शनिवार, 7 अगस्त 2010

कश्मीर को बचाना है तो यही एक रास्ता है

आज ज़ी न्यूज के क्राइम रिपोर्टर कार्यक्रम में तीन घटनाएं दिखाई गईं। पहली घटना में, हरिद्वार में बलात्कार के आरोपी दो वीडियो डायरेक्टरों को दारोगा जी थाने के बाहर खुलेआम पीट रहे थे। बाकी पुलिस वाले गंडों की तरह उन्हें घेर कर खड़े थे और सरगना अपनी गुंडागर्दी दिखा रहा था। दूसरी में, दिल्ली पुलिस ने एक पटरी कारोबारी को अतिक्रमण हटाने का विरोध करने के आरोप में हिरासत में लिया और दो घंटे बाद कारोबारी के घर वालों को उसकी लाश मिल गई। और तीसरी घटना, बेंगलुरु में एक पार्टी में हंगामा करने के आरोप में 16 छात्रों को थाने में लाने के बाद दारोगा ने उनकी पिटाई की और छोड़ने के लिए घूस मांगा। 15 हज़ार रुपए से शुरू की गई मांग आख़िरकार 300 रुपए प्रति छात्र पर आकर टिकी और वसूली के बाद छात्रों को छोड़ा गया। किसी एक छात्र ने मोबाइल फोन से इस घटना की वीडियो फ़िल्म बना ली और स्क्रीन पर नोट गिनता दारोगा साफ दिख रहा था। घटना का विश्लेषण कैसे किया जाएगा? पुलिस की दरिंदगी, ख़ाकी का रौब, पुलिसिया गुंडागर्दी, पुलिस की ब्रिटिश ज़माने की कार्यपद्धति इत्यादि-इत्यादि।

अब एक प्रयोग कीजिए। घटनाएं वही रहने देते हैं, जगह बदल देते हैं। पहली घटना हरिद्वार की जगह कश्मीर के पुलवामा की है, दूसरी श्रीनगर की और तीसरी नौशेरा की। अब देखिए, विश्लेषण के विशेषण बदल जाएंगे। भारतीय पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों की दरिंदगी, भारतीय ख़ाकी का रौब, भारत की गुंडागर्दी, भारतीय बलों की कार्यपद्धति इत्यादि-इत्यादि। जिस कश्मीर में चंद वर्षों पहले आतंकवादियों की धमकियों के बावजूद लाखों की संख्या में सड़कों पर निकल कर लोगों ने लोकतांत्रिक ढंग से सरकार चुनने के लिए वोट दिया, उसी कश्मीर में आज सड़कों पर खुले-आम आज़ादी के नारे लग रहे हैं। जो खबरें आ रही हैं, उनसे तो यही लग रहा है कि इन नारों को पाकिस्तानी भोंपू की आवाज़ कह कर ख़ारिज कर देना सही नहीं होगा। इन नारों में बच्चों की, औरतों की और बूढ़े-बुज़ुर्गों की आवाज़ें भी शामिल हैं। यह अलग बात है कि ये सारी खबरें बचपन से पाकिस्तानी प्रोपेगेंडे और आतंकवाद समर्थक मस्जिदों से आने वाले भारत विरोधी फतवों के बीच पले-बढ़े कश्मीरी रिपोर्टरों द्वारा फाइल की जा रही हैं, लेकिन फिर भी, बिना किसी विकल्प के मैं इन्हें सही मान लेता हूं। तो कुल मिलाकर तस्वीर यह बन रही है कि कश्मीर आज़ाद होना चाहता है। भारत एक औपनिवेशिक ताक़त है, जिसने कश्मीर पर कब्ज़ा कर रखा है और जिसके 7 लाख सैनिक चंगेज खां के सैनिकों की तरह हर कश्मीरी बच्चे को बंदूकों के संगीनों पर उछाल रहे हैं और हर कश्मीरी महिला की आबरू लूट रहे हैं। विश्वास मानिए, अपने देश में (कश्मीर के अलावा) इस तस्वीर को सच मानने वालों की एक पूरी जमात है। लेकिन जो लोग ऐसा मानते हैं, उनके लिए मैं अपना लेख यह कहते हुए यहीं समाप्त करता हूं कि उन्हें एक बार कम से कम हफ्ते भर के लिए श्रीनगर, और हो सके तो, कश्मीर के कस्बों में घूम आएं।

