इशरत जहां और उसके तीन अन्य साथियों के मुठभेड़ पर चल रही बहस के दो आयाम हैं, पहला कि मुठभेड़ में मारे गए युवक और मुंबई के खालसा कॉलेज की लड़की आतंकवादी थे और दूसरा, कि नरेंद्र मोदी आदमखोर हैं (कांग्रेसी प्रवक्ता की भाषा में)। अब भारतीय राजनीति को देखने-समझने वाला कोई शायद ही ऐसा व्यक्ति हो, जो मोदी पर उदासीन (न्यूट्रल) राय रखता हो। मोदी की दो तस्वीरें हैं- एक प्रखर हिंदुत्वादी कर्मठ नेता और दूसरा मुसलमानों का हत्यारा हिंदू साम्प्रदायिक नेता। इशरत और उसके साथियों के मुठभेड़ की असली कहानी मोदी की इन्हीं दोनों तस्वीरों के बीच पिस रही है। क्योंकि मोदी के राज्य से आने वाली किसी भी खबर पर राय बनाने में किसी को भी एक पल से ज्यादा तो लगता नहीं है।
मोदी समर्थकों के लिए गुजरात से आने वाली कोई भी नकारात्मक खबर मोदी के खिलाफ हिंदू विरोधियों का षड्यंत्र है और मोदी के निंदकों के लिए उनके क्रूर प्रशासन का एक और सबूत। यही कारण है कि इशरत मोदी समर्थकों के लिए आतंकवादी है और मोदी विरोधियों के लिए एक बेचारी अबला। लेकिन क्या ऐसी कोई सूरत नहीं हो सकती कि मोदी भी निर्दोष हों और इशरत तथा उसके साथी भी।
सारी कहानी में यह अब तक साफ नहीं हो सका है कि अहमदाबाद पुलिस ने मुंबई जाकर इन चारों का ही अपहरण क्यों किया? कहीं यह सवाल नहीं पूछा जा रहा कि आखिर अहमदाबाद पुलिस को क्या इन चारों ने सपने में दर्शन देकर अपने नाम-पते बताए या फिर क्या कहानी हुई? कम से कम मेरे सामने तो अब तक यह जानकारी आई नहीं है, अगर आप में से किसी को पता हो तो जरूर बताइए। लेकिन ख़ैर, कारण कोई भी हो? हम मान लेते हैं कि अहमदाबाद पुलिस ने किसी गफ़लत में इन्हें उठा लिया और अपनी किसी ग़लती को छिपाने के लिए इनका मुठभेड़ कर दिया।
अब निश्चित तौर पर मोदी ने तो इन्हें इन चारों के पते देकर मुठभेड़ करने के निर्देश दिए नहीं होंगे। लेकिन मुठभेड़ हो गया और खबर राष्ट्रीय मीडिया में आ गई, तो गुजरात पुलिस के आला अधिकारियों को मोदी को तो बताना ही था कि क्या हुआ? तो क्या यह संभव नहीं कि आतंकवाद के खिलाफ मोदी के रवैये का फ़ायदा उठाने के लिए इन अफसरों ने एक ऐसी कहानी गढ़ी हो, जिससे मोदी तुरंत इनके साथ खड़े हो जाएं और इनके बचाव को राज्य का दायित्व मान लें?
क्या देश का कोई ऐसा राज्य या केंद्रशासित प्रदेश है, जो यह दावा कर सके कि उसकी पुलिस कभी फर्ज़ी मुठभेड़ नहीं करती है या उसके यहां पुलिस थाने में हत्याएं नहीं होती हैं। अगर बाकी राज्यों में पुलिस की ऐसी कारस्तानियों के लिए संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होती है, तो गुजरात में इसके लिए नरेंद्र मोदी को फांसी पर क्यों लटकाया जाना चाहिए?
ये तो हुई एक बात। दूसरी बात मजिस्ट्रेट जांच की है। जब केन्द्र सरकार भी अपने हलफनामे में मारे गए लोगों को लश्कर-ए-तोएबा के आतंकवादी बता चुकी है, तब यह अपने आप में जांच का विषय बनता है कि मजिस्ट्रेट साहब को पूरा मामला फर्ज़ी क्यों लगा? मैं इस रिपोर्ट और मजिस्ट्रेट साहब की मंशा पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहता, लेकिन मेरा यह कहना है कि इसे अंतिम शब्द कैसे माना जा सकता है। लोअर कोर्ट्स से साबका रखने वाले किसी भी किसान या मज़दूर तक को वहां की हालत का पता है। जब ऊंची अदालतों तक में वित्तीय या राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामले आम हो चुके हैं, तो किसी एक मजिस्ट्रेट की ऐसी रिपोर्ट, जिससे साफ है कि देश के सबसे विवादास्पद मुख्यमंत्री की जिंदगी दुश्वार हो जाएगी, पर आंख बंद कर भरोसा क्यों किया जाना चाहिए?
