अमेरिका में बराक ओबामा की जीत ऐतिहासिक है। दुनिया के सबसे 'सभ्य' और 'सुसंस्कृत' समाज ने एक अश्वेत को देश के राष्ट्रपति का पद देने में पूरे 219 साल लगा दिए। किसी महिला को वहां तक पहुंचने के लिए शायद और कुछ दशकों का इंतजार करना पड़े। लेकिन जैसा कि हम भारतीयों की आदत है, हमने अपने राष्ट्रीय राजनीतिक परिणामों की तुलना ओबामा की जीत से करनी शुरू कर दी है। वैसे भी भारत और अमेरिका के कूटनीतिज्ञ दोनों के बीच कुल मिलाकर यही एक तुलनात्मक विशेषण खोज पाए हैं कि एक जहां दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, वहीं दूसरा विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र है (यहां तुलना भी लोकतंत्र की पश्चिमी परिभाषा के आधार पर ही सही है)। तो स्वाभाविक है कि ओबामा की जीत को कुछ कथित राजनितिक विश्लेषक अमेरिकी राजनीति में 'दलित राजनीति के उभार' से जोड़ कर देखना शुरू करेंगे।
विश्लेषण में कोई बुराई नहीं है। ज्यादा से ज्यादा एंगल खोजिए, ज्यादा से ज्यादा सिद्धांत बनाइए। लेकिन बड़े-बड़े तमगे लगाने के बाद थोड़ी समझदारी भी तो दिखाइए। अमेरिकी नतीजों के तुरंत बाद सीएनएन-आईबीएन पर चल रही चर्चा में कुछ देर पहले योगेंद्र यादव को सुना। भरोसा नहीं होता कि इतना नामचीन और स्थापित विश्लेषक इतनी छिछली और बेवकूफाना बात कर सकता है। राजदीप के यह पूछने पर कि ओबामा की जीत के बाद अमेरिकियों की प्रतिक्रिया को भारतीय राजनीतिक संदर्भ में कैसे देखा जा सकता है, योगेन्द्र यादव जी ने कहा कि उत्तर प्रदेश में मायावती की जीत ऐसा ही ऐतिहासिक क्षण था और जब दिल्ली में बैठे अंग्रेजीदां लोग मायावती के जीतने पर गौरव जताना शुरू कर देंगे, तभी वह मानेंगे कि भारत में भी बदलाव आ गया है। यानी योगेंद्र यादव जी ने अपनी ओर से यह तय कर दिया कि कुछ सालों के राजनीतिक जीवन में सैकड़ों करोड़ की संपत्ति खड़ी करने करने वाली, अपने जन्मदिन पर करोड़ों रुपए के जेवरात का भौंडा सार्वजनिक प्रदर्शन करने वाली, अपनी प्रतिमा स्थापित कर व्यक्ति पूजा के नए मानक स्थापित करने वाली और हर प्रकार की राजनीतिक मर्यादा की धज्जियां
उड़ाने वाली मायावती के जीतने पर अगर मुझे गर्व नहीं होता, तो मैं भारत के सामाजिक बदलाव का सबसे बड़ा रोड़ा हूं।
आप में से जिस किसी ने भी जीत के बाद ओबामा के भाषण का टीवी पर प्रसारण देखा हो, वह मायावती और ओबामा की जीत के अंतर को समझ सकता है। ओबामा को सुनने वाली भीड़ में जितने अश्वेत अमेरिकी थे, उतने ही श्वेत भी थे। सामाजिक तौर पर लगभग बराबरी और सम्मान का माहौल पा चुक अश्वेत श्रोताओं में कोई आक्रामकता नहीं थी, बल्कि आंखों में आंसू थे। निश्चित तौर पर ये आंसू घृणा के नहीं हो सकते। जो श्वेत श्रोता थे, उनकी आंखों में भी बदलाव की खुशी और चमक थी। ओबामा की जीत में मैकेन के वोटरों के लिए आतंक नहीं है, ओबामा की जीत में रिपब्लिकंस के लिए घृणा नहीं है। जिस दिन ये विशेषताएं मायावती की जीत का हिस्सा बन जाएंगे, उस दिन पूरा भारत उनकी जीत पर गौरवान्वित होगा। इसलिए मायावती की जीत को दलित समाज की जीत का प्रतीक बनाना एक शातिर राजनीतिक प्रोपैगेंडा के अलावा और कुछ नहीं है।
भारत ने आज से 60 साल पहले ही अपने सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय साहित्य यानी संविधान की रचना के लिए जिस टीम का चुनाव किया था, उसकी कमान डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को सौंपी गई थी। तब से आज तक वंचित समाज के पता नहीं कितने धरोहरों ने गंदी बस्तियों की नालियों से संसद के गलियारों तक का सफर तय किया है। सैकड़ों.... नहीं हजारों ने। इसके बाद भी अगर देश का बहुसंख्यक दलित और वंचित समाज मूलभूत मानवीय अधिकारों से वंचित है, तो क्या इसका जवाब उन हजारों दिग्गजों से नहीं मांगा जाना चाहिए, जिन्होंने उस समाज के प्रतिनिध के नाम पर ही तमाम विशेषाधिकारों का भोग करते हुए अपनी पीढ़ियों तक के लिए धन का अंबार खड़ा कर लिया। इसलिए भारतीय लोकतंत्र ने तो बहुत पहले अपनी योग्यता साबित कर दी है, अब राजनेताओं को अपनी योग्यता साबित करनी है।
