बाबा जी का कहना है कि क्योंकि प्रधानमंत्री 121 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि होता है, इसलिए उसे एक अफसरशाह (यानी लोकपाल) के प्रति जवाबदेह नहीं बनाया जा सकता है। मेरे मन में बाबा जी की भलमनसाहत पर दो सवाल उठ रहे हैं। पहला, क्या सचमुच अपने देश में प्रधानमंत्री पूरी जनसंख्या का प्रतिनिधि होता है? क्या गुजराल, देवेगौड़ा और जवाहरलाल नेहरू के बाद लगातार सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री बने रहने का रिकॉर्ड अपने नाम करने जा रहे मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जनता ने अपना प्रधानमंत्री चुना है?
निश्चित तौर पर नहीं चुना है, बल्कि मनमोहन सिंह को तो किसी संसदीय क्षेत्र की जनता तक ने नहीं चुना है। लेकिन इस तर्क के तमाम विरोधी हो सकते हैं, जो यह साबित कर देंगे कि यहां तक कि नेहरू, इंदिरा गांधी, वी पी सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी (जिनकी पार्टियों को वोट देने वाले वस्तुत: उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट करते थे) जैसे प्रधानमंत्री भी देश की जनता के कुल मत का 50 फीसदी तक नहीं पा सके थे। इसलिए इस सवाल को फिलहाल बहस के लिए ठंडे बस्ते में डाल देते हैं कि भारत का प्रधानमंत्री वास्तव में देश की जनता का कितना प्रतिनिधि होता है या नहीं।
अब दूसरा सवाल, क्या किसी को केवल इसीलिए लोकपाल के प्रति जवाबदेह नहीं होना चाहिए कि उसे जनता ने चुना है। तब तो एक थाना प्रभारी की उस क्षेत्र के सांसद या विधायक के सामने कानूनी तौर पर कोई हैसियत नहीं होना चाहिए। उसी तरह राज्य के लोकायुक्त को मुख्यमंत्री का चपरासी होना चाहिए और देश के मुख्य न्यायाधीश को प्रधानमंत्री का चारण होना चाहिए। प्रस्तावित लोकपाल को एक अफसरशाह बताना मूर्खता की हद है। इस लिहाज से तो मुख्य चुनाव आयुक्त भी एक अफसरशाह हैं और सेबी के प्रमुख और भारतीय रिज़र्व बैक के गवर्नर भी अफसरशाह हैं।
क्या बाबा रामदेव भूल गए कि अभी कुछ ही महीने पहले एक भ्रष्ट आरोपी को किस निर्लज्जता के साथ मुख्य सतर्कता आयुक्त की कुर्सी पर बैठाने के लिए हर संभव कोशिश की गई थी। और वह कोशिश और किसी ने नहीं, 121 करोड़ लोगों के प्रतिनिधि, घनघोर इमानदार डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने सिपहसालार पी चिदंबरम के साथ मिलकर की थी। हद तो यह कि पकड़े जाने पर सुप्रीम कोर्ट में उन्होंने सफेद झूठ यह कहा कि उन्हें थॉमस पर लंबित आरोपों की जानकारी ही नहीं थी, जबकि थॉमस के चयन के लिए हुई तीन सदस्यीय पैनल की बैठक में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने साफ तौर पर इस मुद्दे को उठाया था।
ख़ैर, लौटते हैं बाबा रामदेव के उसी तर्क की ओर। तो अगर 121 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि इमानदारी का पुतला होता है, तो 20 करोड़ लोगों के प्रतिनिधि रहे मुलायम यादव और मायावती चोर कैसे हो सकते हैं। तो उनके खिलाफ चलने वाले आय से ज्यादा संपत्ति बटोरने और ताज कॉरिडोर घोटाले का मामला भी तुरंत वापस लिया जाना चाहिए। 15 करोड़ लोगों के प्रतिनिधि रहे लालू पशुओं का चारा नहीं खा सकते और तमिलनाडु के कुछ करोड़ लोगों के प्रतिनिधि करुणानिधि का कुनबा 2जी की नीलामी में सैकड़ों करोड़ नहीं डकार सकता। फिर तो इस तर्क से हर सांसद, हर विधायक, हर पार्षद और वार्ड सदस्य और हर निर्वाचित प्रतिनिधि कानून के दायरे से बाहर होना चाहिए। क्या बेवकूफ़ी भरा तर्क है?
