ये आम आदमी पार्टी की नहीं,
आम आदमी की जीत है... यह राजनीति के संस्कारों की शुद्धि का प्रारंभ है... ये भारत
में एक नई क्रांति का सूत्रपात है...
ये जुमले हैं, जो आजकल
दिल्ली की राजनीति के जरिए देश पर छाने को बेताब हैं। आम तौर पर ऐसा ही होता है कि
जब शोर इतना हो, तो आपके सच का पिटारा नितांत अप्रासंगिक लगने लगता है। लेकिन मुझे
इससे क्या कि आप सुनें या न सुनें... दिल का हाल सुने दिलवाला, सीधी सी बात, न
मिर्च मसाला। तो हम तो कहेंगे, आप अगर आज नहीं सुनेंगे, तो कल आएंगे, पलट कर सुनने
के लिए।
आम आदमी पार्टी की जीत के
शोर में सब बौराए हैं। मेरे कई मित्र कह रहे हैं, भाई इनको थोड़ा टाइम तो दो। अभी
तो ये आए हैं, अगर कुछ शुरू किया है, तो उसका परिणाम तो दिखे। सही है... लेकिन
दोस्तों समय नहीं है। ये मैं नहीं कह रहा... अरविंद केजरीवाल भी कह रहे हैं। समय
नहीं है। बस 100 दिन बचे हैं लोकसभा के चुनावों में। अगर उससे पहले हम न समझे, तो
फिर समझ कर क्या होगा।
पिछले 7 दिनों में ‘आप’ और अरविंद केजरीवाल के
बारे में बहुत सी बातें साफ हो गई हैं। दिक्कत केवल यह है कि मीडिया के जयकारे में
वे साफ बातें भी इतनी धुंधली दिख रही हैं कि दिमाग उनको मानने को तैयार नहीं है। बिजली
और पानी पर आम आदमी पार्टी के वादों की बात हो रही है। यह भी कहा जा रहा है कि
पार्टी ने 72 घंटे के भीतर दोनों वादे पूरे कर दिए। लेकिन क्या यह पार्टी सत्ता
में केवल इन्हीं वादों के कारण आई थी? क्या देश में इसे लेकर जो जिज्ञासा और उत्साह पैदा हो रहा
है, वह केवल इन्हीं वादों के कारण है?
दरअसल आप ने अपनी पोजिशनिंग
राजनीतिक पार्टी के तौर पर की ही नहीं थी। यह एक आंदोलन था, जिसने तंत्र की शुचिता
की बात की। वीआईपी कल्चर खत्म हो, सिस्टम का भ्रष्टाचार खत्म हो, सिस्टम को सिरे
से बदला जाए- जैसे नारों ने लोगों को एक ताजी राजनीतिक धारा की उम्मीद बंधाई
क्योंकिं लोकलुभावने वादे और सरकारी खजाने को लुटा कर रॉबिन हुड बनने वाले वादे
भारतीय राजनीति में नए नहीं हैं।
अब देखिए, 28 दिसंबर को आप
सरकार के शपथ लेने के बाद से क्या हो रहा है। थोक में प्रशासनिक अधिकारियों के
तबादले किए गए, जैसा कि हर सत्ता परिवर्तन पर होता है। साफ है कि इन तबादलों का
भ्रष्टाचार या कार्यकुशलता से कोई लेना-देना नहीं था, बल्कि ये केजरीवाल साहब के
एक पसंदीदा अधिकारी (जिन्हें उन्होंने पद संभालते ही अफसरशाही की सबसे ऊंची कुर्सी
दी है) की सिफारिशों पर किए गए। लाल बत्तियों पर रोक लग गई... बहुत अच्छा, लेकिन
क्या इतने से वीआईपी कल्चर खत्म हो जाएगा। नियम तोड़ने पर अपने बाप, भाई, मामा,
ताऊ की धौंस देकर पुलिस पर रोब गांठने वाले क्या लाल बत्ती से चलते हैं? सचिवालय से सुरक्षा हटा ली
गई। अगले दिन फिर समझ में आया कि गड़बड़ हो गई, तो ऐसी सुरक्षा हुई कि मीडिया तक
को अंदर जाने से रोक दिया गया।
अब देखें, दो सबसे बड़े
वादे, जिन्हें 72 घंटों में पूरा कर इतिहास रचा गया है। पहले पानी की बात। दिल्ली
में पानी को लेकर समस्या क्या है? पानी का महंगा होना... पानी का नहीं होना? 37 लाख घरों में से करीब
17.5 लाख घरों में पानी नहीं आता। ये घर ग़रीब है, अनधिकृत कॉलोनियों में बने हैं
या फिर झुग्गियों में हैं। वहां रोज टैंकरों से पानी आता है, जिससे अपना हिस्सा
पाने के लिए वहां के बाशिंदों को गाली-गलौच, झगड़े और संघर्ष से रोज़ जूझना पड़ता
है। आप ने मुफ्त पानी का वादा किया था... दे दिया। लेकिन किसे? क्या जीके, फ्रेंड्स
कॉलोनी, सीआर पार्क, गुलमोहर पार्क, नीतिबाग जैसे मोहल्लों में रहने वालों को
मुफ्त पानी की जरूरत है?
