बुधवार, 17 जून 2009

भाजपाई हार के चीथड़े बीनने की एक और कोशिश - 1

15वीं लोकसभा चुनाव के परिणामों आए ठीक एक महीना बीत गया है। नतीजों का विश्लेषण अब भी जारी है। कुछ विश्लेषक राहुल गांधी के युवा नेतृत्व की जीत करार दे रहे हैं और कुछ आडवाणी के थके-बूढ़े नेतृत्व की हार। कुछ ने इसे विकासपरक राजनीति के एक नए दौर का आग़ाज़ क़रार दिया है, तो कुछ ने हिंदुत्ववादी राजनीति का अंत।

कुछ विद्वान इसे क्षेत्रीय राजनीति के अंत की शुरुआत बता रहे हैं, कुछ ने दो दलीय राजनीति के युग का प्रारंभ घोषित कर दिया है और कुछ आत्ममोहित अति उत्साही बंधुओं ने इसे भारतीय जनता पार्टी के ताबूत में आखिरी कील साबित कर दिया है। देश के एक जागरूक नागरिक और सक्रिय पत्रकार होने के नाते मैं भी पिछले 1 महीने से इन तमाम विश्लेषणों और मतों को पढ़ता रहा हूं, सोचता रहा हूं।

अगर यह केवल राहुल गांधी के युवा नेतृत्व की जीत है, तो उड़ीसा में युवा नवीन पटनायक की ऐतिहासिक जीत का क्या राज है? यदि यह केवल बूढ़े और थके आडवाणी का हार है, तो बूढ़े येदियुरप्पा के कर्नाटक में मिली भाजपा की जीत को क्या कहा जाएगा? अगर यह विकासपरक राजनीति की जीत है, तो फिर अपने आप में यह साफ है कि यह कोई राष्ट्रीय जनादेश नहीं है, बल्कि राज्यों के जनादेशों का जोड़ है।

अगर यह हिंदुत्ववादी राजनीति के अंत की शुरुआत है, तो पिछले साल भर में हुए नौ विधानसभा चुनावों में से छह में भाजपा को मिली जीत की व्याख्या कैसे होगी? अगर यह क्षेत्रीय राजनीति का अंत है, तो चुनाव की पूर्व संध्या पर श्रीलंका में अलग तमिल देश के समर्थन की होड़ और एक परिवार में सिमटे द्रमुक को मिली भारी जीत को कैसे समझा जाए?

इसलिए मुझे लगता है कि यह जनादेश, ये चुनाव परिणाम इनमें से कुछ भी नहीं हैं, जो हमें अब तक बताया जा रहा है। मेरा साफ मत है कि यह परिणाम देश में एक सक्षम, समर्थ विपक्षी दल के अभाव का नतीजा है। क्यों? क्योंकि आप खुद याद कर देखिए। चुनाव परिणाम आने और उसके पहले के लगभग 4-5 महीने में कौन से मुद्दों ने आपके विचार को मथा है। किन मुद्दों ने एक मतदाता के तौर पर आपको झकझोरा है? आप जब मतदान केंद्र पर गए, उस समय आपके दिमाग में क्या मुद्दे थे? मैं जब आज इन्हीं सवालों पर विचार करता हूं, तो मन वितृष्णा से भर जाता है।

वितृष्णा इस देश की उस विपक्षी पार्टी के लिए, जिसे एक मजबूत प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने का जनादेश मिला था। पिछले पांच साल में यूपीए की सरकार आतंकवादी घटनाओं को रोक पाने में पूरी तरह विफल रही, लेकिन चुनाव की पूर्व संध्या पर यह तर्क दिया गया कि आडवाणी के गृहमंत्री रहते एक आतंकवादी को अफगानिस्तार ले जाकर सी ऑफ किया गया था। यानी क्योंकि वाजपेयी की सरकार आतंकवाद के खिलाफ घुटने टेकने में डॉक्टरेट है, इसलिए को भी इसमें पीएचडी करने का पूरा अधिकार है।

पिछले पांच साल में आर्थिक मोर्चे पर सरकार का योगदान शून्य रहा, लेकिन तर्क यह दिया गया कि वाम मोर्चे ने कुछ करने ही नहीं दिया। विपक्ष ने यह सवाल नहीं उठाया कि जिस तरह मनमोहन सिंह ने परमाणु करार के मुद्दे पर जुआ पटक दिया, उसी तरह उन्हें देश हित के लिए जरूरी आर्थिक सुधारों के लिए सत्ता छोड़ने की धमकी देने का साहस क्यों नहीं किया?

नरेगा जैसे सामाजिक कार्यक्रमों से निश्चत तौर पर आम ग्रामीण जनता को अपेक्षाकृत काफी फायदा हुआ, लेकिन उसमें चल रहे भ्रष्टाचार और वादे से काफी कम कामकाजी दिन काम देने जैसी विसंगतियों को देश के सामने लाना क्या एक सशक्त विपक्ष का काम नहीं था? लेकिन महत्वाकांक्षी सत्तालोभियों से भरी भ्रष्ट भाजपा ने लगभग तमाम घेरे जा सकने वाले मुद्दों पर कांग्रेस को वाकओवर दे दिया।

(अगले खंड में हिंदू राष्ट्रवाद के मसले पर भारतीय जनता पार्टी की रणनीतियों का विश्लेषण)

2 टिप्‍पणियां:

विधुल्लता ने कहा…

अगर यह केवल राहुल गांधी के युवा नेतृत्व की जीत है, तो उड़ीसा में युवा नवीन पटनायक की ऐतिहासिक जीत का क्या राज है? यदि यह केवल बूढ़े और थके आडवाणी का हार है, तो बूढ़े येदियुरप्पा के कर्नाटक में मिली भाजपा की जीत को क्या कहा जाएगा? अगर यह विकासपरक राजनीति की जीत है, तो फिर अपने आप में यह साफ है कि यह कोई राष्ट्रीय जनादेश नहीं है, बल्कि राज्यों के जनादेशों का जोड़ है।
aapki is baat se sahmat hoon

Rakesh Singh - राकेश सिंह ने कहा…

बढिया विश्लेषण किया है |