शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

गुजराती आईपीएस अधिकारियों की क्रांति का राज़ क्या है?

गुजरात में 2002 के गोधरा बाद के दंगों ने चाहे मानवता को कभी न मिटने वाले घाव दिए हों, लेकिन इन्होंने देश पर एक बड़ा उपकार भी किया है। देश हर्ष मंदर, संजीव भट्ट, राहुल शर्मा, कुलदीप शर्मा, सतीश वर्मा, आर बी श्रीकुमार, रजनीश राय जैसे प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों की एक पूरी फौज से रू-ब-रू हुआ, जो जनहित के लिए पूरी सरकार से टकराने और अपना करियर दांव पर लगाने की हिम्मत रखती है। लेकिन सवाल यह है कि ऐसे अधिकारियों की पीढ़ी केवल गुजरात में ही क्यों पैदा हो रही है?

उत्तर प्रदेश में जीतेंद्र सिंह बबलू, धनंजय सिंह, स्वामी प्रसाद मौर्य, डी पी यादव, कदीर राना और योगेंद्र सागर जैसे जानेमाने जनसेवकों के खिलाफ चल रहे हत्या, बलात्कार जैसे मामलों के सारे मुकदमें पिछले 4 वर्षों में धीरे-धीरे उठा लिए गए हैं (इंडियन एक्सप्रेस पेज 1, 12 अगस्त)। माया सरकार के इन लाडलों के खिलाफ ये केस बनाने के लिए न जाने कितने ईमानदार अधिकारियों और कर्मचारियों ने अपनी ज़िंदगी दांव पर लगाई होगी और न जाने कितनों ने अपनी जानें गंवाई होंगी। लेकिन इन 4 वर्षों में एक भी आईपीएस या आईएएस अधिकारी की अंतरात्मा नहीं जागी।

पुणे में पुलिसिया गुंडई के दृश्य तीन दिनों से लगातार हम अपने टीवी स्क्रीनों पर देख रहे हैं। वहां एक पुलिस अफसर निशाने लगा-लगा कर खरगोशों की तरह किसानों का शिकार कर रहा था। कुछ टुच्चे पुलिसिए कारों और मोटरसाइकिलों पर गली के गुंडों की तरह डंडे और लात बरसा रहे थे। यह सब बिना राजनीतिक प्रश्रय और संकेत के तो हो नहीं रहा होगा? एक किसान को तो बाक़ायदा पुलिस हिरासत में लेकर गोली मार दी गई- यानी फ़र्ज़ी मुठभेड़। लेकिन किसी आईएएस और आईपीएस अधिकारी का ज़मीर नहीं जाग रहा। इसकी तुलना गुजरात से कीजिए। सोहराबुद्दीन, इशरत जहां और तुलसीराम प्रजापति- पुलिस के हाथों मारे गए ये तीन, सुप्रीम कोर्ट से लेकर कई आईपीएस अधिकारियों के लिए फर्ज़ और अन्याय के खिलाफ लड़ाई का प्रतीक बन गए हैं। इनमें सोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति तो घोषित इनामी अपराधी थे। और इशरत जहां के आतंकवादियों से संबंध भी साबित हो चुके हैं।

लेकिन आए दिन इन कथित फर्ज़ी मुठभेड़ों को लेकर सुप्रीम कोर्ट अपनी सक्रियता दिखाता रहता है। कई अति वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जेल में है। अखबारों में सोहराबुद्दीन की एक तस्वीर छपती है, जिसमें वह एक अति पारिवारिक आम शहरी की तरह अपनी पत्नी के साथ ताजमहल के आगे बैठा दिखाया जाता है। दूसरी ओर अपनी पैशाचिक हंसी से न्याय व्यवस्था की हंसी उड़ाने वाला हरियाणा का पूर्व डीजीपी राठौड़ एक किशोरी को आत्महत्या के लिए मज़बूर करने और उसके भाई की ज़िंदगी तबाह करने के बावजूद ज़मानत पाकर मज़े लूट रहा है। किन्हीं माननीय न्यायाधीश की, किसी आईएएस या आईपीएस अफसर की आत्मा नहीं जागती।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 1993 से 2009 के बीच 2,318 लोग पुलिसिया अत्याचार नहीं झेल पाने के कारण हिरासत में मारे गए। हम सब जानते हैं कि पुलिस हिरासत में हुई मौतें कैसे होती हैं। अपनी खाल बचाने के लिए या नियमित सत्कार करते रहने वाले किसी गुंडे या अपने किसी राजनीतिक आका को खुश करने के लिए किसी अपराध के लिए कोई ग़रीब पकड़ लिया जाता है। फिर हवालात में उसे उलटा लटकाया जाता है, उसके हलक में और कभी-कभी तो मलद्वार में भी डंडे डाले जाते हैं, बिजली के झटके लगाए जाते हैं, लातों-जूतों से पिटाई की जाती है और उससे अपराध कबूल करवाया जाता है। इसी पुलिसिया पराक्रम के दौरान कई बार पकड़ा गया आदमी मर जाता है। पूरा पुलिस महकमा, एसपी, एसएसपी, डीजीपी, डीआईजी, आईजी, डीएम और कानून-व्यवस्था से जुड़े सेक्रेटरी (आईएएस) सभी इन घटनाओं से अवगत होते हैं। माननीय न्यायालय को भी सब पता होता है।

लेकिन किसी आईएएस या आईपीएस अफसर की आत्मा नहीं जागती। ख़ास बात यह है कि इन 2,318 लोगों में से 190 मौतें गुजरात में भी हुईं। लेकिन सोहराबुद्दीन, प्रजापति और इशरत की मौतों के लिए रात भर करवटें बदलने वाले गुजरात के कर्तव्यनिष्ठ आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को पुलिस हिरासत में मरते इन ग़रीबों पर कोई दया क्यों नहीं आती?

