बुधवार, 25 जुलाई 2012

वहशी और सफेदपोश नक्सलियों का गठजोड़

अगर आप इमानदार नहीं है, तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किसी की आलोचना कर रहे हैं या प्रशंसा। आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार वही निरीह जनता होती है, जिसके नाम पर उस कृत्य को सैद्धांतिक जामा पहनाया जाता है। कश्मीर, खालिस्तान, उल्फा और अब नक्सली- इन सबने सबसे ज्यादा खून और आंसू उन्हीं का बहाया है, जिनके नाम पर ये लडऩे का दावा करते हैं। लेकिन विडंबना देखिए, तमाम सेकुलर मानवाधिकारवादी और वामपंथी आतंकवाद के नाम पर केवल उनसे लडऩे वाले सुरक्षा बलों पर ही प्रहार करते हैं।

छत्तीसगढ़ में निरीह आदिवासी मारे गए। कैसे मारे गए? क्या पुलिस ने उन्हें घर में घुस कर मारा या थाने में लाकर मारा? खुफिया सूचना पर नक्सलियों को दबोचने जा रहे सुरक्षा बलों पर रात के अंधेरे में फायरिंग हुई और जवाबी कार्रवाई में ये आदिवासी मारे गए। इसलिए कि गोलियां चलाने वालों ने इन निरीह बेचारे आदिवासियों को ह्युमन शील्ड के तौर पर सुरक्षा बलों की गोलियों के सामने कर दिया। लेकिन यहां एक और महत्वपूर्ण एंगल है। अगर नक्सलियों को सुरक्षा बलों से लडऩा ही नहीं था, उन्हें नुकसान पहुंचाना ही नहीं था, तो उन पर गोली ही क्यों चलाई। क्या इसका देश भर में सेकुलर मानवाधिकारवादी और वामपंथी के विरोध प्रदर्शनों से कोई संबंध है? कहीं यह एक ही नक्सली खेल के दो हिस्से तो नहीं? खेल का पहला हिस्सा छत्तीसगढ़ के गांव में गरीब आदिवासियों को सुरक्षा बलों की गोलियों के आगे परोस कर खेला गया और अब दूसरा हिस्सा शहरों और बुद्धिजीवी संस्थाओं में मौजूदा सफेदपोश नक्सलियों द्वारा सुरक्षा बलों को खलनायक साबित कर खेला जा रहा है?

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