मेरे एक तमिल मित्र से जब मैंने यह पूछा कि श्रीलंका में चल रहे संघर्ष पर तमिलनाडु की आम जनता क्या सोचती है, तो मैंने यह सोचा था कि जवाब एक बड़े सैद्धांतिक आवरण के साथ डिप्लोमैटिक किस्म का होगा। लेकिन मेरे मित्र ने बहुत साफ कहा कि भले ही प्रभाकरन आतंकवादी हो या चाहे जो कुछ हो, लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि वह तमिल हितों के लिए लड़ रहा है। इसके बाद उसने जिस रूप में अपनी बात का विस्तार किया, वह काफी गंभीर था और उससे एक ओर तो श्रीलंका को लेकर भारतीय विदेशी नीति की द्वंद्वात्मक स्थिति समझ में आ जाती है, वहीं दूसरी ओर एक राष्ट्र के रूप में भारतीयता के सूत्र की स्थापना पर भी कुछ असहज सवाल उठते हैं।
मेरे तमिल मित्र ने कहा कि आखिर इंदिरा गांधी के समय भारत ने भी तो प्रभाकरण की मदद की ही थी, फिर बाद में उसके बारे में भारतीय नीति क्यों बदली। इस सवाल का जवाब खुद ही देते हुए उसने कहा कि कश्मीर में आतंकवाद के बढ़ने से भारत ने मजबूरन तमिल हितों के लिए अपने समर्थन को तिलांजलि दे दी। कश्मीर तो वैसे भी अपने पास है नहीं, थोड़ा सा हिस्सा बचा है, उसके लिए तमिल हितों के प्रति भारत अपनी जिम्मेदारी से कैसे पीछे हट सकता है। इस दलील में जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा झकझोरा, वह था एक ऐसा स्वर, जो कहीं न कहीं कश्मीर को भारत से जोड़े रखने की अहमियत के लिए केवल इसलिए पूरी तरह उदासीन था, क्योंकि उसे लगता है कि यह उसके अपने जातीय भाइयों के हितों के आड़े आ रहा है।
तुलसीदास ने लिखा है, "बहुत कठिन जाति अपमाना।'' करुणानिधि जब प्रभाकरण को अपना दोस्त बताते हैं और वाइको जब प्रभाकरण के समर्थन के लिए जेल जाने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो जातीय अपमान के प्रति इसी असहनीयता का बोध होता है। तमिलनाडु की जनता के प्रभाकरण और लिट्टे से इसी भावनात्मक जुड़ाव ने श्रीलंका जैसे रणनीतिक तौर पर भारी महत्वपूर्ण देश के प्रति भारतीय विदेश नीति को अपंग बना दिया है। भारत के प्रति घोर शत्रुता का भाव रखने वाले दोनों पड़ोसी देश, पाकिस्तान और चीन इसका भरपूर फायदा उठा रहे हैं। पाकिस्तान से पिछले कुछ वर्षों में श्रीलंका के सामरिक संबंध काफी बढ़े हैं और पाकिस्तानी सेना लिट्टे से लड़ने के लिए श्रीलंका को हथियारों की सीधी आपूर्ति करने लगी है। इधर चीन ने भी सीधे तौर पर लिट्टे के खिलाफ कार्रवाई में राजपक्षे सरकार का पूरा समर्थन कर दिया है।
पाकिस्तान और चीन के इरादे किसी से छिपे नहीं हैं। नेपाल और बंगलादेश में अपना आधार बनाने के बाद आईएसआई को श्रीलंका में भी अपनी उपस्थिति मजबूत करनी है ताकि भारत को घेरा जा सके। दूसरी ओर चीन ने हिंद महासागर में अपनी उपस्थिति मजबूत करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा है और इस समुद्री सीमा के दूसरे महत्वपूर्ण देशों, जैसे मॉरीशस और सिशली से पहले ही पींगे बढ़ा रहा है। ऐसे में लिट्ट के खिलाफ चल रही कार्रवाई पर भारत की 'दो कदम आगे, एक कदम पीछे' नीति भले ही मानवीय आधार और तमिल जनता की भावनाओं के लिहाज से व्यावहारिक हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के लिहाज से यह खतरनाक साबित हो सकती है।
सवाल यह है कि भारत के पास विकल्प क्या हैं? भारत दो तरह की रणनीति पर विचार कर सकता है। पहला, राष्ट्रीय स्तर पर एक ताकतवर अभियान चला कर देश की जनता, खास तौर पर पर तमिलनाडु की जनता के दिलोदिमाग में यह बैठाना जरूरी है कि सभी श्रीलंकाई तमिल लिट्टे के सदस्य नहीं हैं और क्योंकि श्रीलंका में एक स्वतंत्र तमिल राष्ट्र की स्थापना व्यावहारिक नहीं है, इसलिए हिंसात्मक अभियान तमिल समाज को न केवल कमजोर करेगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रगति और विकास के रास्ते बंद करेगा। दूसरा, राजपक्षे सरकार पर दबाव डाल कर भारत अपनी मशीनरी के बूते श्रीलंका के भीतर बड़े पैमाने पर राहत कार्य चला सकता है और गृह युद्ध में तबाह हुए तमिलों के पुनर्वास की पूरी व्यवस्था अपने कंधों पर ले सकता है। अगर भारत ऐसा कर सका, तो हम तमिल जनभावना का सम्मान करते हुए लिट्टे के खिलाफ सरकारी लड़ाई में पूरी तरह मददगार बन सकते हैं।
श्रीलंका सरकार अभी अपने राष्ट्रीय जीवन की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ रही है और इस समय उसका बिना शर्त समर्थन कर पाकिस्तान और चीन उसके लिए वही महत्व प्राप्त कर सकते हैं, जो कभी दुर्योधन का कर्ण के जीवन में हो गया था। कर्ण के जीवन में आए ऐसे ही संकट के समय उसका समर्थन कर दुर्योधन ने उसके जीवन में वह स्थान प्राप्त कर लिया, जहां कर्ण ने न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित की सारी सीमाएं छोड़ कर दुर्योधन के समर्थन को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। इसलिए ऐसे मौके पर श्रीलंका को ऐसा संकेत देना, कि हम उसके राष्ट्रीय संकट में उससे मोलभाव कर रहे हैं, हमारी विदेश नीति के लिए घातक साबित हो सकता है।
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2 टिप्पणियां:
पंगू केन्द्र देश व विदेशनीति को लेकर उलझन में है. मुझे लगता है श्रीलंका को मौन समर्थन तथा तमीलों के लिए राहत का काम एक सही नीति है.
गलत बात को हमेशा गलत ही मानकर निर्णय लिये जाने चाहियें, लेकिन "कूटनीति" इसके बिलकुल विपरीत सोचती है। समय आने पर गधे को भी बाप बना लेना राजनीति में आम बात है। यह अलग बात है कि कल दो-चार और गधे आकर आपका बाप बनने की चेष्टा करते हैं तो बहुत मुश्किल हो जाती है।
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