कारण चाहे जो भी हो, कम से कम दो ऐसे दयावंत, दयालु मानवाधिकारवादियों की कहानी तो हम सब को पता है। एक हैं गुजरात दंगों के समय वहां आईएएस रहे हर्ष मंदर, जो अब देश भर के वामपंथियों और हिंदू विरोधियों के भगवान हो गए हैं। इन्हें नरेंद्र मोदी के खिलाफ अभियान छेड़ने के एवज़ में देश की सबसे ताकतवर गैर सरकारी संस्था राष्ट्रीय सलाहकार परिषद यानी एनएसी में सदस्यता का तोहफा दिया गया है।

दूसरी मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ हैं। यह बात साबित हो चुकी है कि उन्होंने पैसे देकर बेस्ट बेकरी कांड की मुख्य गवाह को मोदी सरकार के खिलाफ किस तरह इस्तेमाल किया। मोदी के खिलाफ अपने इस अभियान में उन्होंने अपने दुष्प्रचार का प्रोपगेंडा कुछ इस तरह चलाया कि सुप्रीम कोर्ट ने बेस्ट बेकरी की सुनवाई गुजरात से बाहर करवाने के निर्देश दिए। लेकिन अब उनकी करतूतों का काला चिट्‌ठा सामने आने के बावजूद वह कानून की गिरफ्त से बाहर हैं। उनके एनजीओ को विदेश से मिलने वाले करोड़ों रुपए से उनकी हिंदू विरोधी कारस्तानियां बदस्तूर जारी हैं।

पुणे के किसानों को मारने वाला पुलिसकर्मी हफ्ते भर बाद मीडिया से गायब हो जाएगा, मऊ के दंगों में खुली जीप पर घूमघूम कर कत्लेआम करवाने वाले मुख्तार अंसारी को हर कोई भूल चुका है, थानों में चीखचिल्ला कर दम तोड़ने वाले ग़रीबों की किसी को हवा भी नहीं लगती। लेकिन मोदी का भूत ज़िंदा रहना चाहिए। योंकि इसके बड़े फायदे हैं। इससे सोनिया का वरदहस्त भी मिल सकता है और करोड़ों रुपए का डोनेशन पाने वाले समाजसेवक होने का तमगा भी। तो क्या इसीलिए सारे क्रांतिकारी पुलिस अफसर गुजरात में ही पैदा हो रहे हैं?

6 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

bhuvan ji, bahut kam aise patrakaar hain jo satya kahne ka maddaa rakhte hain aur aap bhi unme se ek hain.. aapko mera pranaam..

Rakesh Singh - राकेश सिंह ने कहा…

"मऊ के दंगों में खुली जीप पर घूमघूम कर कत्लेआम करवाने वाले मुख्तार अंसारी को हर कोई भूल चुका है, थानों में चीखचिल्ला कर दम तोड़ने वाले ग़रीबों की किसी को हवा भी नहीं लगती। लेकिन मोदी का भूत ज़िंदा रहना चाहिए। योंकि इसके बड़े फायदे हैं। इससे सोनिया का वरदहस्त भी मिल सकता है और करोड़ों रुपए का डोनेशन पाने वाले समाजसेवक होने का तमगा भी।" - सत्य को बिना लाग लपेट के इस रूप में लिखने वाले बहुत कम लोग हैं |

आपकी लेखनी में बहुत धार और दम है, इश्वर करे ये धार-दम और बढे...

DIAL A TAXI ने कहा…

It is good

www.ChiCha.in ने कहा…

hii.. Nice Post

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बेनामी ने कहा…

आपने बिलकुल सही लिखा है. मै गुजरातमे रहता हु. 2001 के पहले गुजरात मे हर दो साल मे कोमी-दंगा होना आम बात थी. उन दंगो मे ज्यादातर हिन्दु को जान-माल का नुकसान होता था और इस लिये कोइ भी मानवाधिकार का सवाल नही उठाता था. 2001 के दंगो मे पहली बार गैर-हिन्दुओ को भी समान नुकसान हुआ. (याद रहे हिन्दुओ को भी इन दंगो मे उतना ही नुकसान हुआ है जितना की गैर-हिन्दुओ को. लेकिन ये बार कोइ मिडीया मे नही आयेगे क्यु की हमारे मिडीया तो 'सेक्युलर' है ना. और इस देश मे हुन्दु के लिये सही बात बोलना भी 'सेक्युलर' नही है !) और इस लिये ये सब एन.जी.ओ., जिस को गल्फ से फंड मिलता है, टुट पडे है. सही बात ये है की 2001 के बाद गुजरात मे क्यु दंगे नही हुए? क्यु की गैर-हिन्दुओ को पता चल गया की अब लाठी का जबाब लाठी से ही मिलेगा.
जय हो !

indianrj ने कहा…

हिंदुस्तान की जनता को बरगलाने की इन लोगों की कोशिशें नाकाम होती रहे हैं. वो तो इन्हें वोट चाहिए इस लिए जनता को कुछ नहीं कहते, वरना मोदीजी को सत्ता में बार-२ लाने पर गुजरातियों को बहुत भला-बुरा कहते होंगे मन ही मन.