जिन लोगों को लगता है कि कश्मीर भारत का उसी तरह हिस्सा है, जैसा कि उनके अपने धड़ पर जमा सिर, वे मेरे साथ आगे चल सकते हैं। वहां वर्षों से हम देख रहे हैं, सुन रहे हैं कि कश्मीर में होने वाले हर भू-स्खलन, आने वाली हर बाढ़ और होने वाले हर हिमपात में देश के कोने-कोने से वहां पोस्टेड सैनिक कश्मीरियों की मदद करते हैं। हर वक्त किसी भी दिशा से होने वाले संभावित हमले का जोखिम झेलते हुए चौबीसों घंटे गश्त लगाते हैं। और जनता के प्रति दोस्ती के सैकड़ों व्यवहार करने के बाद भी जब हजारों की संख्या में लोग उनपर पत्थर फेंकते हैं, तो उन्हें संयम रखना होता है। इसके विपरीत आतंकवादियों को चाहे भय से या लालच से, वहां के घरों के पनाह मिलती है। वे घरों में रुकते हैं, रात को खाना खाते हैं, घर की लड़कियों का बलात्कार करते हैं और सुबह चले जाते हैं। उनके खिलाफ़ कोई चूं नहीं करता। किसी भी किसी एक पुलिस वाले की निजी वहशियत और लालच, पूरी भारत सरकार की साज़िश क़रार दी जाती है।

पहले मुझे भी लगता था कि कश्मीर की समस्या का समाधान वहां की जनता के दिलों को जीत कर किया जा सकता है। लेकिन पिछले कुछ समय की घटनाओं ने इस तस्वीर का एक बिलकुल नया ही आयाम सामने आया है। पिछले साल अमरनाथ के यात्रियों के लिए वहां की सरकार ने कुछ सुविधाएं घोषित की थी। लेकिन जिस तरह वहां की जनता ने व्यापक पैमाने पर उन सुविधाओं का विरोध किया, उससे राज्य के अलगाववादियों का एजेंडा साफ हो गया। वैसे तो पाकिस्तान के रोडमैप पर चलने वाले आतंकवादियों का एजेंडा काफी सालों पहले उसी समय साफ हो गया था, जब चुन-चुन कर कश्मीरी हिंदुओं को घाटी के बाहर खदेड़ दिया गया था।

लेकिन उसके बाद से कांग्रेसियों, फारूक़ अब्दुल्ला सरीखे नेताओं और यासीन मलिक जैसे कथित उदारवादी अलगाववादियों के कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के समर्थन में दिए गए भ्रामक बयानों से यह ग़लतफ़हमी बनी रही कि यह एजेंडा कश्मीरी मुसलमानों का नहीं, मुट्ठी भर आतंकवादियों का है। पर, अमरनाथ यात्रियों को दी गई सुविधाओं के खिलाफ उठे आंदोलन ने यह ग़लतफ़हमी दूर कर दी। यह दरअसल उसी सत्य का प्रतिस्थापन था कि मुसलमान तभी तक सेकुलर रहता है, जब तक वह अल्पसंख्यक होता है।

जिस देश में हज पर जाने वाले हर मुसलमान को 40 हजार रुपए की सब्सिडी (2009-10 में हज सब्सिडी के लिए सरकारी खजाने से 941 करोड़ रुपए खर्च किए गए) दी जाती है, वहां देश के हिस्से में तीर्थ जाने वाले हिंदुओं को सुविधा देने की सरकारी कोशिश स्थानीय मुसलमानों को इतनी नागवार क्यों गुजरनी चाहिए? वह भी तब जब अमरनाथ की यात्रा पर जाने वाले हर हिंदू को इसके लिए अतिरिक्त टैक्स देना होता है। अमरनाथ जाने वाले यात्रियों के लिए सरकार ने केवल 99 एकड़ (0.4 वर्ग किलोमीटर) ज़मीन अधिगृहित की थी। वो भी इस शर्त के साथ कि उस पर केवल यात्रा के सीजन में अस्थाई निर्माण किए जाएंगे।

लेकिन कश्मीर के मुसलमानों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ। इसके विरोध में 5 लाख मुसलमानों का जुलूस निकला, जो कश्मीर के इतिहास में किसी एक दिन में हुआ अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन है। यह है कश्मीरी मुसलमानों का सेकुलरिज़्म। अक्सर कहा जाता है कि अमरनाथ के लिए दी जाने वाली खच्चर या पालकी सेवा तो मुसलमान ही देते हैं या कि अमरनाथ के शिवलिंग की व्यवस्था एक मुसलमान परिवार करता है। यानी जब कमाई और चढ़ावे से फायदा लेने की बात आती है तो कश्मीरी मुसलमान सेकुलर हो जाता है, लेकिन जैसे ही श्रद्धालुओं को चंद सुविधाएं देने की बात आती है, तो वे सड़कों पर उतर आते हैं। वाह रे सेकुलरिज़्म।

