मेरी उम्र 34 साल है। मेरे पिता बिहार सरकार के तहत ग्रेड-ए अधिकारी थे और एक अत्यंत प्रतिष्ठित और वरिष्ठ पद से सेवानिवृत्त हुए। मैंने जीवन में आर्थिक तौर पर कोई अभाव नहीं देखा। भागलपुर के टीएनबी कॉलेज में पढ़ाई के दौरान एक-दो बार बेटिकट यात्रा भी की, लेकिन कारण ग़रीबी नहीं, छात्र जीवन की स्वाभाविक अराजक वृत्ति रही। फिर भी, यह भरोसा हमेशा रहा कि अगर टीटीई ने पकड़ा तो उसे रिश्वत देने लायक पैसे हैं। पढ़ाई-लिखाई के बाद पत्रकार बना। तो पहले और अब, जब भी किसी सरकारी विभाग से साबका पड़ा, तो या तो रिश्वत देकर या अपने दूसरे पत्रकार मित्रों के संबंधों के बलपर कभी कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई। कुल मिलाकर अगर सार-संक्षेप में कहूं तो अपनी अब तक की ज़िंदगी में मुझे भ्रष्टाचार से कभी समस्या नहीं हुई। उल्टे कहूं, तो भ्रष्टाचार ने मुझे थोड़ी-बहुत सहूलियत ही दी है।
यह कहानी केवल मेरी नहीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि किसी भी मध्यवर्गीय व्यक्ति की थोड़ी-बहुत फेरबदल के साथ यही कहानी होती है। यह वर्ग ट्रेन में स्लिपर या एससी थ्री टीयर में चलता है। टिकट न भी हो तो 500 का पत्ता निकाल कर टीटीई साहब को देता है और ऐश से एक बर्थ पर पसर कर चलता है। यह वर्ग लाइसेंस, राशनकार्ड या पासपोर्ट बनवाने जाता है तो एजेंट को एकमुश्त 1000-2000 रुपए थमाता है और उसे सीधे अपने हाथ में पाता है। छोटे-मोटे काम के लिए 100-200 रुपए खर्च करने में उसे कोई परेशानी नहीं होती और यह भ्रष्टाचार कुल मिलाकर उसकी ज़िंदगी थोड़ी आसान कर रहा है।
अब दूसरा वर्ग, जिसे उच्च या इलीट कहा जाता है, उसकी ज़िंदगी पर एक नज़र डालते हैं। इस वर्ग में अमूमन बड़े कारोबारी, सांसद, विधायक और प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारी (आईएएस और आईपीएस) आते हैं। यही वर्ग दरअसल भ्रष्टाचार के बड़े हिस्से का जनक और पोषक होता है। नेताजी को चुनाव लड़ने के लिए करोड़ों रुपए चाहिए होते हैं। बाबू साहब (आईएएस) उन्हें सरकारी तंत्र के छिद्र दिखाते हैं। बाबू साहब और नेताजी मिलकर नीतियों में ऐसी जलेबी छानते हैं जिससे किसी खास कारोबारी घराने या कंपनी के सैकड़ों करोड़ के वारे-न्यारे हो जाते हैं और उसमें से कुछ करोड़ नेताजी और बाबू साहब की झोली में भी आ गिरते हैं। पुलिस का खेल थोड़ा दूसरा है और ये हम सब जानते हैं, इसलिए इसका विस्तार नहीं करूंगा।
अब बचा तीसरा वर्ग, जिसे पिछड़ा, ग़रीब, निम्न मध्य वर्ग आदि-आदि नामों से जाना जाता है। नेताओं के जबानी जमा खर्च में यह वर्ग सबसे प्रीमियम होता है। अपने 15 साल के शासन में सैकड़ों करोड़ के घोटाले करने वाले लालू हों या अपने जन्मदिन पर हीरे के गहनों का भौंडा प्रदर्शन करने वाली बहन जी, इन सबका भाषण ग़रीबों, पिछड़ों और कमज़ोरों से शुरू होकर उन्हीं पर खत्म होता है। यह वर्ग आपको दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अक्सर सैकड़ों की संख्या में जनरल बॉगी के आगे लाइन लगाए दिख जाएगा। कभी इनके साथ यात्रा की है आपने जनरल बॉगी में? आप कर ही नहीं पाएंगे, रहने दीजिए। 16-17 घंटों की यात्रा में कई ऐसे होते हैं, जो 1 मिनट के लिए भी बैठ नहीं पाते।
टॉयलेट तक में लोग और सामान ठूंसे होते हैं, इसलिए लोगों के लिए पूरे रास्ते टॉयलेट तक जाना मुहाल होता है। उस पर जब टीटीई आता है, तो उसका व्यवहार लोगों के साथ ऐसा होता है, जैसे वे इंसान हो ही नहीं। उस टीटीई के साथ 1-2 वर्दीधारी सिपाही भी होते हैं। और आपको शायद विश्वास नहीं होगा, ये दोनों-तीनों मिलकर लोगों के बैग की तलाशी तक लेते हैं और क्योंकि इन्हें पता होता है कि सामने वाला अपनी 6-8 महीने की बचत लेकर घर जा रहा होगा, तो उनसे रुपए तक छीन लेते हैं। यह हक़ीकत है और इसमें एक लाइन भी अतिशयोक्ति नहीं है।