यहां मामला निर्वाचित प्रतिनिधियों के किसी एक अफरसशाह के प्रति जवाबदेह होने का नहीं हैं। मामला है उस निर्वाचित प्रतिनिधि के देश और संविधान के प्रति जवाबदेह होने का। चाहे वह लोकपाल हो, कोई न्यायाधीश हो या कोई भी नियामक- वह कोई व्यक्ति नहीं होता, बल्कि वह एक संस्था होता है, जिसमें संविधान की शक्तियां निहित होती हैं। रामदेव का यह तर्क ठीक है कि भ्रष्ट तो लोकपाल भी हो सकता है। तो उसके लिए ज़रूरी उपाय किए जाने चाहिए। संविधान निर्माताओं ने चेक्स एंड बैलेंसेज के जिस सिद्धांत पर जवाबदेहियों का निर्धारण किया था, उसमें किसी व्यक्ति और संस्था को अवध्य नहीं माना गया। इसीलिए कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका सबको एक-दूसरे पर अंकुश रखने के कुछ अधिकार दिए गए।
अब आज़ादी के छह दशकों बाद वे चेक्स एंड बैलेंसेज नाकाफी साबित हो रहे हैं। भ्रष्टाचार का ज़हरीला पानी नाक के ऊपर से बह रहा है और इसके लिए तत्काल कुछ किए जाने की ज़रूरत है। लोकपाल का प्रयोग कितना सफल होगा, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन इसके अधिकारों को लेकर सरकार की ओर से जो चालबाजियां की जा रही हैं, वह अपने आप में इसके प्रभावी हो सकने का संकेत है।
यह समझने के लिए कोई वैज्ञानिक होना ज़रूरी नहीं है कि भ्रष्टाचार का मूल सत्ता और ताक़त है। जहां अधिकार और शक्तियां हैं, वहीं से भ्रष्टाचार का जन्म होता है। इसलिए इस पर सबसे क़रारा प्रहार भी सत्ता के शीर्ष से ही होना चाहिए। भूखों, नंगों और ज़िंदगी की जद्दोज़हद में पानी-पानी हो रहे लोगों पर तो कानून का डंडा चलाइए और विधायकों, सांसदों, मंत्रियों और सबके मुखिया प्रधानमंत्री को आरती दिखाइए। और फिर सपना देखिए एक भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन का। ऐसे सपने देखने वालों को अपनी सोच की दिशा सीधी करने के लिए सिर के बल खड़ा होने की ज़रूरत है, चाहे वह योग गुरू बाबा रामदेव ही क्यों न हों।
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4 टिप्पणियां:
बहुत सही कहा है भाई.
भुवन जी सहमत हूँ आपसे.
पर लोकपाल कमिटी में ऐसे-ऐसे लोगों का बोंल-बाला बढ़ गया है की अब लोकपाल से कुछ अच्छे की आशा रही नहीं. अब लोकपाल के सुदुप्योग से ज्यादा दुरूपयोग की चिंता हो रही है.
राकेश भाई, आतंकवादियों और अलगाववादियों से सहानुभूति रखने वाले स्वामी अग्निवेश और हिंदू विरोधी राजनीति के रसिक प्रशांत भूषण जैसों को लेकर आपकी चिंता स्वाभाविक है। लेकिन भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जनांदोलन की राह केवल इसलिए छोड़ना ठीक नहीं कि इसपर कुछ कुकुरमुत्ते भी उग आए हैं। इस पूरे आंदोलन के स्वरूप और दिशा को लेकर मैं भी बहुत आश्वस्त नहीं हूं, लेकिन इसे एक सकारात्मक शुरुआत मानते हुए अपने समर्थन में किसी तरह की कमी नहीं रखना चाहता।
बाबा रामदेव के प्रति पूर्ण श्रद्धा के बावजूद इन सब बातो से ऐसा लग रहा है कि बाबा भी शायद ही इस मोहिनी राजनीति से बच पायें। आपके विचारों से पूर्ण रूप से सहमती है।
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