कश्मीरी मुसलमानों ने साबित कर दिया है कि भारत उनके लिए केवल सुविधाएं और धन लूटने का ज़रिया भर है। आतंकवाद एक ऐसा कमाऊ पूत है, जिसका भय दिखा-दिखा कर कश्मीर के कई सियासी परिवार करोड़पति हो चुके हैं। कश्मीर में केवल सेना पर हर साल सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं और लाखों सैनिक अपने परिवारों से दूर हर समय जानलेवा हमले के साए में नारकीय जीवन जी रहे हैं। कश्मीर को भारत से जोड़े रखने के लिए पहली ग़लतफ़हमी तो यह ख़त्म करनी होगी कि कश्मीर, कश्मीरियों का है। इसलिए कि कश्मीरी की परिभाषा क्या है? क्या लाखों की संख्या में कश्मीरी से खदेड़े गए हिंदू कश्मीरी नहीं हैं? अगर हैं, तो दशकों से वे कश्मीर से बाहर क्यों हैं?

हालिया पत्थरबाज़ी और प्रदर्शनों में भी सोपोर में दो कश्मीरी हिंदुओं के घरों को जलाने की घटना सामने आई। अगर कश्मीर, कश्मीरियों का है तो सोपोर में हिंदुओं के घर क्यों जलाए गए। इसलिए, कि चाहे कम्युनिस्ट यह न मानें और कांग्रेसियों को यह मानने में जबान हलक में अटकती हो, लेकिन यही सच्चाई है कि कश्मीर में मौजूद हर हिंदू को वहां भारत की उपस्थिति का सूचक माना जाता है। अगर भारत कश्मीर को बचाना चाहता है, तो इस संकेत से इसकी दवा ढूंढनी होगी। कश्मीर, कश्मीरियों का नहीं भारत का है। जिसे भारत में नहीं रहना, वह यहां से जा सकता है।

कश्मीर को बचाना है तो एकमात्र उपाय है वहां का जनसंख्या संतुलन बदलना। मीडिया को वहां से बाहर निकालिए, दुनिया को चिल्लाने दीजिए। श्रीलंका ने दुनिया को दिखा दिया है कि अपनी घरेलू समस्याओं को सुलझाने के लिए केवल इच्छाशक्ति की ज़रूरत होती है, अमेरिका या यूरोप के समर्थन की नहीं। दो चरणों में कार्यक्रम बनाइए। पहले चरण में बड़े-बड़े शहर बसाइए और वहां घरों से निकाले गए कश्मीरी हिंदुओं को ससम्मान स्थापित कीजिए। दूसरे चरण में सेवानिवृत्त सैनिकों और अर्धसैनिक बलों की बस्तियां बसाइए। बस्तियां सुनते ही इजरायली बू आती है। लेकिन दोनों मामलों में कोई समानता नहीं है, इसलिए इस पर रक्षात्मक होने की कोई ज़रूरत नहीं है। जब तक कश्मीर में जनसंख्या का अनुपात 60 मुसलमानों पर कम से कम 40 हिंदुओं का न हो जाए, कश्मीर को भारत से जोड़े रखने के लिए इसी तरह बेहिसाब मेहनत, धन और जानें खर्च होती रहेंगीं।

8 टिप्‍पणियां:

Rakesh Singh - राकेश सिंह ने कहा…

कसा हुआ और सटीक विश्लेषण !

भारत के सन्दर्भ में सेकुलरिस्म एक हथियार भर है जिसे बहुसंख्यक (हिन्दू, सिक्ख ...) के खिलाफ हमेशा इस्तेमाल किया जा रहा है |

आधुनिक शिक्षित भले ही इसे ना माने पर एक सर्वभोम सत्य है - "इस्लामी ताकतें जहाँ कहीं मजबूत हुई हैं वहां किसी अन्य धर्म/सम्प्रदाय के लिए कोई जगह नहीं" | विश्व के किसी भी इस्लामी देश (इरान, ईराक, सौदी, पाकिस्तान ....) को देखिये वहां पे किसी अन्य धर्मावलम्बियों कि क्या दुर्दशा है ! मूल करान तो यही है कि जहाँ कहीं इस्लाम के मानने वालों की तादात बढ़ेगी वो राज्य , चाहे वो कश्मीर हो या केरल.... , भारत से बगावत करती रहेगी |

भुवन जी आपने जो समाधान सुझाया है वही एक मात्र अंतिम विकल्प है कश्मीर को बचाने का | चीन ने इस्लामी आतंकवाद से निपटने के लिए उन्गर पदेश में यही निति अपनाई है और ये कारगर भी साबित हो रही है | पर हमारी सरकार वोट बैंक के लिए देश को टुकड़ों में बाँट रही है |