यही वर्ग जब लाइसेंस या राशन कार्ड बनवाने पहुंचता है, तो इसे इस टेबल से उस टेबल तक धक्के खिलाया जाता है, क्योंकि उसके पास रिश्वत देने के पैसे नहीं होते। यही वर्ग पुलिस वालों के डंडे भी खाता है और इलाके में कोई वारदात होने पर थानेदार की गालियां और अपमान भी झेलता है।
लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर मीडिया में एक बहस को परवान चढ़ाया जा रहा है कि भ्रष्टाचार विरोधी अण्णा का आंदोलन दलित और पिछड़ा विरोधी है। साफ तौर पर ऊपर जिन वर्गों की बात है, उनका आधार जाति न होकर, पूरी तरह से आर्थक स्थिति है। लेकिन दलित और पिछड़े हितों के पैरोकार होने वालों का ऐसा दावा है कि यह पूरा आंदोलन केवल मेरे जैसे मध्यवर्गीय लोगों को शोशा है और इसमें पिछड़े और दलितों की कोई रुचि नहीं है। और कयोंकि यही लोग हैं, जो यह मानते हैं कि हर पिछड़ा और दलित ग़रीब और बेचारा है, तो हम भी यह मान लेते हैं कि जो तीसरा वर्ग है उसमें ज्यादातर हिस्सेदारी इन्हीं पिछड़े और दलित वर्गों की है।
तो अगर यह देश भ्रष्टाचार मुक्त हो जाए (हालांकि यह एक यूटोपिया है), तो इसका सबसे बड़ा फायदा क्या इसी तीसरे वर्ग को नहीं होगा? अब यह मेरी समझ से तो पूरी तरह बाहर है कि ऐसी बातें कर और माहौल बनाकर दलितवादी स्वार्थी तत्व क्या हासिल करना चाहते हैं। अलबत्ता इतना ज़रूर है कि इनमें कुछ तो ऐसे हैं जो ख़ुद ही आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हैं और दलितवाद की मलाई चाभ रहे हैं और कुछ दूसरे चंगू या मंगू हैं, जो फेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों का इस्तेमाल कर दलितवादी राजनीति की मलाई में अपने लिए हिस्सेदारी ढूंढ रहे हैं।
अण्णा के आंदोलन में विसंगतियां हो सकती हैं। उनकी कुछ या कई मांगें भी अव्यावहारिक हो सकती हैं। लेकिन उनकी सदिच्छा पर इस देश को भरोसा है और यही इस आंदोलन का सार है। देश अगर भ्रष्टाचार मुक्त हो सके या कम से कम यह बीमारी न्यूनतम स्तर पर आ सके, तो इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा उन्हीं को होगा, जिन्हें सदियों से उनके स्वाभाविक अधिकारों से वंचित रखा गया है। जिनके पास भ्रष्टाचार के राक्षस को भेंट करने के लिए चढ़ावा नहीं है और जो अपने न्यायोचित मांगों के लिए सबसे ज़्यादा अपमानित और प्रताड़ित होते हैं।
मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के लिए तो यह आंदोलन देशभक्ति और समाजनिष्ठा का प्रतीक है, लेकिन ग़रीबों एवं कमज़ोरों के लिए यह उनके स्वाभिमान की लड़ाई है, अधिकारों की लड़ाई है और रोज़गार की लड़ाई है। जो भी लोग इसे पिछड़ो और दलितों का विरोधी बता रहे हैं, उनसे बड़ा उनका कोई दुश्मन नहीं है।
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2 टिप्पणियां:
हमारे लिये ये लोग सिर्फ वोट के लिये इस्तेमाल करते हैं, इसमें कोई शक नहीं..
बिलकुल सही लिखा है. दलित और पिछड़ा के नाम पर अपनी रोटी सेंकने वाले स्वार्थी को हर बात में एक दलित angle निकालने में ही अपनी भलाई दिखती है. चाहे वो अपने देश के लिए मरने वाले जवान हो या जीवन रक्षक चिकित्षक हो या भ्रष्टाचार ... सभी जगह इन्हें दलित और पिछड़ा angle दिख ही जाता है.
जैसा कि आपने कहा है - भ्रष्टाचार मिटने से सबसे ज्यादा फायदा दलित और पिछड़े वर्ग को ही होने वाला है... और नेताओं, बाबुओं, भ्रष्ट Corporate ... की पूरी कोशिश ही है कि भ्रष्टाचार यूँही फलता-फूलता रहे.
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