मंगलवार, 22 जून 2010

हर दिन लग रहा है कांग्रेस का आपातकाल

आडवाणी का कहना है कि एंडरसन को भारत से भगाना आपातकाल जैसी घटना थी। उन्होंने इस सूची में एक तीसरी घटना को भी शामिल किया है- इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुआ सिक्खों का सामूहिक नरसंहार। सूची पूरी हो गई। लेकिन क्या सचमुच पूरी हो गई? आपातकाल में बुराई क्या थी? मेरी जैसी जिस पीढ़ी ने उन ढाई सालों को महसूस नहीं किया है, झेला नहीं है, उसके लिए यह समझना बहुत मुश्किल है। इसलिए कि हम कहीं आपातकाल का इतिहास नहीं पढ़ते। आज़ादी के दौरान हुए अत्याचारों को तो हम फिर भी जानते हैं, लेकिन आपातकाल के दौरान क्या हुआ, हमें नहीं पता। अगर ग़ैर कांग्रेसी नेताओं के भाषणों और कुलदीप नैयर जैसे कुछ पत्रकारों को छोड़ दें, तो कभी कोई आपातकाल की विभीषिका के बारे में नहीं बताता। लगता है जैसे, देश को आपातकाल से कोई परेशानी नहीं थी, कोई नुकसान नहीं था। क्या यही सच है? उलटे हमारी पीढ़ी के लोगों को तो बहुत बार यही बताया जाता है कि उस समय ट्रेनें बिलकुल समय पर चलती थीं और भ्रष्टाचार लगभग ख़त्म हो चुका था। तो क्या सचमुच आपातकाल देश का एक ऐसा स्वर्णकाल था, जिसमें नेताओं और पत्रकारों को छोड़ कर किसी को कोई तकलीफ नहीं थी।

मुझे लगता है इसका जवाब 'हां' में होना चाहिए। भारत में आम जनता बिलकुल ही आम है। उसका सिद्धांत वाक्य है- कोउ नृप होए हमें का हानि। डॉक्टर को अपनी क्लिनिक चलने से मतलब है, इंजीनियर को अच्छी सैलेरी वाली नौकरी से मतलब है, दुकानदार को अपनी दुकान चलने से मतलब है और अब तो पत्रकार को भी खूब चमक-दमक वाले और ऊंचे वेतन के करियर से ही मतलब रह गया है। यही कारण है कि समाज का आम इंसान आपातकाल को किसी डरावने सपने की तरह याद नहीं करता। लेकिन मेरी व्यक्तिगत समझदारी यह है कि आपातकाल ने आम लोगों को जितना नुकसान पहुंचाया, उतना किसी को नहीं। आपातकाल ने इस पूरे देश की नसों में एचआईवी के ऐसे कीटाणु छोड़े, जो सालों निष्क्रिय रहने के बाद अपना असर दिखा रहे हैं। आपातकाल भले ही ढाई साल में खत्म हो गया हो, लेकिन आपातकाल के संस्कार देश अब तक झेल रहा है। यह संस्कार दरअसल कांग्रेस के खून में है और क्योंकि कांग्रेस इस देश की सबसे स्वाभाविक शासक है और इसलिए आपातकालीन एचआईवी भी पूरे देश के खून में समा चुका है।

आपातकाल क्यों बुरा था? दरअसल देश में राजनेताओं का अहंकार और उनकी महत्वाकांक्षा आजादी के तुरंत बाद से ही अपना रंग दिखाने लगी थी। इसके बावजूद जवाहरलाल नेहरू का राजनीतिक कद इतना बड़ा था कि तमाम संस्थाएं उनके सामने बौनी नज़र आती थीं। इस कारण सत्ता के कर्णधारों और शासन की संस्थाओं के बीच कभी टकराव नहीं हुआ। नेहरू के बाद शास्त्री जी आए, जो नेता के लिबास में संत के समान थे। और इसलिए उनके छोटे से शासनकाल में भी देश की संस्थाओं की निष्ठा और पवित्रता बहुत हद तक अक्षुण्ण रही। लेकिन इंदिरा गांधी के समय से चीजें बदलने लगीं। इंदिरा गांधी को सिंडिकेट ने गूंगी गुड़िया क़रार दिया था और कोई यह मानने को तैयार नहीं था कि उनकी सत्ता को चुनौती नहीं दी जा सकती। क्योंकि देश की संस्थाएं देश के संविधान के प्रति जवाबदेह होती हैं, इसलिए अगर सत्ता और संस्था में से कोई भी एक भ्रष्ट हो जाए, तो दोनों में टकराव निश्चित है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का निर्वाचन अवैध ठहराया और आपातकाल लागू हो गया। इंदिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस को यह समझ में आ गया देश पर लंबे समय तक निर्बाध शासन करने के लिए यहां की संस्थाओं को भ्रष्ट करना आवश्यक है। आपातकाल से यह काम शुरू हो गया। कांग्रेस ने देश की संवैधानिक जड़ों में मट्ठा डालना शुरू किया। संविधान की शपथ लेने वाले आईएएस और आईपीएस अधिकारियों की सेवानिवृत्ति के बाद राजदूत, राज्यपाल और ऐसे पदों पर नियुक्ति शुरू हो गई ताकि सारे वरिष्ठतम अधिकारी यह समझ लें कि सरकार का साथ देने में क्या फायदे हैं। उच्च और उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को मानवाधिकार आयोग जैसे शक्तिशाली और सुविधायुक्त पदों पर बैठाया जाने लगा, जिससे उनके सामने हमेशा सरकार से पंगा न लेने का लोभ बना रहे। तमाम समितियों, आयोगों और ऐसे दूसरे वैधानिक पदों पर नियुक्तियों के लिए कोई तय मानदंड न बनाकर भ्रष्टाचार के रास्ते साफ रखे गए। इन सारी प्रक्रियाओं का सारांश इंदिरा के समय देश का प्रथम नागरिक, संविधान का केयरटेकर और तीनों सेनाओं का प्रमुख यानी राष्ट्रपति बनने वाले एक व्यक्ति का वह बयान है, जिसमें उसने कहा था कि वह इंदिरा गांधी के घर झाड़ू तक लगाने के लिए तैयार है। इंदिरा जी गईं, आपातकाल गया, लेकिन कांग्रेस ने संस्थाओं को भ्रष्ट करने का संस्कार आत्मसात कर लिया। चुनाव आयोग में नवीन चावल की नियुक्ति और प्रोन्नति इसका सबसे प्रकट उदाहरण है।