'सेकुलरिज्म' का मानक तय करने वाले अमेरिकी समाज में एक मुसलमान घर में पैदा हुए बराक हुसैन ओबामा को राष्ट्रपति बनने के लिए यह सफाई देनी होती है कि उसने बहुत पहले इसाइयत अपना ली है। एक हिंदू घर में पैदा हुए बॉबी जिंदल को अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करते ही अपना मजबह बदलकर इसाई बनना पड़ता है। भारत में कितने मुसलमान और इसाई किन प्रमुख राजनीतिक पदों पर बैठे हैं, इसकी सूची बनाने की कोशिश भी बेवकूफी होगी। अपने राजीतिक विश्लेषण को अपनी प्रगति और ताकत की सीढ़ी बनाने वालों से तो कोई खास उम्मीद करना बेकार है, हमें जरूर भ्रम फैलाने वाले ऐसे विश्लेषकों के बचने की जरूरत है।
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7 टिप्पणियां:
भुवन जी...आपने बढ़िया लिखा है। शायद लोग जल्दवाजी में भूल जाते हैं कि दोनों ही देश भले ही लोकतंत्र के आकार में बड़े हों या बहुत हद तक सफल भी दिखते हों लेकिन फिर भी ओबामा और मायावती की तुलना करना उचित नहीं। दोनों देशों में कई समानताएं भले हों...लेकिन असमानताओं का अंबार भी है।
अमेरिका जवान मुल्क है, अप्रवासियों से हाल ही में बसा हुआ...जहां कि बहुसंख्यक आबादी ने उसे पिछले 400 सालो में अपना आशियाना बनाया है। एक ऐसा मुल्क जो अपार संसाधनो से लैश है और जिसकी बसावट यूरोपीय पुनर्जागरण के बाद हुई है, जिसने अपने तमाम मूल्य, अपने तमाम विकास यूरोप की सदियों तक चलने वाली आंदोलनों और विकास यात्रा से हासिल कर एकवारगी ही किसी शहरीकरण की प्रक्रिया जैसे अपनाकर उसे एक मुल्क के रुप में ढ़ाल लिया है। दूसरी तरफ भारत में एक प्राचीन सभ्यता के प्रवाह फलस्वरुप इतने उटा-पटक हुए हैं कि शायद भारत..अमेरिका से बेहतर 'सभ्यताओं की हांडी' है-जिसमें अनेक समुदाय अपना मुकाम हासिल करने के लिए अभी तक संघर्षरत हैं। ऐसे में मायावती को भारतीय ओबामा घोषित करना प्रतीकात्मक रुप से तो सही हो सकता है, वास्तविक रुप में नहीं। आपने सही लिखा-जिस तरह अमेरिकन अश्वेतों ने ओबामा की जीत का स्वागत सहज रुप से किया है क्या हमारे यहां संभव है?हमारे यहां अभी इसे दूसरों को 'पददलित' और 'उखाड़ फेंकने'के रुप में ही देखा जाएगा।
दूसरी बात ये कि जिस तरह की कामचलाऊ समरुपता अमेरिका के आर्थिक जीवन और समाज में आ चुकी है क्या हिंदुस्तान में आ पाई है? इन तमाम बातों के बावजूद की अमेरिका में लोकतांत्रिक प्रयोग हिंदुस्तान से तकरीबन 200 साल पुराना है, अमेरिका के लोगों में अभी भी एक तरह की नस्लीय और धार्मिक भावना वद्य़मान है भले ही वह ऊपरी तौर पर न दिखाई दे।और इसलिए किसी ओबामा या जिंदल को बार बार अपने इसाईयत की सबूत देनी पड़ती है।
हां..इतना जरुर है कि ओबामा की जीत एक बड़ी प्रतीकात्मक जीत जरुर है, उस अमेरिका के लिए भी जिसने कभी किसी अश्वेत को राष्ट्रपति स्वीकार नहीं किया। रही बात मायावती के एक स्वभाविक प्रक्रिया के तहत ओबामा बनने की...तो शायद हिंदुस्तान में वो वक्त अभी नहीं आया है। इसके लिए हिंदू समाज को उन तमाम व्यापक फेरबदल और जकड़बंदियों की मुक्ति से गुजरना होगा जो आधुनिक भारत के संस्थानों में आकार ले रही है।
ओबामा की जीत को श्वेत-अश्वेत में बांटकर देखना दुखद है क्योंकि ओबामा सिर्फ अश्वेतों के वोटों पर राष्ट्रपति चुन कर नहीं आएं हैं। ठीक इसी तरह मायावती को दलितों की नेता कहना भी न्यायसंगत नहीं रह गया।
बेहतरीन तहरीर है...
ओबामा की जीत को श्वेत-अश्वेत में बांटकर देखना दुखद है ....
ओबामा की जीत का,इतना क्यॊ है शोर.
रंग-भेद के पार भी, बात अवश्य है और.
बात है कोई और,सूक्ष्म हलचल दुनियाँ में.
जीने की कोई नई राह, पनपे दुनियाँ में.
कह साधक कवि,यह संदेश है परिवर्तन का.
इसीलिये है शोर, ओबामा की जीत का.
अमेरिका में सभी अब्राहम लिंकन छाप नहीं थे। कुछ को प्रोब करें तो मायावतियाना झलक भी मिल जायेगी। और कौन जाने ओबामा जी क्या निकलें। भारत में तो सभी धूल में लट्ठ चला रहे हैं अभी।
आपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....
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