सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब में सिखों को अल्पसंख्यक मानने से इंकार किया है। देश की सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि पंजाब में सिख 'नॉन डोमिनेंट' (प्रभावहीन) वर्ग है। न्यायालय का कहना है कि ऐसी कोई गुंजाइश नहीं दिखती कि पंजाब में कोई ऐसी सरकार बने, जिससे सिखों के पंथिक अस्तित्व पर कोई खतरा पैदा हो। यह अलग बात है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) और पंजाब सरकार ने सिखों को अल्पसंख्यक प्रमाणित करने के लिए अपने हिसाब से सिख सम्प्रदाय की परिभाषा गढ़नी शुरू कर दी है। इस परिभाषा के हिसाब से पंजाब के क़रीब 1.65 करोड़ मतदाताओं में केवल 54 लाख सिख हैं, इसलिए सिख पंजाब में अल्पसंख्यक हैं। लेकिन सवाल तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी संख्या को लेकर कोई बहस छेड़ी ही नहीं है।
'अल्पसंख्यक' शब्द पर आजादी के बाद से बहस होती रही है। संविधान सभा में भी इस पर ख़ासी बहस हुई थी और अब भी लोकसभा और विधानसभाओं में इस पर बहस होती रहती है। लेकिन पंजाब में सिखों के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुप्रीम कोर्ट की राय ने इस बहस का एक नया ही आयाम खोल दिया है। संविधान में भी 'अल्पसंख्यक'की अवधारणा केवल इसी आधार पर रखी गई थी कि केवल कम संख्या में होने के कारण किसी के जातीय, भाषाई या मजहबी पहचान पर खतरा नहीं होना चाहिए। लेकिन यहां संख्या तो केवल कारण है, ध्येय है वर्ग विशेष की अस्मिता और उसके अस्तित्व की रक्षा। आज़ादी से पहले भारत में करीब 33 करोड़ हिन्दुस्थानियों के मुकाबले 80 लाख (आंकड़े मोटे अनुमान पर आधारित) अंग्रेज थे। तो क्या अंग्रेजों को अल्पसंख्यकों का दर्जा दिया जाना चाहिए था? बिल्कुल नहीं, क्योंकि वो शासक थे। समाज को उनसे नहीं, बल्कि उनसे समाज को खतरा था। दूसरी जातियों और वर्गों के तौर पर इस उदाहरण का विस्तार भी किया जा सकता है, लेकिन फिर मैं उस विषय से भटक जाउंगा, जो मैंने शीर्षक के तौर पर छेड़ा है।
संवैधानिक तौर पर मजहबी अल्पसंख्यकों के जितना ही ध्यान भाषाई अल्पसंख्यकों की अस्मिता पर भी दिया गया है। फिर अगर प्रभावशालिता के लिहाज से देखें, तो क्या हिंदीभाषी इस देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक नहीं हैं। किसी भी संस्थान में हिंदी बोलने वाला वर्ग सबसे निरीह और उपेक्षित होता है। किसी भी द्विभाषी मीडिया ग्रुप में हिंदी माध्यम से जुड़ा पत्रकार हमेशा दूसरे दर्ज़े का दंश झेलता है। किसी भी सरकारी कार्यालय में हिंदी में आवेदन लिखने वाला या हिंदी में अपनी बात कहने वाला हाशिए पर खड़ा होता है। हिंदी भाषी प्रदेशों के मां-बाप का सबसे बड़ा सपना है कि उनका बच्चा अमेरिकी तरीक़े (एक्सेंट) से धाराप्रवाह अंग्रेजी बोले। हिंदी भाषी क्षेत्र के सरकारी हिंदी स्कूलों से पढ़े किसी भी छात्र को कॅरियर के मैदान में कूदते ही हिंदी पर अपनी मज़बूत पकड़ जीवन की सबसे बड़ी कमजोरी लगने लगती है। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश (इन राज्यों को एक साथ पुकारने के लिए बीमारु शब्द का भी इजाद किया गया है) के विद्यार्थियों से मिलिए। विज्ञान, गणित, इतिहास और दूसरे विषयों में शानदार प्रदर्शन के बावजूद ये मेधावी (हाइली इंटेलीजेंट) छात्र दिल्ली, मुंबई के मैकडोनाल्ड्स या केएफसी की काउंटर पर ऑर्डर लेने वाले भाई साहब के सामने सहमे खड़े रहते हैं। इसलिए कि भाई ने अगर अंग्रेजी में ऑर्डर पूछ लिया, तो क्या होगा।
अगर ये उदाहरण अल्पसंख्यक मनोविज्ञान का हिस्सा नहीं हैं, तो इस शब्द को खत्म कर दिया जाना ही बेहतर है। तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, मराठी, उड़िया, बंगाली जैसी भाषाओं के लिए खून बहाने की कसमें खाने वाले दलों और वर्गों की भीड़ लगी है, लेकिन हिंदी से रोजी-रोटी कमाने वाले लोग भी पहली फुर्सत में अंग्रेजी के पीछे दौड़ लगाने में नहीं चूक रहे। हिंदी पर सही मायनों में खतरा है। खतरा भाषा के तौर पर नहीं, संख्या के तौर पर नहीं, असर के तौर पर है, छवि के तौर पर है, डॉमिनेंस के तौर पर है। इसलिए क्या हिंदीभाषियों को अल्पसंख्यक का दर्ज़ा नहीं मिलना चाहिए?
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1 टिप्पणी:
पंजाब में ही क्यों। मेट्रो (महानगर शब्द भी पिछड़े जमाने का हो गया) में भी लगे हाथ यही दर्जा दिलवा दीजिए ना!
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