गुरुवार, 29 नवंबर 2007

पाकिस्तान में करवट लेती राजनीति के भारतीय मायने


पाकिस्तान की राजनीति फिर करवट ले रही है। क्योंकि हम चाहकर भी अपना भूगोल नहीं बदल सकते, इसलिए इस नए करवट की सिलवटों को ग़ौर से परखना हमारी मज़बूरी है। पाकिस्तान में भारत के हित दो तरह से हैं। पहला तो सीधे तौर पर पाकिस्तान की भारत विरोधी नीति है और दूसरा पाकिस्तान में आंतरिक तौर पर मज़बूत होता कट्टरवाद है। पहली नज़र में देखने पर दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू दिखते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं।

मेरा सुविचारित मत है कि पाकिस्तान की भारत विरोधी नीति उसके राष्ट्रीय जीवन का आधार है और इसीलिए इस मामले पर मेरे बहुत ही दकियानूसी और पिछड़े विचार ये हैं कि भारत और पाकिस्तान में कभी सौहार्द्र या प्रेम नहीं हो सकता। पाकिस्तान के जन्म का आधार ही भारत से नफरत है, और अगर ये आधार ख़त्म हो जाए तो पाकिस्तान के अलग वजूद का कोई तार्किक आधार ही नहीं बचेगा। तो इसलिए पाकिस्तान की राजनीति किसी भी करवट बैठे, इस मोर्चे पर राहत की उम्मीद मासूम नासमझी ही होगी। वैसे भी हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान के नए सेनाध्यक्ष जनरल अशफाक़ परवेज़ कयानी 90 के दशक के मध्य से ही भारत के खिलाफ आतंकवाद की नीति के सूत्रधार रहे हैं। संसद पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद जब सीमा पर तनाव बढ़ा था, उस समय भी पाकिस्तानी मोर्चे का नेतृत्व जनरल कयानी ही कर रहे थे। जनरल कयानी अक्टूबर 2004 के बाद से ही आईएसआई के मुखिया रहे हैं, इसलिए ये मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि पिछले तीन साल में भारत में हुआ हर आतंकवादी हमला प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर कयानी के टेबल पर ही तय हुआ होगा। ऐसे में जनरल कयानी के नए सेनाध्यक्ष बनने से भारत के लिए उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आती। वैसे भी सेना पिछले छह दशकों से पाकिस्तान की भाग्यनियंता और निर्विवाद शक्ति स्रोत बनी रही है और सेना का राजनीतिक रुतबा कायम रहने के लिए बहुत ज़रूरी है कि भारत के साथ पाकिस्तान के संबंध ज़हरीले बने रहें। इसलिए सेना का कोई भी जनरल भारत के साथ संबंधों में मधुरता आने देने का ख़तरा नहीं उठा सकता।

दूसरा मसला है पाकिस्तान में मज़बूत होते आंतरिक कट्टरवाद का। आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की कथित लड़ाई में बढ़-चढ़ कर उत्साह दिखाने के कारण मुशर्रफ पहले ही तालिबान और अल क़ायदा से प्रेरित कट्टरपंथियों की आंखों के किरकिरी बने हुए हैं। यहां तक कि सेना के कुछ अधिकारी भी मुशर्रफ की अमेरिकापरस्ती के खिलाफ विद्रोह और मुशर्रफ की हत्या की योजना बनाते पकड़े गए थे। ऐसे में अब तक लगातार ये डर बना हुआ था कि यदि किसी दिन मियां मुशर्रफ की हत्या कर कट्टरपंथियों ने परमाणु शक्ति संपन्न पाकिस्तान की सत्ता अपने हाथ में ले ली, तो ये भारत के लिए भयंकर तबाही का सबब बन सकता है। अब जबकि सेना का नियंत्रण जनरल कयानी के हाथ में है तो मुशर्रफ की हत्या होने की स्थिति में भी पाकिस्तान का नियंत्रण कट्टरपंथियों के हाथ में नहीं जाएगा, ये उम्मीद की जा सकती है। जनरल कयानी ने तालिबान के खिलाफ कार्रवाई में जो रफ्तार दिखाई है, उसी कारण अमेरिका भी उनसे प्रसन्न है। कुछ लोगों का तो यहां तक मानना है कि कयानी का चुनाव भी अमेरिका ने ही किया है। तो इस लिहाज से पाकिस्तानी राजनीति का हालिया करवट ज़रूर भारत को कुछ राहत दे सकता है क्योंकि मुशर्रफ या कयानी का नियंत्रण अमेरिका के हाथ में ही सही, कहीं तो है। तालिबान या अल क़ायदा के नियंत्रण वाली पाकिस्तानी सरकार की कल्पना भी हमारे रोंगटे खड़ी कर देती है।

ये अलग बात है कि मुशर्रफ के दिन अब गिने-चुने ही लग रहे हैं। कहा जा रहा है कि जनरल कयानी एक गैर राजनीतिक और पेशेवर सैनिक हैं। लेकिन मुख्य न्यायाधीश इफ्तिख़ार चौधरी के खिलाफ मुशर्रफ के अभियान में जब मिलिट्री इंटेलीजेंस और इंटेलीजेंस ब्यूरो के प्रमुख अपनी वफादारी का प्रदर्शन करते अघा नहीं रहे थे, उसी समय आईएसआई प्रमुख के तौर पर जनरल कयानी ने कोई ख़ास हरकत नहीं दिखाई। मार्च 2007 में भी कयानी एकमात्र इंटेलीजेंस चीफ थे, जिन्होंने इफ्तिखार चौधरी के खिलाफ हलफनामा दाखिल नहीं किया था। साफ है कि मुशर्रफ को कयानी का समर्थन केवल तभी तक मिल सकेगा, जब तक राष्ट्रपति के कार्यकलाप कयानी के हिसाब से पाकिस्तान के अनुकूल हों। फिर कयानी कब तक नीति निर्माण में हस्तक्षेप का लोभ संवरण कर पाएंगे, ये भी देखने वाली बात होगी। ये सही है कि कयानी मुशर्रफ के प्रिय और विश्वासपात्र हैं, लेकिन क्या ये भी सही नहीं है कि मुशर्रफ भी कभी नवाज़ शरीफ़ के प्रिय और विश्वासपात्र हुआ करते थे और नवाज़ ने कुछ सेना अधिकारियों की वरीयता का उल्लंघन करते हुए ही मुशर्रफ को सेनाध्यक्ष का ताज पहनाया था।

2 टिप्‍पणियां:

संजय शर्मा ने कहा…

हम भारतवासी एक बार पूर्ण बहुमत वाली सरकार भारत को उपहार स्वरूप दें. उसके बाद उमीद जताया जाए.
संसद मे ऐसे बहुत सारे सांसद हैं जिन्हें अपने देश के बारे मे तो कुछ पता है नही पर बोलते पाये जाते हैं विदेश निति पर.

संजय शर्मा ने कहा…

हम भारतवासी एक बार पूर्ण बहुमत वाली सरकार भारत को उपहार स्वरूप दें. उसके बाद उमीद जताया जाए.
संसद मे ऐसे बहुत सारे सांसद हैं जिन्हें अपने देश के बारे मे तो कुछ पता है नही पर बोलते पाये जाते हैं विदेश निति पर.