इसके बाद की कहानी भी दिलचस्प है। पटेल के बेटे-बेटियों का हममें से कोई नाम तक नहीं जानता, लेकिन नेहरू की बेटी पूरे देश की बेटी बन गई। गांधी जी की गोद में खेलती इंदिरा से लेकर फिरोज से विवाह के बंधन में बंधती इंदिरा तक की तस्वीरें, देश की धरोहर बनती गईं। इंदिरा को लिखी नेहरू की चिट्ठियों से साफ है कि नेहरू आजादी के पहले से ही उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने की योजना बना चुके थे। इसके कारण समझना भी मुश्किल नहीं है। जवाहरलाल अपने जमाने के देश के गिने-चुने वकीलों में से एक मोतीलाल के बेटे थे। गोखले सरीखे विशाल कद वाले राजनेता का उनके घर आना-जाना था। राजनीति उन्हें विरासत में मिली थी। उनके पास आनंद भवन जैसा विशाल महल था। उनके पास पिता से मिली आलीशान विरासत थी। पटेल के पास कुछ नहीं था। राजनीति में उनका प्रवेश न अपने पारिवारिक रसूख के कारण था, न किसी महान राजनीतिक हस्ती से करीबी के कारण। देश के प्रति जज्बा और जनता से उनके दिल का रिश्ता ही उन्हें राजनीति में लेकर आया। इसलिए वह कभी गांधी जी को नेता मानने के बावजूद, उन्हें असीम सम्मान देने के बावजूद वह कभी उनके व्यक्तित्व में विलीन नहीं हुए। और इसलिए उनकी राजनीतिक धारा भी उनके साथ ही खत्म हो गई।
सुभाष चन्द्र बोस हों या तिलक, भगत सिंह हों लाला लाजपत राय, उन्होंने अपने सिद्धांतों की राजनीति की। न दूसरों की विरासत का बोझ ढोया, न किसी के ढोने के लिए अपनी विरासत का बोझा बनाया। लेकिन नेहरू ने वही किया। उनकी राजनीति का उद्देश्य साफ था। देश की जनता ने सोचा एक राजकुमार अगर अपना राजमहल छोड़ हमारे लिए सड़क पर आया है, तो यह उसका त्याग है। उसी त्याग की विरासत इंदिरा को मिली। शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने तक इंदिरा का कद बहुत बड़ा नहीं हुआ था। लेकिन अपनी निष्ठा की दुहाई देने वाले अर्जुन सिंह जैसे नेताओं की पहली पीढ़ी के सामने संकट था। शास्त्री जी जैसे नेताओं के रहते उनका साम्राज्य नहीं चल सकता था। इसलिए इंदिरा को मजबूत करने का काम शुरू हुआ जिसका परिणाम कांग्रेस के विभाजन के तौर पर सामने आया। इंदिरा ने तमाम राजनीतिक प्रपंच कर अपने विरोधियों को पटखनी दी, अवैध तरीके से चुनाव जीतीं और फिर अपनी सत्ता पुख्ता करने के लिए आपातकाल लगाया। लेकिन वह सब उनका बलिदान था। जैसे उन्होंने यह सब कुछ इसीलिए किया था क्योंकि उन्हें पता था कि 31 अक्टूबर 1984 को सतवंत सिंह और बेअंत सिंह उन्हें अपनी गोलियों का निशाना बनाने वाले हैं। इंदिरा जी की हत्या के बाद देश अनाथ हो गया। 80 करोड़ की जनता में इंदिरा जी के बड़े बेटे राजीव को छोड़कर एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो प्रधानमंत्री बन सके। इसलिए यह जानते हुए भी कि 1989 की 21 मई को श्रीपेरुंबुदूर में लिट्टे के हमले में उनकी मौत हो जाएगी, वे प्रधानमंत्री बने। जानते हुए इसलिए कह रहा हूं कि केवल तभी उनके प्रधानमंत्री बनने को बलिदान कहा जा सकेगा। उसके बाद सालों तक ना-ना कहने के बाद इटली की गलियों में खेलकर बड़ी हुईं और ब्रिटेन में पढ़ी-लिखीं सोनिया जी, जो राजीव जी से प्रेम करने के कारण पूरे भारत की बहू बन गईं, कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। फिर उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर बलिदान की वह गाथा लिख दी, जो त्रेता युग के
राम-भरत प्रकरण के बाद दिखी ही नहीं थी। यह अलग बात है कि राम ने जंगल में जाकर जो गलती की थी, उसे न दुहराते हुए सोनिया जी ने अपने निवास 10, जनपथ को देश सेवा का वह केन्द्र बनाया जिसके कारण दुनिया की 100 सबसे प्रभावशाली हस्तियों की फोर्ब्स की सूची में प्रधानमंत्री को तो जगह नहीं मिल सकी, सोनिया जी जरूर उसमें शामिल हो गईं। अब त्याग और बलिदान की यही गाथा लिखने की तैयारी युवराज कर रहे हैं।
तो क्या कांग्रेस का बहुरंगी शामियाना फिर तन पाएगा। मुझे तो मुश्किल लगता है। क्योंकि अब जनता उतनी भावुक नहीं रही। जनता अब अपने जीवन में वास्तविक बदलाव होते देखना चाहती है। एक गरीब, तंगहाल, अछूत माने जाने वाले दलित के घर देश के सबसे बड़े ब्राह्णण का रुकना जरूर इस उपेक्षित समाज के मन पर एक अच्छी छाप छोड़ेगा। लेकिन उसके जाने के बाद उसकी झोपड़ी क्या महल बन जाएगी? क्या थाने का हवलदार उस पर डंडा फटकारना बंद कर देगा? गांव के ठाकुर साहब या पंडित जी क्या उसे हिकारत की नजर से देखना बंद कर देंगे? दूसरी ओर क्या कांग्रेस का संगठन ऐसा है, जो मन पर पड़े इस अच्छे छाप को बैलेट पेपर पर हाथ छाप में बदल पाएगा? इन सभी सवालों का जवाब नकारात्मक है।
