दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में काम के लिए बाहर निकलने वाले लगभग 70 लाख लोग हर दिन ऑफिस आने-जाने में औसतन 2 से ढाई घंटे बरबाद करते हैं। यानी दिल्ली सहित पूरा एनसीआर रोज़ क़रीब पौने दो करोड़ मानव घंटे केवल सड़कों पर गंवा देता है। एसोचैम ने ये जानकारी देते हुए पूरे महीने में बरबाद हो रहे मानव घंटों का आंकड़ा 42 करोड़ तक बताया है। ये एक भयानक आंकड़ा है।
इस आंकड़े को अगर उस दौरान सड़क पर फंसी गाड़ियों से मिला दें तो बरबाद होने वाले ईंधन का गणित और भयानक होगा। इन आंकड़ों के पीछे एक ही कारण है ट्रैफिक जाम। एक ऐसी समस्या जिससे जितना निकलने की कोशिश की जा रही है, उतनी ही यह बढ़ती जा रही है। रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली में इस समय 60 लाख गाड़ियां हैं जो 2010 तक बढ़कर 75 लाख तक हो जाएंगी। पूरे एनसीआर को ले लें, तो 2010 तक इसके 1.6 करोड़ तक पहुंच जाने का अनुमान है। इतनी गाड़ियां जब ट्रैफिक जाम में फंसी हों तो उनसे निकल रहे ज़हरीले धुएं और जल रहे फालतू ईंधन की आप कल्पना ही कर सकते हैं।
ट्रैफिक जाम से होने वाले भारी नुकसान का इस पर्यावरणीय और व्यक्तिगत पहलू के अलावा एक बहुत महत्वपूर्ण सामाजिक पहलू भी है। 8-9 घंटे का ऑफिस टाइम, आधे से 1 घंटे का रास्ता और 2 से ढाई घंटे का जाम- यानी ढाई से साढ़े तीन घंटे की थकाऊ यात्रा सहित साढ़े दस से साढ़े बारह घंटे का व्यस्त जीवन। इसके बाद घर लौट रहे व्यक्ति से आप किस तरह की पारिवारिक और सामाजिक ज़िम्मेदारी उठाने की उम्मीद कर रहे हैं। ऐसा थका व्यक्ति क्या एक अच्छा पति, एक अच्छा पिता, एक अच्छा पुत्र हो सकता है। ऐसा व्यक्ति क्या अपनी सामाजिकता को जीवित रख सकता है। बहुत पहले किसी चर्चा के दौरान मेरे एक मित्र ने कहा था कि अगर मोहनदास करमचंद गांधी या भगत सिंह का जन्म दिल्ली, मुंबई के किसी फ्लैट में हुआ होता तो वे कभी वो नहीं बन पाते जिसके लिए आज हम उन्हें याद करते हैं। बहुत ही गहरा बयान है ये। सोचिएगा।
साफ है कि ट्रैफिक जाम की समस्या परिवहन संबंधी सामान्य समस्या नहीं है। ये हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को भी गहराई से प्रभावित कर रही है। लेकिन उपाय क्या है? इस पर काफी कुछ कहा जा चुका है और मेरे पास इस बारे में कोई बहुत मौलिक विचार नहीं हैं। बिना निजी गाड़ियों को हतोत्साहित किए ट्रैफिक की विकराल होती समस्या पर काबू करना मुमकिन नहीं है। कार लोन जैसी सुविधाओं को ख़त्म करना होगा और 5 लोगों की क्षमता वाली गाड़ी में कम से कम 3 लोगों का चलना अनिवार्य करना होगा। लेकिन सरकार को ऐसे कदम उठाने की नैतिक स्वीकृति तब तक नहीं मिल सकती जब तक कि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को विकसित देशों की तर्ज़ पर तैयार नहीं कर लिया जाए। दिल्ली जैसे शहर में परिवहन व्यवस्था ठीक करने की जो कवायद आज चल रही है, वो 15 साल पहले हो जानी चाहिए थी और आज 15 साल आगे की योजना बन रही होनी चाहिए थी। लेकिन ...। बढ़ती जनसंख्या और मेट्रो शहरों में पलायन तो देश की मूल समस्या है ही और जब तक हम इन पर काबू नहीं पा लेते, ट्रैफिक की समस्या का स्थाई समाधान मुश्किल है। फिर भी महानगरों की ट्रैफिक समस्या बारूद के जिस ढेर पर बैठी है, वहां इन मूल और जटिल समस्याओं के समाधान का अनंतकाल तक इंतज़ार नहीं किया जा सकता।
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4 टिप्पणियां:
दिल्ली के आंकड़े हैं लेकिन, ये देश के हर शहर और गांव-कस्बे से शहर बनने की प्रक्रिया में हर जगह का हाल है। और, दिल्ली, मुंबई में पैदा हुआ कोई नाम बताइए ना खोजकर जो, महान हो गया है। हां, मिलेनियर गिनती में बढ़ रहे हैं और ऐसे ट्रैफिक जाम की यातना भी।
समस्या को विस्तार करके देखने पर भयावह दिखता है .शीला दीक्षित कभी बोल गई थी तब अपने लोग पुरी दिल्ली को सर पर रखकर लिया था . हम न बिहार को ठीक से रख पाये न अब दिल्ली को . बिहार तरक्की करता तो दिल्ली का भार जरूर कम होता .और बिहार तरक्की तब ही पा सकता है ,जब बिहार मे बिहारी शरीक हो .समूचा बिहार दिल्ली आने को तैयार क्यों है ? कारण और कारक दोनों के गर्दन पकड़ने से बिहार को विकास और दिल्ली को राहत मिलने के आसार हैं .दिल्ली राहत का उपाय खोज लेगी पर बिहार ?
संजय भाई, आपने जो कहा है उस पर बहुत ही विस्तृत चर्चा करने की ज़रूरत है। बिल्कुल सही बात है कि बिहार का विकास बिहारियों से ही हो सकता है, लेकिन इस बात से सहमत होना मेरे लिए मुश्किल है कि दिल्ली की तमाम समस्याओं की जड़ में बिहारी ही हैं। अपनी जन्मभूमि से दूर 100-150 रुपये के लिए रिक्शा खींच रहा या मंडियों में सब्जी बेच रहा बिहारी खुद एक समस्या का मारा हुआ है।
ख़ैर, पता चला कि इस ब्लॉग पर आपको टिप्पणी पोस्ट करने में काफी परेशानी हो रही है। अगर आप इस परेशानी के बारे में विस्तार से बताएं तो ठीक करने की कोशिश ज़रूर करूंगा।
वैसे गपोड़बाजी में भी अरबों घंटे खर्च होते हैं।
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