सौरभ आत्रेय ने कहा…

न केवल कश्मीर वरन इस देश में सभी समस्या जानबूझकर बनायीं गयी है इन गुण्डे राजनीतिज्ञों द्वारा अन्यथा ये समस्या कुछ भी नहीं हैं यदि सरकार देशभक्त और द्रहड़-संकल्प हो. आप स्वयं सोच सकते हैं जो सरकार आतन्कवादियों को सजा देने की बजाय उनकी सुविधा आदि पर धन लुटाती हो उससे हम लोग क्या आशा कर सकते हैं, ये तो गुण्डागर्दी की सीमापार हो चुकी है.

vedvyathit ने कहा…

amr nath ki yatra se laut kr aaye mere ek mitr ne btaya ki kshmir me lga ki jaise hmapne hi desh me bndhk bn huye hain
vhan ki seema me ghuste hi mansik prtadna ka daur shuroo huaa aur vh vapish aane tk rha kshmir me ghuste hi pulis ne phle to kha yatra khtm ho gai hai aadi 2 fir sthan 2 pr pulis dwara rishvt ki mang aur kdm 2 pr hy ka mahaul yatriyon ki durdhsha ksrkar ka koi intjam nhi
ek baat aur jo midiya aatnki ko khraunch aane pr bhi aasman sir pr utha leta hai use n to yatriyon ki durdsha dikhai deti hai n hi srkar ki bdintjami
aur dilli srkar ka rvaiya to bs poochho mt
shukr hai vhan hmari sena hr mushkil halat me dti hai
sena ne hi yatriyon ki mdd ki to log swabhavik armi jindabad ke nare lgane se khud ko nhi rok paye
bhartiy sena ko nmn hai
dr. ved vyathit

संजय बेंगाणी ने कहा…

भारत को बचाए रखने के लिए हर क्षेत्र को हिन्दू बहुल रखना होगा. पूर्वोत्तर की ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए.

nitin tyagi ने कहा…

sahi hai par ye sab karega kon???

भुवन भास्कर ने कहा…

नितिन भाई, ये तो लाख टके का सवाल है। लेकिन राम रुपी राष्ट्र के कार्य में हमसब गिलहरियां हैं। अकेले पुल बना लेंगे, यह दावा करना तो दूर, सपना भी नहीं देख सकते। अलबतत्ता अपनी ओर से पुल के निर्माण में कंकड़ तो डाल ही सकते हैं। मैं वही कोशिश कर रहा हूं।

Jeet Bhargava ने कहा…

Really innovative & intelligent piece of writing. Please keep it up for sake of Bharat Mata.

Tilak Raj Relan ने कहा…

भुवन जी,कसा हुआ और सटीक विश्लेषण!
जब चुन-चुन कर कश्मीरी हिंदुओंको घाटी के बाहर खदेड़ दिया गया था। उसके बाद से कांग्रेसियों, फारूक़ अब्दुल्ला सरीखे नेताओं और यासीन मलिक जैसे कथित उदारवादी अलगाववादियों के कश्मीरी पंडितों की घरवापसी के समर्थन में दिए गए भ्रामक बयानों से यह ग़लतफ़हमी बनी रही कि यह एजेंडा कश्मीरी मुसलमानों का नहीं,मुट्ठीभर आतंकवादियों का है। पर,अमरनाथ यात्रियों को दी गई सुविधाओं के खिलाफ उठे आंदोलन ने यह ग़लतफ़हमी दूर कर दी। यह दरअसल उसी सत्य का प्रतिस्थापन था कि मुसलमान तभी तक सेकुलर रहता है,जब तक वह अल्पसंख्यक होता है। यानी जब कमाई और चढ़ावे से फायदा लेने की बात आती है तो कश्मीरी मुसलमान सेकुलर हो जाता है, लेकिन जैसे ही श्रद्धालुओं को चंद सुविधाएं देने की बात आती है, कश्मीरी मुसलमानों ने साबित कर दिया है कि भारत उनके लिए केवल सुविधाएं और धन लूटने का ज़रिया भर है। तो वे सड़कों पर उतर आते हैं।
कश्मीरी की परिभाषा क्या है? क्या लाखों की संख्या में कश्मीरी से खदेड़े गए हिंदू कश्मीरी नहीं हैं? अगर हैं, तो दशकों से वे कश्मीर से बाहर क्यों हैं?वाह रे सेकुलरिज़्म, अपनी घरेलू समस्याओं को सुलझाने के लिए केवल इच्छाशक्ति की ज़रूरत होती है,अमेरिका या यूरोप के समर्थन की नहीं ।