दूसरी एक जो बात उड़ीसा के एससी, एसटी सम्मेलन में हुई, उसके भी दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। युवराज की बैठक से सभी गैर एससी, एसटी नेताओं, कार्यकर्ताओं को बाहर कर दिया गया। इसका उन कार्यकर्ताओं के मन पर क्या असर हुआ होगा? संगठन शास्त्र में हर कार्यकर्ता की भूमिका चुंबक की होती है, जो सामान्य लोहे को पहले तो खुद से चिपका कर संगठन में ले आता है और फिर धीरे-धीरे लंबे संपर्क से उसे भी चुंबक यानी कार्यकर्ता बना देता है। नए सदस्यों को पार्टी के संस्कार में दीक्षित करना भी अंतिम पंक्ति के कार्यकर्ता की ही जिम्मेदारी होती है। ऐसे में नए कार्यकर्ताओं में अपमानबोध होना या अपने कॅरियर को लेकर उनके मन में असुरक्षा का भाव पैदा होना, संगठन की कब्र खोदने के लिए काफी है।
इन सबके बावजूद अप्रैल-मई की जलती गर्मी में धूल भरे रास्तों पर घूमते हुए हर तरह से सुविधाविहीन घरों में राहुल गांधी का रुकना और देश के सबसे ज्यादा वंचित समाज की जरूरतों और उनके दुखों को समझने की कोशिश करना मुझे एक ऐसी ईमानदार कोशिश लगती है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए। अगर राहुल इनमें से कुछ भी न करें तो भी अपने जीवन काल में उनका देश का प्रधानमंत्री बनना तय है। ऐसे में देश की उनकी समझ, एक आम आदमी की परेशानियों की समझ और संगठन को जमीनी स्तर पर देखने से बनी उनकी समझ का दूरगामी फायदा उनकी पार्टी और देश को होगा, यह मानने में मुझे कोई परेशानी नहीं है। राजनाथ सिंह जब भाजपा के अध्यक्ष बने थे तो भी मेरा मानना यही था कि क्योंकि वह कभी एक राष्ट्रीय नेता नहीं रहे, तो उन्हें 2 साल का समय देश के हर प्रखंड में जाकर वहां के पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच 2-3 दिन रहने, उनकी समस्याओं को समझने और संगठन से परिचय करने में लगाना चाहिए। लेकिन राजनाथ सिंह का मानना कुछ और था। उन्होंने इस समय का सदुपयोग पार्टी में दूसरी पंक्ति के अन्य नेताओं को निपटाने में, अपने बेटे की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति करने, उत्तर प्रदेश में पार्टी का अपराधीकरण करने और ठाकुरवाद फैलाने में करना ज्यादा जरूरी समझा। परिणाम सामने है कि भाजपा एक अचेत विपक्ष बन कर रह गई है।
तो अगर लेख का निचोड़ देना हो तो मैं यही कहूंगा कि युवराज यानी राहुल गांधी के जमीनी दौरों से यह उम्मीद तो नहीं है कि पार्टी एक बार फिर 50 और 60 के दशक का रुतबा पा लेगी, लेकिन खुद राहुल के लिए और पार्टी के लिए इसके कुछ फायदे हो सकते हैं। बशर्ते कि राहुल खुद पार्टी को जातिगत आधार पर बांटने का राजनीतिक खेल न खेलें और एक ऐसी पार्टी बनाने की कोशिश करें जहां पहले से मजबूत जातियां कमजोरों का हाथ पकड़ कर पार्टी प्लेटफॉर्म पर खींचने को तैयार हों।
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1 टिप्पणी:
जिसे देखिये उन्हें युवराज कहे जा रहा है. आपने भी अपने एक् लेख में न जाने कितनी बार उन्हें युवराज कह डाला. आपके युवराज कहने से कितनी तकलीफ पहुँचती है उन्हें इसका कोई ख्याल किया लोगों ने. वह कह चुके हैं की मुझे युवराज न कहें. पर लोग भी अजीब है. युवराज कहने की जैसे कसम उठा रखी है. राजा को युवराज कहेंगे तो बुरा नहीं लगेगा क्या? युवराज तब कहते हैं जब कोई राजा होता है. कोई राजा है क्या भारत देश में? सब तो उन्हीं की कृपा से यहाँ वहाँ कुर्सियों पर बैठे हैं. बंद करें लोग अपने राजा का अपमान करना. यह अच्छी बात नहीं है.
भारत देश में दूसरों को इस्तेमाल करने की प्रथा बहुत पुरानी है. नेहरू ने गाँधी को इस्तेमाल किया और पटेल और नेताजी जैसे काबिल लोगों को एक् किनारे कर दिया. इंदिरा ने मरने के बाद भी ग्यानी जी को इस्तेमाल किया और उन्होंने राजीव को प्रधान मंत्री की शपथ दिला दी. सोनिया ने बी जे पी को इस्तेमाल किया और सत्ता में आ गई. इंदिरा और राजीव प्रधानमंत्री बन कर जानी नुकसान उठा चुके थे. सोनिया ने वह गलती नहीं की. बिना जिम्मेदारी लिए ताकत कैसे मुट्ठी में बंद की जाती है इस का मापदंड स्थापित किया उन्होंने. चमचों ने उसे वलिदान कहा. अब वह मुट्ठी की ताकत धीरे धीरे सोनिया की मुट्ठी से राहुल की मुट्ठी में ट्रांसफर की जा रही है.
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