कभी तिब्बत, भारत और चीन के बीच का बफर स्टेट हुआ करता था। नेहरू जी की अदूरदर्शी और आत्म केन्द्रित विदेश नीति के कारण आज वह चीन का हिस्सा बन चुका है। अब निशाने पर नेपाल है। नेपाल भी अब तक भारत और चीन के बीच एक बफर स्टेट का ही काम करता रहा है और 1962 के हमले से अब तक चीन की तमाम शत्रुतापूर्ण कूटनीति के बावजूद कम से कम नेपाल की सीमा पर तो हम बहुत हद तक निश्चिंत ही रहे हैं। लेकिन अब स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। हालिया घटना नेपाल के सेना प्रमुख को हटाने की है। भारत ने जहां एक ओर इस घटनाक्रम पर चिंता जताई है, वहीं चीन ने प्रचंड को अपना खुला समर्थन दे दिया है। यह चीन की एक और धूर्त कूटनीति है और साथ ही यह आने वाले कल का एक संकेत भी है।
नेपाल जल्दी ही गृह युद्ध के अगले दौर में प्रवेश करने वाला है। प्रचंड को निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाने की सहूलियत और देश में पानी, बिजली, सड़क, रोजगार जैसी व्यवस्थाएं खड़ी करने की कठिनाई समझ में आने लगी है। करीब तीन साल पहले तक जिन राजनीतिक दलों ने प्रधानमंत्री बनने में प्रचंड का साथ दिया था, अब वे उनके खिलाफ खड़े होने लगे हैं। वामपंथ और लोकतंत्र कभी एक साथ नहीं चल सकते और पिछले 100 साल की वामपंथी क्रांतियों के इतिहास में शायद ही इसका कोई अपवाद हो। आम जनता (जिन्हें वामपंथियों की शब्दावली में सर्वहारा कहा जाता है) के समर्थन से सत्ता हासिल करने के बाद वामपंथी शासकों ने हर बार पहला काम उसी जनता के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने का किया है, लेकिन नेपाल में राजशाही के विरोध में उठी लहर ने इतिहास के इस सबक से आंखें मूंद लीं। इस गलती का परिणाम नेपाल को तो अभी भुगतना ही है, भारत भी उसकी धधक से नहीं बच सकेगा। इसलिए बिना कोई समय गंवाए भारतीय नीति निर्माताओं को इसकी तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।
माओवादियों और नेपाली सेना के टकराव की पृष्ठभूमि समझना जरूरी है। दरअसल यह उन हजारों माओवादियों की रोजी-रोटी की लड़ाई का सवाल है, जिन्होंने प्रचंड के राजनीति की मुख्य धारा में शामिल होने से पहले 10 सालों तक हिंसा, लूट, अपहरण और अपराध छोड़ कर कुछ किया ही नहीं। अब प्रचंड तो बन गए प्रधानमंत्री, लेकिन ये रंगरूट क्या करें? उनसे यह उम्मीद करना तो बेवकूफी ही होगी न कि वे 10 साल तक अराजक और स्वच्छंद जीवन जीने के बाद अब एकाएक हल पकड़ कर किसान बन जाएं या फिर किराने की दुकान खोल कर आटा और मैदा बेचने लगें। तो फिर वे क्या करेंगे? उनके लिए एक ही काम हो सकता है, और वह है नेपाली सेना में उन्हें शामिल करना। लेकिन जिस नेपाली सेना ने करीब एक दशक तक इन्हीं लुटेरों, हत्यारों के खिलाफ लड़ाई में अपने सैकड़ों जवान शहीद किए हों, उसके लिए इन्हें अपना हिस्सा बनाना एक दुःस्वप्न हो होगा। लेकिन प्रचंड पर अपने पुराने लड़ाकों और कैडर की ओर से भारी दबाव है कि उन्हें सेना में भर्ती किया जाए। इसके अलावा दूसरा पहलू सैनिक निष्ठा का है। नेपाली सेना हमेशा से राजशाही समर्थक मानी जाती रही है। राजशाही नहीं रही, फिर भी उससे माओवादियों के समर्थन की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। जबकि देश में अपनी तरह का शासन स्थापित करने के लिए प्रचंड को सेना की बिना शर्त निष्ठा चाहिए और वह उन्हें केवल अपने माओवादी रंगरूटों से ही मिल सकती है।
किसी देश के संदर्भ में विदेश नीति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उस देश में सरकार हमारे लिए कितनी अनुकूल है। यह दरअसल विदेश नीति का ऐसा पहलू है, जो अब तक हमारी रणनीति में या तो शामिल नहीं रहा है या फिर अदृश्य रहा है। इसीलिए हम जब नेपाल में भारत के दोस्त महाराज वीरेन्द्र विक्रम शाह की पूरे परिवार के साथ हत्या हो गई, तो हम उसे नेपाल का आंतिरक मामला बताकर तमाशा देखते रहे। उसी के बाद से नेपाल में आईएसआई और चीन की पैठ बढ़ती गई और भले ही माओवादियों के नेतृत्व में हुए राजशाही विरोधी आंदोलन को जनता का भारी समर्थन देखा गया, लेकिन इसके पीछे चीन की भूमिका पर शायद ही कोई अध्ययन किया गया हो। अफ्रीका तक पर दबाव डाल कर दलाई लामा का वीजा अस्वीकार करवाने वाले चीन के बारे में कोई बेवकूफ ही ऐसा सोच सकता है कि वह माओवादी आंदोलन के बारे में तटस्थ रहा हो। खास कर तब, जब विदेश नीति का ककहरा जानने वाला भी यह समझ सकता था कि माओवादियों के सत्ता में आने के बाद नेपाल चीन की गोद में बैठ जाएगा और भारत के लिए एक स्थाई सिरदर्द हो जाएगा।
प्रचंड की राह में नेपाली सेना और न्यायपालिका ही सबसे बड़ी बाधा हैं। न्यायपालिका ने पहले पशुपतिनाथ मंदिर के पुजारी और अब सेना प्रमुख को अपदस्थ करने की प्रचंड की कोशिशों को तो असफल तक दिया है, लेकिन इससे प्रचंड की बढ़ती झुंझलाहट का अंदाजा भी लगाया जा सकता है। अगले साल तक मौजूदा माओवादी सरकार को नया संविधान लागू करना है, लेकिन प्रचंड के रूख से ऐसा लग रहा है कि उनकी प्राथमिकताएं कुछ और हैं। जिस तरह नेपाल में माओवादी शासन अपना जनसमर्थन खोता जा रहा है, उसमें इस बात की महती संभावना बन रही है कि आने वाले महीनों में प्रचंड पर सत्ता छोड़ने का दबाव बनने लगे और अगर ऐसा हुआ तो प्रचंड के पास अपने पुराने तौर-तरीकों का सहारा लेने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा, क्योंकि सत्ता तो वह अब छोड़ने से रहे। ऐसे में उसके लिए चीन का बढ़ता समर्थन हिमालय की गोद में बसे इस खूबसूरत देश की क्या गत बनाएगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। सवाल यह है कि क्या हम एक बार फिर इस समूचे घटनाक्रम के तमाशबीन बने रहेंगे और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक और चिरस्थाई सरदर्द छोड़ जाएंगे, या अभी से कोई ठोस रणनीति बनाकर ऐसी पहल करेंगे कि आने वाला समय नेपाल और भारत, दोनों के लिए अमन और विकास की पृष्ठभूमि तैयार करे।
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