और इसी कड़ी में सबसे ताजा उदाहरण है यूलिप पर सेबी और इरडा में हुई लड़ाई पर सरकार का फैसला। सेबी और इरडा के बीच यूलिप (शेयर बाजार में निवेश के साथ बीमा सुविधा देने वाला उत्पाद) पर अधिकार को लेकर झगड़ा चल रहा था। सेबी के प्रमुख सी बी भावे और इरडा के जे हरिनारायण को सरकार की ओर से निर्देश मिले कि वे हाईकोर्ट में एक संयुक्त याचिका दाखिल करें। लेकिन भावे ने अपनी पहल पर मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने का फैसला किया। फिर क्या था, सरकार को गुस्सा आ गया। सरकार की ओर से हरिनारायण को संपर्क किया गया और कहा गया कि एक मसौदा तैयार करें ताकि यूलिप पर इरडा का नियंत्रण हो सके। यानी एक अभिभावक ने दो बच्चों की लड़ाई में फैसला लिखने का अधिकार इसलिए एक के हाथ में दे दिया, क्योंकि दूसरे ने उसकी बात मानने से इंकार कर दिया। क्या सरकारें ऐसे काम करती हैं? यूलिप में आम लोगों के लाखों करोड़ रुपए लगे हैं, इस भरोसे पर कि सरकार उनके हितों की निगहबान है। लेकिन सरकार केवल अपने अहंकार को तुष्ट करने के लिए किसी एक रेगुलेटर को इसकी कमान थमाने का फैसला कर रही है। अब सोचिए प्रणव मुखर्जी के एहसानों से दबे जे हरिनारायण इरडा प्रमुख के हैसियत से निवेशकों के हितों की सुरक्षा करेंगे या सरकार और कांग्रेस पार्टी के हितों की।

यही कांग्रेस की कार्यसंस्कृति है, जो उसे इंदिरा गांधी और आपातकाल से विरासत में मिली है। संस्थाओं को भ्रष्ट करने की कार्यसंस्कृति। संवैधानिक पदों को भ्रष्ट करने की कार्यसंस्कृति। यह केवल एंडरसन को भगाने में नहीं है, बल्कि यह कांग्रेस सरकारों के हर दिन के कामकाज का अभिन्न हिस्सा है।

1 टिप्पणी:

Rakesh Singh - राकेश सिंह ने कहा…

जैसा की आपने कहा - आपातकाल वाले त्रासदी पे बहुत कम लिखा जाता है, शायद इसी कारन आपातकाल के बारे में हमारी पीढ़ी का ज्ञान लगभग शुन्य सा है. अब तक जितना भी आपातकाल के बारे में पढ़ा उससे एक बात ही सामने आती थी की विपक्षी नेताओं को भर-भर के जेल भेजा गया पर मूल बात या आपातकाल के गहरे बुरे प्रभाव का विश्लेषण अब तक नहीं पढ़ पाया था. आपातकाल के बुरे और गहरे प्रभावों का इतना सटीक विश्लेषण मैंने पहली बार पढ़ा है. स्थानीय स्तर पे भी कांग्रेस में मैंने कांग्रेस की आत्मा को भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी देखि है. एक इमानदार सरकारी व्यक्ती को कांग्रेस कार्यसंस्कृति हमेशा भ्रष्टाचार में डुबोने को तत्पर दिखती रही है.

कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में भी भ्रस्टाचारियों को ही आगे लाया जाता है, अच्छे लोग आयेंगे तो गांधी परिवार की जी-हजुरी नहीं करेंगे. कुल-मिलाकर कांग्रेस रूपी वृक्ष को भ्रष्टाचार रूपी उर्वरक इसे ज़िंदा रखे हुए है.