आज 'जोधा अकबर' रिलीज हो रही है और जैसा कि अब हमारे समाज का नियमित चरित्र होता जा रहा है, इस पर विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो गए हैं। कला के तौर पर सिनेमा की मेरी इतनी समझ नहीं है कि मैं इस फिल्म का कलात्मक विवेचन कर सकूं, लेकिन इस पर हो रहे विरोध के ऐतिहासिक-सामाजिक पहलुओं पर अपनी राय व्यक्त करने के लिए अपने को योग्य पा रहा हूं।
कला किस हद तक विचार अभिव्यक्ति का माध्यम है और कब यह अपनी सीमाओं का उल्लंघन कर किसी की निजता, उसके सम्मान या उसकी संवेदनाओं की हत्यारन बन जाती है, इस पर चर्चा होती रही है और मैंने भी पहले तस्लीमा नसरीन और फिदा हुसैन की तुलना पर चर्चा करते हुए खुद को अभिव्यक्त किया था। लेकिन 'जोधा अकबर' के विरोध के आयाम भिन्न हैं। इतिहासकारों को आपत्ति ये है कि फिल्म की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। इतिहास की तमाम किताबें खंगाल चुके इतिहासकार हतप्रभ हैं कि 1960 में किया गया के. आसिफ साहब का निर्देशन और पृथ्वीराज कपूर साहब का बेमिसाल अभिनय तमाम ऐतिहासिकताओं पर भारी कैसे हो सकती है? जब अबुल फज़्ल के 'अकबरनामा' तक में ज़िक्र की गई अकबर की 34 रानियों में से किसी का भी नाम जोधाबाई नहीं था, तो के. आसिफ और आशुतोष गोवरिकर कौन सा नया अकबरनामा लिखने की कोशिश कर रहे हैं?
ये सब सवाल जायज हो सकते हैं। किसी भी समाज और राष्ट्र के उत्थान या पतन में उसके इतिहास की भूमिका को देखते हुए ऐतिहासिक तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ करने की इजाज़त किसी को नहीं दी जानी चाहिए। लेकिन मेरा विचार है कि इतिहास को लेकर अति संवेदनशील होना भी ठीक नहीं। मेरे पिता, भाई या पत्नी द्वारा मेरे बारे में लिखी कहानी क्या इतिहास होगी? लालू चालीसा और नीतीश बत्तीसा क्या कल पवित्र ऐतिहासिक तथ्य हो जाएंगे? क्या हर सामाजिक घटना को देखने के दो, चार या छह नजरिए नहीं होते? अगर होते हैं, तो इतिहास किसे माना जाए? जिस दौर में शादियां राजनीतिक हित साधने का जरिया हुआ करती थीं, उस दौर में दिया गया पत्नियों का ब्यौरा क्या राजनीति नफा-नुकसान के बही-खाते से बाहर रहा होगा? इतिहास की ऐतिहासिकता और सत्यता पर मेरे इन तमाम सवालों के बावजूद ऐतिहासिक तथ्यों के प्रति मेरे सम्मान के कारण इतिहासकारों में 'अशोक', 'लगान' या 'जोधा अकबर' पर किए गए विरोध को मैं खारिज नहीं करता। ताज्जुब तो मुझे उस दूसरे वर्ग पर है, जो जोधा अकबर के खिलाफ एड़ी-चोटी एक किए हुए है।
राजपूत समाज को 'जोधा अकबर' से गहरी ठेस लगी है। लेकिन बहुत कोशिशों के बाद भी मैं यह समझ नहीं पाया कि ये ठेस किसलिए लगी है। राजस्थान के राजपूत संगठनों का कहना है कि जोधाबाई सलीम यानी जहांगीर की मां नहीं बल्कि पत्नी थीं। इसलिए फिल्म के माध्यम से ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिशों का वे हर संभव विरोध करेंगे। लेकिन एक जातीय समूह का इतिहास से ऐसा प्रेम क्यों? इसका जवाब देते हुए राजपूत संगठनों का कहना है कि जोधाबाई एक राजपूत थीं और इसलिए इस कुकृत्य से उनका जातीय स्वाभिमान आहत हो रहा है।
