एनडीटीवी के 'वी द पीपुल' कार्यक्रम में बहस चल रही थी तसलीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से बाहर किए जाने और फिर राजस्थान सरकार के उन्हें शरण देने पर। बरखा दत्त वामपंथी सरकार के इस कृत्य से बहुत दुखी थीं। लेकिन केवल वामपंथ या वामपंथियों की आलोचना करना बड़े खतरे का काम है। आपको तुरंत भाजपाई या संघी क़रार दिया जाएगा। इसलिए अगर आपको वामपंथियों की निंदा करनी है और इस बात की भी चिंता है कि कहीं आप पर फासिस्ट (संघ वालों के लिए वामपंथियों का प्रिय विशेषण) या साम्प्रदायिक होने की मुहर न लगा दी जाए,तो पहले दो गालियां भाजपा और संघ को दीजिए और फिर वामपंथियों के बारे में कुछ कहिए। तो बरखा जी ने बुद्धदेव सरकार के तसलीमा नसरीन को राज्य से बाहर किए जाने की निंदा करते हुए कहा कि अब वही भाजपा तसलीमा को शरण देने की बात कर रही है जो मक़बूल फिदा हुसैन का विरोध करती रही है।
बरखा दत्त ने तो अपने और अपने चैनल को साम्प्रदायिक कहे जाने के ख़तरे से बचा लिया, लेकिन मेरे मन में कल से ही उनकी राय पर विचार चल रहा था। क्या सच में मक़बूल फिदा हुसैन और तसलीमा नसरीन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? क्या सच में मक़बूल को भ्रष्ट और सनकी मानने वाले हर व्यक्ति का ये नैतिक कर्तव्य है कि वो तसलीमा के खिलाफ सड़क पर उतर आए? खुद को फासिस्ट कहे जाने का ख़तरा उठाते हुए भी मैं ये सवाल आपके सामने रख रहा हूं।
मक़बूल फिदा हुसैन आस्था के लिहाज़ से एक मुसलमान हैं। उन्होंने कुरान पढ़ा होगा, लेकिन क्या वे दावा करते हैं कि रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गगीता पढ़ी है। अगर पढ़ी है या नहीं भी पढ़ी है, तो क्या इन ग्रन्थों और उनके नायकों में उनकी आस्था है? अगर है, तो फिर उन्हें हिंदू होना चाहिए जो वे नहीं हैं। यानी कि उन्होंने ये ग्रंथ पढ़े नहीं हैं या फिर अगर पढ़े हैं तो उनकी आस्था उनमें जमी नहीं है। तो फिर करोड़ों लोगों की श्रद्धा के केन्द्र जिन ग्रंथों या नायकों में उनकी आस्था नहीं है, उनके साथ प्रयोग करने का उन्हें क्या अधिकार है? वे सरस्वती की निर्वस्त्र तस्वीर बनाते हैं, मुहम्मद साहब की तस्वीर क्यों नहीं बनाते? जिस भारत को वे पूजने के लिए मां नहीं मानते, उसे नग्न करने के लिए नारी मानने में उन्हें मज़ा आता है। क्या इससे साबित नहीं होता कि वे मानसिक रूप से बीमार और सामाजिक रूप से ज़हरीले हैं और ऐसे लोगों का जिस भी तरीक़े से हो सके, विरोध किया जाना चाहिए।
अब आइए तसलीमा नसरीन का अपराध देखें। तसलीमा मूल रूप से बंगलादेश की नागरिक हैं। लेकिन उन्हें अपना देश छोड़ना पड़ा। इसलिए नहीं कि उन्होंने इस्लाम का अपमान किया था, बल्कि इसलिए कि उन्होंने 1992 में बाबरी ढांचा ढहाए जाने के बाद बंगलादेश में हिंदुओं पर हुए अत्याचार पर एक क़िताब लिख डाली थी। इसके बाद भी उनकी जितनी किताबों पर हंगामा हुआ, उनमें से किसी में भी उन्होंने इस्लाम पर प्रहार नहीं किया। कठमुल्ले उनके पीछे इसलिए पड़े कि उन्होंने एक मुस्लिम महिला होने के बावजूद अपने यौन जीवन पर खुलकर लिखा। अगर कोई केवल अपनी सनक और स्वार्थ के कारण तसलीमा का विरोध कर रहा है, तो क्यों कुछ कठमुल्लों के विरोध से पूरी सरकार को घुटनों पर आ जाना चाहिए। हां, यदि तसलीमा की जगह मामला सलमान रश्दी को शरण देने का होता, तो ज़रूर भाजपाई उत्साह को दोमुंहापन कहा जा सकता था। लेकिन फिलहाल तो मुझे ये अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और अपने प्रगतिशील तमगे के बीच संतुलन बिठाते एक वामपंथी पत्रकार का दोमुंहापन ही समझ में आ रहा है।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
3 टिप्पणियां:
तथाकथित सेक्युलर पत्रकारों ने जिस तरह से देश में डरावना माहौल पैदा किया है। उसमें ये सच्चाई है कि दक्षिणपंथी किसी भी बात पर कुछ कहना बेबाक जर्नलिज्म होता है लेकिन, वामपंथ की घटिया से घटिया हरकत पर भी ऊंगली उठाने के लिए पहले दक्षिणपंथ से कोई गंदी मिसाल साथ जोड़नी पड़ती है। यही वजह है कि इन्हें एक छोटे से तबके में भले सम्मान से देखा जाए। सामाजिक स्वीकार्यता तो नहीं ही मिल पाती है।
भाजपा का लेवल तो सरनेम देखते ही लगा दिया जाता है . द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी , तिवारी, त्रिपाठी, झा , शर्मा , मिश्रा, मिश्र / बहुत कुछ ही नही हमने सबकुछ राजनीतिज्ञों के हाथ सौप दिया है / राज जिससे मिले वह नीति अपनाई जाती है . अतः किसी ख़ास वर्ग की भावनाओं के साथ बलात्कार होता देखना इनकी मजबूरी ही नही आदत बन गई है . भारत माँ , सरस्वती माँ का चीर हरण मकबूल ने किया समर्थन हिंदू समुदाय के लड़के और लड़किया कला के नाम करते रहे . नग्नता का समर्थन नग्न होकर किया जाना चाहिए था .पर सभी को कपडे मे
देखकर मन दुखी हो गया . आज केवल गन्दी चीजों के निर्माता से ज्यादा पापी उसके समर्थक को माने जाने की जरूरत है . जबतक समर्थन का विरोध दर्ज नही होगा .तबतक नंगापन का खेल जारी रहेगा . मकबूल का
दिमाग ख़राब हो सकता है उसके समर्थक का भी ख़राब हो माने जाने लायक नही .
लोग बाम माने या दक्षिण पंथी हमे अपनी बात पूरे ताकत से रखनी होगी . हमारे पास तर्क है . कोई आए बहस करे . ऑफिस मे एक कादिरी मिया हैं वे गायत्री मंत्र रोज पढ़ते हैं. एक और सहयोगी असलम भाई खुश तब होते हैं जब पाक के हाथ भारत मैच हार जाता है .
हिंदुस्तान में भावनाओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली हुई है। मकबूल फिदा हुसैन ने अश्लील तस्वीरों के ज़रिये जो कुछ किया वो भावनाओं के साथ खिलवाड़ था जबकि तसलीमा ने अपनी किताब में सच्चाई बयां की हैं। तथाकथित सेकुलर पत्रकार की टिप्पणी उनकी मजबूरी है या फिर उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति, पता नहीं.......
एक टिप्पणी भेजें