शनिवार, 17 नवंबर 2007

हम समस्याओं की जड़ में देखना कब सीखेंगे


छठ पूजा खत्म हुई। तमाम इलेक्ट्रॉनिक चैनलों ने इसकी भरपूर रिपोर्टिंग की और रामलीला, कृष्ण जन्माष्टमी और किसी दूसरे धार्मिक आयोजन की तरह इस बार भी पूजा के पंडालों में अर्द्ध नग्न युवतियों के भौंडे और अश्लील नाच के दृश्य दिखाए गए। फिर अगली बार जब कोई धार्मिक आयोजन होगा, तो उसकी रिपोर्टिंग में भी यही ख़बर दिखाई जाएगी और उसके बाद के आयोजनों में भी हम यूं ही बढ़ती अश्लीलता को कोसते रहेंगे। ठीक उसी तरह जैसे 1947 के भीषण दंगों से लेकर 2002 के गोधरा और उसके बाद के दंगों तक हम साम्प्रदायिकता को कोसते रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे 1947 की भूखमरी और ग़रीबी से लेकर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक हम कालाहांडी के जीवित नरकंकालों पर अफसोस जताते रहे हैं और ठीक उसी तरह जैसे बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में प्रेमचंद की कहानियों में सिसकती किसानों की आत्मा इक्कीसवीं सदी के किसानों की आत्महत्या तक उसी तरह कराह रही है।
कहने का मतलब यह है कि हम युगों-युगों तक एक ही समस्या के लिए रोने और अफसोस करने के आदी हो गए हैं। कारण सिर्फ ये है कि हम अपने सामाजिक सरोकारों की अभिव्यक्ति के एहसास से इस कदर दबे हुए हैं कि जैसे ही कोई समस्या सामने आती है, उस पर रोकर खुद को ये संतोष देने की कोशिश करते हैं कि हम सामाजिक तौर पर अब भी मृत नहीं हैं। लेकिन रोने की जल्दी और फिर आंसू पोंछ कर अपने दैनिक कार्यों में जुटने की हड़बड़ी हमें कभी ये सोचने का वक्त नहीं देती कि आखिर इस समस्या की जड़ कहां है और क्या इसका समूल नाश नहीं किया जा सकता। पेड़ों के पत्तों को पानी से नहलाने का कोई फायदा नहीं है। केवल जड़ में पानी डालिए और पूरा पेड़ लहलहा जाएगा। चाणक्य के जीवन की वो कहानी भी हम सबने सुनी है कि कहीं जाते समय उनके पैर में एक कांटा चुभ गया। चाणक्य ने फिर अगली बार कांटा चुभने की नौबत आने से पहले उनकी जड़ों में थोड़ा गुड़ लाकर डाल दिया। बाकी काम चींटियों ने कर दिया और वे कांटे फिर कभी किसी को नहीं रुला पाए।
यह रहस्य ही है कि महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर आर पाटिल को एकाएक मुंबई की बार बालाएं तमाम सामाजिक समस्याओं की जड़ क्यों लगने लगीं। मुंबई में बार बालाओं पर लगी रोक सरकार के कामकाज करने के तरीके का एक क्लासिक उदाहरण है। हज़ारों बार बालाओं की रोजी-रोटी बिना कोई वैकल्पिक साधन सोचे एकाएक बंद कर दी गई। उनके पास क्या रास्ता बचा? सोचिए, मैं एक पत्रकार हूं और मुझे लिखने के अलावा कुछ नहीं आता। एकाएक मेरी नौकरी चली जाए, तो मैं क्या करूंगा। अखबारों के संपादकों के चक्कर लगाउंगा और उनसे एक-दो लेख छपवाने की गुज़ारिश करूंगा। बाद में जो करूं, शुरुआती प्रबंध तो यही करना होगा न। तो उन बार बालाओं को आधे कपड़े पहनकर, अपनी लटें झटकते हुए नाचने के अलावा कुछ आता नहीं था। सो, उन्होंने अपने ग्राहक ढूंढने शुरू किए। अब लाज-शर्म का चक्कर तो था नहीं, सो यूपी और बिहार में कद्रदान भी मिल गए। ऐसा भी नहीं कि यूपी, बिहार को आर आर पाटिल ने बिगाड़ दिया। वहां भी तो बेचारे छुटभैये नेताओं और ग़रीब की रैलियां करने वाले स्वनामधन्य किसान, चपरासियों के बेटों को भीड़ जुटाने में मुश्किलें हो रही थीं। पब्लिक लौंडों का नाच देखकर ऊब गई थी, और कोई स्थानीय लड़की छलियों के बीच लाइव नाच करने की हिम्मत जुटा नहीं पाती थी। सो, जौहरियों को हीरे और हीरों को जौहरी मिल गए। अब केवल अश्लीलता का रोना रोने से क्या होगा? जो आज रामलीलाओं में बार बालाओं का नाच देखने आ रहे हैं, ऐसा नहीं कि वो कल के रामभक्त हैं और आज भ्रष्ट हो गए हैं। और ऐसा भी नहीं कि ये नाच आज ही शुरू हुए हैं। मैंने अपने गांव में देखा है। पिछले कई सालों से। शाम सात बजे के बाद से किसी कोने में अड्डा बनाकर पाउच (देसी शराब) पीने वालों की टोली हमेशा से छठ पूजा के मौके पर वीडियो और जेनरेटर की व्यवस्था में सबसे आगे रहती है और रात भर जग कर तमाम भोलेभाले बच्चों और बिगड़ैल बूढ़ों की टोली के साथ फिल्में देखती है।