वाह रे जातीय स्वाभिमान। ये कैसा जातीय स्वाभिमान है जो अपने भौतिक सुखों के लिए अपनी बहु-बेटियों को बेचे जाने पर तो आहत नहीं होता, लेकिन एक फिल्मी कहानी से आहत हो जाता है। जोधाबाई पत्नी किसी की भी हों, इस बात में तो राजपूत संगठनों को भी कोई संदेह नहीं होगा कि वह आंबेर के राजा भार मल की सबसे बड़ी बेटी थीं। जोधाबाई के भाई का नाम भगवानदास था और अकबर के नवरत्नों में से एक मानसिंह जोधाबाई का रिश्तेदार था। शादी से पहले उनका एक नाम हीरा कुंअरी था, जो शादी के बाद मरियम-उज़-ज़मानी हो गया।
'जोधा अकबर' की ऐतिहासिकता पर मरने-मारने को तैयार राजपूत नेता क्या केवल अपना सामाजिक-राजनीतिक रसूख बढ़ाने के लिए अपनी बहन-बेटियों की शादी किसी इसाई या मुसलमान से करना पसंद करेंगे। पता नहीं, शायद कर भी लें क्योंकि भार मल, भगवानदास और मानसिंह उनके आदर्श हैं। राजस्थान की ही धरती ने एक और राजपूत वीर को जन्म दिया था, जो पूरी जिंदगी न केवल अकबर के खिलाफ संघर्ष करता रहा, बल्कि मुगल सल्तनत की छत्रछाया में आजीवन राज करने के अकबर के प्रस्ताव को भी लात मार दिया। क्योंकि वह वीर राज्य की नहीं राष्ट्र की लड़ाई लड़ रहा था। राष्ट्र गौरव के लिए दर-दर भटकने वाले और अपने बच्चों को घास की रोटी खिलाने वाले महाराणा प्रताप जैसे वीर देशभक्त राजपूत का तिरस्कार करने वाले कई दल और विचार इस देश में हैं, लेकिन उनपर इन राजपूत नेताओं का खून नहीं खौलता, लेकिन मुगलिया सल्तनत से अपनी नजदीकी बढ़ाने और अपना राज्य सुरक्षित रखने के लिए अपनी बहन-बेटियों को बेचने वाले भगवानदास और मानसिंह के सम्मान का उन्हें बहुत ख्याल है।
जोधाबाई चाहे अकबर की पत्नी हों या जहांगीर की, वह अध्याय राजपूतों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे हिंदू समाज के लिए शर्म की बात है। यह अध्याय है हमारे अपने पूर्वजों के बीच छिपे उस गद्दार खून का, जो अपनी सत्ता और अपना धन भंडार बचाने-बढ़ाने के लिए अपने परिवार, अपने संस्कार और अपने देश का सौदा करने से भी नहीं चूके। महाराणा प्रताप की पीढ़ियां तो खत्म हो गई, लेकिन भगवानदासों और मानसिंहों की पीढ़ियां अब भी हमारे समाज की ताकतवर गद्दियां संभाल रही हैं। इसलिए इतिहासकारों के लिए तो जरूर यह बहस का विषय हो सकता है कि जोधाबाई किसकी पत्नी और किसकी मां थीं, लेकिन भारत की जड़ों से प्यार करने वाले राष्ट्रभक्तों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि जोधाबाई अकबर की पत्नी थीं, या सलीम की।
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10 टिप्पणियां:
तरीके से तार्किक तरफदारी की तबियत से तारीफ़ ! तख्त और ताज, तलवार और तौहिनी से तब भी संभाला जाता था .तंग ताबूत मे तार तार हुई तस्वीर का क्या तुक है ?
इतिहास के अनुसार तो जोधाबाई से अकबर ने एक प्रकार से जबरन् शादी की थी। मजबूरन् राजपूतों को कन्या देनी पड़ी थी। जोधाबाई पर भी हरम में अनेक अत्याचार हुए थे। किन्तु इस फिल्म में जो प्रेमालाप दिखाया जा रहा है, वह निस्सन्देह कलंकित करनेवाला है, अतः इसका विरोध करना भारतीयों के लिए स्वाभाविक है।
मूगलो का महिमा मण्डन आश्चर्य जगाता है. कोई ब्लात्कारी कभी सच्चा प्रेमी नहीं हो सकता.
नाम इतना ही गैर जरूरी है तो औरंगजैब-जोधा बना देते.
