधाएं देने की बात आती है, तो वे सड़कों पर उतर आते हैं। वाह रे सेकुलरिज़्म।

कश्मीरी मुसलमानों ने साबित कर दिया है कि भारत उनके लिए केवल सुविधाएं और धन लूटने का ज़रिया भर है। आतंकवाद एक ऐसा कमाऊ पूत है, जिसका भय दिखा-दिखा कर कश्मीर के कई सियासी परिवार करोड़पति हो चुके हैं। कश्मीर में केवल सेना पर हर साल सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं और लाखों सैनिक अपने परिवारों से दूर हर समय जानलेवा हमले के साए में नारकीय जीवन जी रहे हैं। कश्मीर को भारत से जोड़े रखने के लिए पहली ग़लतफ़हमी तो यह ख़त्म करनी होगी कि कश्मीर, कश्मीरियों का है। इसलिए कि कश्मीरी की परिभाषा क्या है? क्या लाखों की संख्या में कश्मीरी से खदेड़े गए हिंदू कश्मीरी नहीं हैं? अगर हैं, तो दशकों से वे कश्मीर से बाहर क्यों हैं?

हालिया पत्थरबाज़ी और प्रदर्शनों में भी सोपोर में दो कश्मीरी हिंदुओं के घरों को जलाने की घटना सामने आई। अगर कश्मीर, कश्मीरियों का है तो सोपोर में हिंदुओं के घर क्यों जलाए गए। इसलिए, कि चाहे कम्युनिस्ट यह न मानें और कांग्रेसियों को यह मानने में जबान हलक में अटकती हो, लेकिन यही सच्चाई है कि कश्मीर में मौजूद हर हिंदू को वहां भारत की उपस्थिति का सूचक माना जाता है। अगर भारत कश्मीर को बचाना चाहता है, तो इस संकेत से इसकी दवा ढूंढनी होगी। कश्मीर, कश्मीरियों का नहीं भारत का है। जिसे भारत में नहीं रहना, वह यहां से जा सकता है।

कश्मीर को बचाना है तो एकमात्र उपाय है वहां का जनसंख्या संतुलन बदलना। मीडिया को वहां से बाहर निकालिए, दुनिया को चिल्लाने दीजिए। श्रीलंका ने दुनिया को दिखा दिया है कि अपनी घरेलू समस्याओं को सुलझाने के लिए केवल इच्छाशक्ति की ज़रूरत होती है, अमेरिका या यूरोप के समर्थन की नहीं। दो चरणों में कार्यक्रम बनाइए। पहले चरण में बड़े-बड़े शहर बसाइए और वहां घरों से निकाले गए कश्मीरी हिंदुओं को ससम्मान स्थापित कीजिए। दूसरे चरण में सेवानिवृत्त सैनिकों और अर्धसैनिक बलों की बस्तियां बसाइए। बस्तियां सुनते ही इजरायली बू आती है। लेकिन दोनों मामलों में कोई समानता नहीं है, इसलिए इस पर रक्षात्मक होने की कोई ज़रूरत नहीं है। जब तक कश्मीर में जनसंख्या का अनुपात 60 मुसलमानों पर कम से कम 40 हिंदुओं का न हो जाए, कश्मीर को भारत से जोड़े रखने के लिए इसी तरह बेहिसाब मेहनत, धन और जानें खर्च होती रहेंगीं।