आखिरी बात। माननीय उच्चतम न्यायालय तक से ग़लतियां हो सकती हैं। अगर नहीं, तो गुजरात सरकार को खलनायक मानते हुए ज़ाहिरा शेख का मामला राज्य से बाहर स्थानांतरित करने के बारे में क्या स्पष्टीकरण दिया जा सकता है? बाद में जब यह साफ हो गया कि भ्रष्ट वामपंथी 'मानवाधिकारवादी' तीस्ता शीतलवाड़ ने रिश्वत देकर मोदी सरकार के खिलाफ उसे अपने औज़ार की तरह इस्तेमाल किया था, तब इस पूरे मामले पर क्या किया गया? कानून की दलाली करने वाले शीतलवाड़ जैसे लोगों को क्या कोई सज़ा नहीं होनी चाहिए थी?
पूरी बात का लब्बोलुआब यह है कि चाहे इशरत जहां का मामला हो या कोई और, मामले को तथ्यों के नज़रिए से देखा जाए। केवल मोदी का समर्थन और विरोध के चश्मे से देखने पर तो हम किसी निष्कर्ष पर कभी पहुंच ही नहीं सकते। हां, यह जरूर है कि अगर इशरत और उसके बाकी साथी एक प्रामाणिक भारतीय नागरिक थे, तो फिर उनकी हत्या में शामिल सभी पुलिस अधिकारियों को जरूर फांसी की सज़ा दी जानी चाहिए क्योंकि उनकी ऐसी ही हरक़तें राष्ट्रवादी मुसलमानों को अपने क़ौम में कमज़ोर करती हैं और आतंकवादी संगठनों को भारतीय मुसलमानों के बीच अपनी पैठ गहरी करने का ईंधन मुहैया कराती हैं।
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5 टिप्पणियां:
अच्छा लिखा है. कोई विचार करेगा?
बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने. ज्यादातर लोग एक्सट्रीम पर रहना पसंद करते हैं. या तो इस तरफ या फिर उस तरफ. लेकिन मध्यमान भी तो कुछ है.
गुजरात पुलिस मुंबई जाकर चार लोगों का अपहरण कर लेती है, यह बात समझ में नहीं आती. ऐसा करना कितना आसान है? या फिर कितना मुश्किल? केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने अपने हलफनामे में कहा है कि; "इशरत जहां और उनके साथी आतंकवादी थी." लेकिन देखने वाली बात यह है कि तमांग की रिपोर्ट के आधार पर मीडिया या फिर ओपिनीयन मेकर्स द्बारा यह बात फैलाई जा रही हैं कि; "इशरत जहां बेक़सूर थीं. वे आतंकवादी नहीं थीं."
मुद्दा केवल फर्जी मुठभेंड को लेकर है. मुद्दा यह कतई नहीं है कि ये चारों आतंकवादी थे या नहीं? लेकिन दुर्भाग्यवश यह बात फैलाई जा रही है कि ये चारों बेक़सूर थे. और यही बात आम आदमी के विश्वास को डिगा देती है. वह विश्वास जो उसे न्यायपालिका और लोकतंत्र के तमाम और स्तंभों पर करना चाहिए.
भुवन जी, ललमुंहे बंदरों को यह बात नहीं समझ में आएगी. वो तो पैदा ही मोदी का विरोध करने के लिए हुए हैं. कभी-कभी तो यह ख्याल आता है कि अगर मोदी सी० एम0 न बने होते तो इनका तो जनम ही अकारथ हो जाता. मोदी ने तो तार लिया इनको.
भुवन जी इसे कहते हैं विश्लेषण | ऐसा विश्लेषण हिंदी मैं बहुत कम ही देखने को मिलता है | हलाकि अंग्रेजी मैं भी अब सही विश्लेषण तो आते नहीं, सभी के सभी बस secular इमेज के जाल मैं फसे हैं और उन्हें पता भी नहीं चल रहा है की वो किस जाल मैं फसे हैं |
नरेन्द्र मोदी की बात करें तो मुझे लगता है भारत के इतिहास मैं वो सर्वश्रेस्ट मुख्यमंत्रियों मैं से एक है | उनके विकाश के प्रति प्रतिबद्धता को दुनिया मानती है | ये हमारा दुर्भाग्य ही है की ऐसे विकाश पुरुष को हमेशा विवादों मैं घसीट कर गुजरात के विकाश के कार्य मैं बाधा डाल रहे हैं | देखिये मोदी १००% perfect नहीं हैं और कोई इन्शान हो भी नहीं सकता | पर एक बात तो है ही की उनकी गुजरात के प्रति समर्पण भाव से सेवा ने गुजरात को भारत के बाकी बचे राज्यों के मुकाबले वहां ला खडा किया है जहाँ कोई राज्य निकट भविष्य मैं पहुंचता हुआ नहीं दीखता |
RAKESH SINGH JI NE SAHI KAHA HAI
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