अगर हम सब वास्तव में बढ़ती सार्वजनिक अश्लीलता से चिंतित हैं, तो हमें इसकी जड़ों में जाना होगा। एक ओर संस्कारों और संस्कृति को पिछड़ापन और पोंगापंथ बताती हमारी शिक्षा पद्धति, पश्चिमी सभ्यता की ओर हमारा बढ़ता मोह, अंग्रेजी भाषा और सोच के प्रति हमारा लरजता दिल, बढ़ता राजनीतिक और आर्थिक भ्रष्टाचार और तिसपर अश्लीलता के सर्वसुलभ संसाधन। ऐसे में विश्वामित्र का संयम भी डिग जाए, फिर रास्ते से गुजरती हर लड़की को स्कैन करने के लिए बेचैन आंखों से कितने संयम की उम्मीद कर रहे हैं आप।
शहर में दस हज़ार ज़हरीले सांप छोड़ दीजिए और फिर सर्पदंश से हो रही मौतों को हेडलाइंस बनाते रहिए। हेडलाइंस तो बन जाएंगी, लेकिन मौतें नहीं रुक सकतीं।

3 टिप्‍पणियां:

Srijan Shilpi ने कहा…

बढ़िया लिखा है, भुवन जी। समस्याओं की जड़ में जाना जरूरी है। शोधपरकता पत्रकारिता से खत्म होती जा रही है। सच के मूल में जाने की जहमत कोई उठाना नहीं चाहता। दूसरों से क्या उम्मीद करेंगे, आप ही शुरू कीजिए, अपने दायरे में तो कुछ न कुछ कर ही सकते हैं।

भुवन भास्कर ने कहा…

शुक्रिया सृजन जी। दरअसल पत्रकारिता किसी डिग्री का नहीं, बल्कि मनोवृत्ति का नाम है। हम सब अपने दायरे में, जो हम ठीक समझते हैं, उसके लिए कुछ न कुछ कर सकते हैं। विश्वास रखिए, मैं अपने हिस्से की कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ूंगा।

Batangad ने कहा…

बहुत संतुलित तरीके से समस्या के साथ समाधान बता दिया आपने। बार बालाएं बिहार-उत्तर प्रदेश ही नहीं पहुंची हैं। हाल ये है कि मीरा रोड में परिवार इसलिए घर नहीं लेना चाहते कि हर दूसरी सोसायटी में बार बालाएं भी हैं। मुंबई से बाहर निकलने वाले हर रास्ते पर बार और बार बालाएं अभी भी हैं। पाटिल ने बस अपनी हवा-पानी बना ली है। सुधरा कुछ नहीं है।