दूसरा, बिजली। बिजली आधी
कीमत में ही क्यों, मुफ्त भी दी जा सकती है। सवाल यह है कि इसका मॉडल क्या है।
क्या सब्सिडी पर कोई चीज़ फ्री देना समस्या का समाधान है... या वह आज की समस्या को
कल पर टालना है। फिर सब्सिडी का राजस्व, जनता के टैक्स से ही वसूला जाता है। तो
आखिर उसका बोझ तो जनता पर ही आना है।
अब मेरे कुछ मित्रों का
कहना है कि बाकी काम तो धीरे-धीरे ही हो सकते हैं, ये सारी बातें तो बस केवल
आलोचना के लिए आलोचना करना है। बिलकुल सही बात है, मैं सहमत हूं। लेकिन सरकार बनने
के बाद से आप नेताओं और अरविंद केजरीवाल के बयान सुनिए, प्राथमिकताएं देखिए।
मेट्रो से शपथ ग्रहण में जाने का ड्रामा कर पहले केजरीवाल जी ने साबित किया कि वह
गांधी या पटेल नहीं, बल्कि लालू या मायावती लीग के नेता ज्यादा हैं, जिसे अपने
प्रचार प्रोपैगैडा के आगे राष्ट्रीय संपत्तियों के नुकसान और उसकी सुरक्षा से कोई
खास सरोकार नहीं है। फिर लाल बत्ती हटाने के बाद, उन्होंने कोई ऐसे संकेत नहीं दिए
कि वह वीआईपी संस्कृति का गला घोंटना चाहते हैं, न ही उन्होंने पुलिस या बाबुओं को
ऐसा कोई संदेश दिया।
मुफ्त पानी की घोषणा के साथ
या बाद, कहीं पाइपलाइन बिछाने की जल्दबाजी या प्राथमिकता नहीं दिखी... सब्सिडी से
बिजली सस्ती करना तो उसी लोकप्रिय राजनीति का हिस्सा है, जो कांग्रेस, बीजेपी, सपा
या अन्नाद्रमुक अपने-अपने राज्यों में कर रहे हैं। सब्सिडी किसी नेता के पिताजी के
खाते से नहीं आती, जनता से ही वसूली जाती है। हां, कुल मिलाकर एक कदम जो अब तक आप
सरकार ने वास्तव में सिस्टम के तौर पर आम आदमी के हित में उठाया है, वह है
दिल्ली-यूपी के बीच ऑटो कनेक्टिविटी देना। लेकिन यह भी देखिए, तो प्रशासनिक फैसला
ही है।
दिल्ली के करीब 60-70 हजार लोग इस भीषण ठंड में आसमान के नीचे सो रहे हैं।
क्या दिल्ली सरकार
को तुरंत कुछ नहीं करना चाहिए। मनीष सिसोदिया ने दौरा किया,
आश्वासन दिया कि जल्दी ही कुछ करेंगे। जल्दी... मतलब, कब? कुछ तो कर सकते हैं आप, जैसे, मेरे विचार से रात 10
से सुबह 6 बजे तक दिल्ली के सारे सब-वे उन्हें सोने के लिए दिए जा सकते हैं। कम से
कम दो-तीन हफ्ते, जब तक यह जानलेवा सर्दी कम नहीं हो जाती। 200-300 लोग होंगे, तो
अपराध की आशंका भी जाती रहेगी, जिसके कारण फिलहाल उन्हें रात में बंद रखा जाता है।
कुछ तो करिए। लेकिन क्योंकि आपने इसका चुनावी वादा नहीं किया, तो शायद मीडिया में
इसे इतना कवरेज न मिले। इसलिए आप इस पर कुछ नहीं करेंगे।
मेरे कहने का मतलब केवल यह
है कि आम आदमी पार्टी ने एक आंदोलन के जरिए सिस्टम को बदलने के नारे के साथ जो
शुरुआत की थी, वह अब विशुद्ध वोट खींचू राजनीति में बदल चुकी है। सुराज और स्वराज
की जगह चुनावी उन्माद पैदा करने की रणनीति ने ले लिया है। एक आंदोलन के तौर पर आम
आदमी पार्टी की मौत हो चुकी है, अब देखना है कि एक राजनीतिक दल के तौर पर इसकी
जिंदगी कितनी लंबी चलती है।
1 टिप्पणी:
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