बुधवार, 28 जनवरी 2009

इन कुसंस्कारियों से संस्कृति की रक्षा कीजिए

मैंगलोर में कुछ गुंडों ने एक पब में घुसकर जो कुकृत्य किया, उसकी केवल घोर निंदा काफी नहीं है। देश के एक महान राष्ट्रीय व्यक्तित्व के नाम पर सेना गठित कर निर्लज्जता और बेहूदगी का यह नाटक मेरे लिए या किसी भी भारतीय के लिए शर्म का नहीं, बल्कि आक्रोश का विषय है। लेकिन इसमें एक राहत की बात भी है। ये गुंडे कम से कम एक बात तो मानते हैं कि ये मानव नहीं हैं। ये पशु हैं। इनमें सामान्य बंदरों और सामान्य भालुओं के सारे गुण हैं, भले ही इनमें हनुमान और जाम्बवंत की भक्ति और संस्कार न हों। इसलिए इन पशुओं को मानव समाज में रहने का अधिकार नहीं है और इनका कोई मानव अधिकार भी नहीं होना चाहिए।

इन पशुओं को खुद संस्कार का ज्ञान नहीं है। केवल एक केसरिया दुपट्टा गले में बांधकर ये हिंदू संस्कारों का रक्षक होने का दावा कर रहे हैं, जबकि उन्हें इस देश की मूल संस्कृति का खुद ज्ञान नहीं है। किसी भी प्राचीन भारतीय साहित्य में 'हॉनर किलिंग' की अवधारण नहीं है। अगर कहीं अपवाद स्वरूप इस तरह की किसी घटना का जिक्र हो भी, तो समाज ने कभी इस तरह की प्रथाओं को मान्यता नहीं दी। संस्कृति के रक्षक बनने वाले ये गुंडे दरअसल खुद कभी किसी लड़की के साथ नहीं नाच पाने की कुंठा से ग्रस्त हैं और इसलिए इस प्रकार के कुकृत्य करते फिर रहे हैं।

लेकिन यहां मैं यह भी साफ करना चाहता हूं कि मैं पब में देर रात युवाओं के शराब पीकर उन्मत्त होने को कत्तई आधुनिकता की पहचान नहीं मानता। मेरा मानना है कि इस तरह की उच्छृंखलता न किसी समाज को और न ही किसी राष्ट्र को महान बना सकती है। लेकिन साथ ही मैं यह भी मानता हूं कि इसे मैंगलोर में दिखाई गई पशुता से भी नहीं रोका जा सकता। इन पशुओं के उत्पात से निपटना तो राज्य शक्ति के लिए बाएं हाथ का खेल है। सीएमओ से थाने में की गई एक फोन कॉल इनकी पशुता को जीवन भर के लिए इनका बोझ बना सकती है।

लेकिन लेट नाइट डांसिंग पार्टी, पब कल्चर और दारू कल्चर से भी सावधान होने की जरूरत है। पूरे समाज, सरकार और देश को इसके लिए तैयार होना होगा। समस्या केवल केसरिया दुपट्टा लपेटे किसी हिंदू नामधारी संगठन की गुंडागर्दी नहीं है। हिंदू और केसरिया से तोसमाज के ऐसे सांड भी भड़क जाते हैं, जिनका वास्तव में कोई सामाजिक सरोकार नहीं है।

लेकिन 2007 के 31 दिसंबर की आधी रात को मुंबई की सड़क पर कुछ लड़कियों के साथ खेले गए वहशियाना खेल या नोएडा के पब से रात को निकली लड़की के साथ हुए सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाओं पर भी समाज को वैसे ही चिंतित होना चाहिए, भले ही उसमें 'हिंदू तालिबानिज्म' की सड़ांध न हो।

1 टिप्पणी:

संजय बेंगाणी ने कहा…

उचीत अनुचित के मानदण्ड हर व्यक्ति के अलग होते है.

शराब पीना शायद गलत है, तो सरकारें क्यों शराब के ठेके देती है? जगह जगह क्यों शराब की दुकाने हैं. पहले उन्हे खत्म करो.

मेंगलोर में जो हुआ, गलत हुआ. किसी को पब में बैठना है तो यह उनकी इच्छा है. हम कौन होते है, उन्हे पीटने वाले?