नेता मतलब क्या? नेता का नाम सुनते ही हमारे ध्यान में एक ओर गांधी, नेहरू, पटेल, वाजपेयी, लालू जैसे नाम ध्यान में आते हैं, तो दूसरी ओर डी पी यादव, शहाबुद्दीन, तस्लीमुद्दीन, मुख्तार अंसारी जैसे चेहरे भी आंखों के सामने घूम जाते हैं। लेकिन क्या ये दोनों तरह के नेता, नेता ही हैं। चरित्र, देशभक्ति, संस्कार की बात छोड़ दें, तो भी नेता बनने के लिए जनता का विश्वास और प्रेम तो चाहिए ही होता है। नेता बनाए नहीं जाते, नेता उभरते हैं। महात्मा गांधी, बाबा आम्टे, नाना जी देशमुख, राजेन्द्र सिंह, मेधा पाटकर, अरुणा राय जैसे सैकड़ों नेता हैं, जो कभी सांसद, विधायक या मंत्री नहीं बने, कोई
चुनाव नहीं जीते, लेकिन जनता का एक बड़ा एक वर्ग इन पर जान छिड़कता है। मतलब यह कि नेता जनता चुनती है। केवल मतपत्रों के जरिए नहीं, बल्कि दिल से। डी पी यादव, शहाबुद्दीन, तस्लीमुद्दीन, मुख्तार अंसारी जैसे जनप्रतिनिधि भले ही विधायिका का हिस्सा बन गए हों, लेकिन ये नेता नहीं हो सकते। क्योंकि इनको समर्थन करने वाले लोगों के मन में भी इनके प्रति प्यार नहीं है, भरोसा और सम्मान नहीं है। या तो भय है या फिर संकुचित स्वार्थ। साफ है कि नेताओं में दो वर्ग है- एक सरकारी नेता तो दूसरा जननेता। हां, एक जननेता भी जरूर सरकारी हो सकता है।
दरअसल नेताओं को लेकर मेरे मन में ऐसा विश्लेषण एक टीवी कार्यक्रम को देखकर आया। देश के सबसे बड़े मीडिया समूहों में से एक ने कुछ महीनों पहले देश का नेतृत्व खोजने के लिए एक चयन प्रक्रिया चलाई थी। आज इस प्रक्रिया का अंत (फाइनल) हुआ एक चैनल पर प्रसारित हो रहा था। रोज अखबारों और दूसरी जगह आ रहे विज्ञापनों के कारण इस फाइनल के स्मृति से फिसलने की संभावना कम थी। नियत समय पर मैंने चैनल खोला और फाइनल देखा। डेढ़ घंटे तक चले सवाल-जवाब और दूसरे चरणों को पार कर आखिर में जनता राउंड हुआ। और आखिर में दो नायकों, गुजरात के देवांग और उत्तर प्रदेश के आर के मिश्रा में से मिश्रा जी देश के महानायक (कार्यक्रम के संचालक अनुपम खेर दोनों फाइनलिस्टों को इसी विशेषण से संबोधित कर रहे थे) चुने गए। एक बात साफ कर दूं कि मैं इस पूरी प्रक्रिया की आलोचना नहीं कर रहा। डेढ़ घंटे की प्रक्रिया में मुझे कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। मिश्रा जी बंगलुरु में अपना जमा-जमाया कॅरियर छोड़ कर उत्तर प्रदेश में अपने गांव लौट चुके हैं और समाज के प्रति अपनी स्वघोषित जिम्मेदारियों (समाज सेवा शब्द मुझे बहुत ओछा लगता है) को पूरा करने में लगे हुए हैं। देवांग वकालत कर रहे हैं और पूरे देश के युवाओं में नेतृत्व का गुण पैदा करने की महत्वाकांक्षा लेकर एक राष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थान चलाना चाहते हैं। पैनल में किरण बेदी और जावेद अख्तर जैसी हस्तियां थीं। कार्यक्रम के अलग-अलग स्तरों पर अमर सिंह, अरुण जेटली, अभिषेक मनु सिंघवी, दिग्विजय सिंह, रविशंकर प्रसाद ने देवांग और मिश्रा जी से सवाल पूछे। समाज क्षेत्र के प्रतिष्ठित कुछ और भी सम्मानित लोग थे, जिन्होंने दोनों से सवाल पूछे और जनता को समझने का मौका दिया कि कौन देश का नेता होने के योग्य है।
मिश्रा जी मुझे अच्छे आदमी लगे और देवांग भी एक ईमानदार प्रत्याशी थे। उनमें से किसी का भी चुना जाना मुझे अच्छा ही लगता। क्योंकि लालू, मुलायम, मायावती जैसे नेतृत्वों को देखने के बाद 'जिसने गरीबी, शोषण देखा हो, वही गरीबों, शोषितों का दर्द समझ सकता है' जैसे जुमले मुझे बहुत खोखले और घटिया लगने लगे हैं। मुझे ईमानदारी ने लगता है कि देश के नेतृत्व ने चाहे गरीबी महसूस न किया हो, चाहे कृषि चक्र की जानकारी न रखता हो, चाहे शोषण की चक्की में न पिसा हो, उसे पढ़ा-लिखा और संवेदनशील ज़रूर होना चाहिए। देवांग और मिश्रा जी, दोनों में ये गुण दिखे। लेकिन फिर भी, मेरे मन में एक सवाल लगातार उठ रहा है। क्या कॉरपोरेट आयोजनों से हम देश के नेता का चुनाव कर सकते हैं। चयन प्रक्रिया बहुत ईमानदार और प्रामाणिक रखकर हम पढ़ा-लिखा, संवेदनशील और समाजोन्मुख प्रशासनिक अधिकारी तो चुन सकते हैं, लेकिन क्या हम चयन प्रक्रिया से ऐसे नेता भी चुन सकते हैं? और अगर हमने ऐसे लोग चुन भी लिए हैं, तो क्या वास्तव में उन्हें नेता कह सकते हैं? क्योंकि नेता बनाए नहीं जाते, नेता तो उभरते हैं। आपको क्या लगता है?
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
सवाल ही नहीं उठता। इस तरह के प्रायोजित आयोजनों से नेता बनने वाले चमकते मंच नीचे उतरते ही फुस्स हो जाएंगे। हां, अच्छा होगा अगर कुछ नए लोग नेता बनने को भी किसी दूसरे करियर से बेहतर समझेंगे और पुराने नेता थोड़ा ज्यादा ईमानदारी दिखाएंगे।
एस एम् एस और इमेल के जरिये वोटिंग आधुनिक बूथ कैप्चरिंग ही है . बीस बीस वोट एक आदमी करता है . ये कथित बुद्धिजीवी एक तरफ़ बूथ कैप्चरिंग को अपराध माना फ़िर यहाँ बैठ के बूथ लूट लेने का आमंत्रण दे रहे हैं.
देश का सवाल है ,कोई नच बलिये ,वोयास ऑफ़ इंडिया ,और इंडियन आइडल थोड़े न है कि मुह उठाये चले आए .
ये सब मोबाइल और टीवी चैनल का चमचा है .और चमचों से सावधान रहने कि जरूरत है . बात मानने , सुनने का सवाल ही नही उठता .
एक टिप्पणी भेजें