वाह रे जातीय स्वाभिमान। ये कैसा जातीय स्वाभिमान है जो अपने भौतिक सुखों के लिए अपनी बहु-बेटियों को बेचे जाने पर तो आहत नहीं होता,
और बेटियों को दूध पीती करने (ताजा जन्मी कन्या शिशु को दूध में डुबो कर मारने) में भी जो आहत नहीं होता...
us raja ne pure rajputo ka sar jhukadia
us waqat to rajputo me beti ke janam ke bad use nal, nak mooh dabakar marne ki pratha thi, to ladki dekar rajpat pana koi nai bat nahi thi!
us waqat to rajputo me beti ke janam ke bad use nal, nak mooh dabakar marne ki pratha thi, to ladki dekar rajpat pana koi nai bat nahi thi!
इतिहास की सच्चाई का रंग तथ्यों पर नहीं बलिक अक्सर इस बात निर्भर करता है कि आपके चश्मे का शीशा किस रंग का है.
मुर्ख इतिहास तो यही कहता है कि जयपुर के राजा भारमल की बेटी का विवाह मुगल शासक अकबर के साथ हुआ था किंतु सच कुछ और ही है...!
वस्तुत: न तो जोधाबाई का विवाह अकबर के साथ कराया गया था और न ही विदाई के समय जोधाबाई को दिल्ली ही भेजा गया था.
अब प्रश्न उठता है कि फिर जोधाबाई के नाम पर किस युवती से अकबर का विवाह रचाया गया था?
अकबर का विवाह जोधाबाई के नाम पर दीवान वीरमल की बेटी पानबाई के साथ रचाया गया था. दीवान वीरमल का पिता खाजूखाँ अकबर की सेना का मुखिया था. किसी बड़ी ग़लती के कारण अकबर ने खाजूखाँ को जेल में डालकर खोड़ाबेड़ी पहना दी और फाँसी का हुक्म दिया. मौका पाकर खाजूखाँ खोड़ाबेड़ी तोड़ जेल से भाग गया और सपरिवार जयपुर आ पगड़ी धारणकर शाह बन गया. खाजूखाँ का बेटा वीरमल बड़ा ही तेज और होनहार था, सो दीवान बना लिया गया. यह भेद बहुत कम लोगों को ही ज्ञात था.!
दीवान वीरमल का विवाह दीवालबाई के साथ हुआ था. पानबाई वीरमल और दीवालबाई की पुत्री थी. पानबाई और जोधाबाई हम उम्र व दिखने में दोनों एक जैसी थी. इस प्रकरण में मेड़ता के राव दूदा राजा मानसिंह के पूरे सहयोगी और परामर्शक रहे. राव दूदा के परामर्श से जोधाबाई को जोधपुर भेज दिया गया. इसके साथ हिम्मत सिंह और उसकी पत्नी मूलीबाई को जोधाबाई के धर्म के पिता-माता बनाकर भेजा गया, परन्तु भेद खुल जाने के डर से दूदा इन्हें मेड़ता ले गया, और वहाँ से ठिकानापति बनाकर कुड़की भेज दिया. जोधाबाई का नाम जगत कुंवर कर दिया गया और राव दूदा ने उससे अपने पुत्र का विवाह रचा दिया. इस प्रकार जयपुर के राजा भारमल की बेटी जोधाबाई उर्फ जगत कुंवर का विवाह तो मेड़ता के राव दूदा के बेटे रतन सिंह के साथ हुआ था. विवाह के एक वर्ष बाद जगत कुंवर ने एक बालिका को जन्म दिया. यही बालिका मीराबाई थी.
इधर विवाह के बाद अकबर ने कई बार जोधाबाई (पानबाई) को कहा कि वह मानसिंह को शीघ्र दिल्ली बुला ले. पहले तो पानबाई सुनी अनसुनी करती रही परन्तु जब अकबर बहुत परेशान करने लगा तो पानबाई ने मानसिंह के पास समाचार भेजा कि वें शीघ्र दिल्ली चले आये नहीं तो वह सारा भेद खोल देगी. ऐसी स्थिति में मानसिंह क्या करते, उन्हें न चाहते हुए भी मजबूर होकर दिल्ली जाना पड़ा.
अकबर व पानबाई उर्फ जोधाबाई दम्पति की संतान सलीम हुए, जिसे इतिहास जहाँगीर के नाम से जनता है
Dear Bhuwan
Agar kisi naam se koi fark nahi padta ya kisi dasi putri ka kanyadan ek rajput dwara karne per bina tathye jane ya jankari ke abhav me banaye gaye sireal me banane wale ki ma beti ya apki ma beti ka naam kiyon nahi rakh dete.
Mazak hai saloon kuch bi likh do,
kuch bhi bana do.
Jai Rajput
Jai Rajputana.
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