उत्तर प्रदेश की राजनीति आधुनिक भारत की एक ऐसी ज़मीन मानी जाती है, जहां दलित-पिछड़ा मुखी राजनीति सबसे ज्यादा मुखर हुई है। मायावती को दलितों की राजनीतिक चेतना का सबसे स्वाभिमानी चेहरा बताकर पेश किया जाता है और उनकी सैकड़ों करोड़ की निजी संपत्ति और हीरों के जगमग हार किसी व्यक्ति के नहीं, बल्कि एक पूरे समाज के वैभव का प्रतीक बन जाते हैं। अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार तो दूर, कोई अपशब्द कहने के लिए भी जितने कड़े कानून उत्तर प्रदेश में हैं, उतने देश के किसी दूसरे हिस्से में नहीं। फिर भी केंद्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इन जातियों के खिलाफ अपराध की सबसे ज्यादा घटनाएं यहीं हो रही हैं।
ऐसा क्यों होता है? जहां सबसे ज्यादा कानून होते हैं, वहीं कानून की सबसे ज्यादा धज्जियां क्यों उड़ाई जाती हैं? अमेरिका में अपराध विज्ञान सबसे ज्यादा उन्नत है, वहां अपराध भी सबसे ज्यादा उन्नत तरीके से किए जाते हैं। पिछड़े गरीब देशों में पुलिस डंडे से काम चलाती है, वहां अपराधी भी चोरी, झपटमारी और गिरहकटी तक ही सीमित रहते हैं। यह पहले मुर्गी या पहले अंडे जैसा कुछ मामला लगता है। अपराधों को नियंत्रित करने के लिए कानून बनते हैं और फिर कानून की काट के लिए अपराधी रास्त ढूंढते हैं। लेकिन क्या उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों के प्रति बढ़ता अपराध केवल कानून-व्यवस्था का मसला है?
किसी व्यक्ति या समाज में आक्रामकता बढ़ने के दो मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं। एक तो अपनी ताकत का अहंकार और दूसरा असुरक्षा की भावना। वैदिक काल में जब तक ब्राह्णण और अन्य कथित सवर्ण जातियां अपने पवित्र आचरण के दायित्व बोध से लदी होती थीं, तब तक समाज में उनका प्रभाव अपने आप कायम था। लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने आचरण की पवित्रता को गंगा में बहा दिया और कोई ऐसा घृणित और अनुचित काम नहीं रह गया, जो किसी खास जाति से अछूता रह गया। स्वाभाविक तौर पर उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और असर कम हुआ। लेकिन ठसक नहीं गई। तो उन्होंने अपनी दबंगता कायम रखने के लिए दूसरी जातियों पर अत्याचार शुरू कर दिया।
बाद में देश गुलाम हुआ फिर आजाद हुआ और फिर देश में समतामूलक समाज की स्थापना के सिद्धांत बनाए गए। एक व्यक्ति-एक मत ने धीरे-धीरे सवर्णों की राजनीतिक सत्ता में सुराख करना शुरू किया और साथ ही उनकी सामाजिक सत्ता भी डोलने लगी। फिर आया मंडल राजनीति का दौर। इस दौर ने सवर्णों की सत्ता के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी। सवर्णों ने अपनी राजनीतिक-सामाजिक सत्ता का पराभव स्वीकार कर लिया। लेकिन क्योंकि सत्ता का सिंहासन कभी खाली तो रहता नहीं, इसलिए नए ब्राह्णणों, नए ठाकुरों का जन्म हुआ। कुर्मी, कोइरी, यादव, लोध, जाट, मीणा जैसी पिछड़ी जातियों की अगुवाई में राजनीतिक सत्ता पिछड़े और अन्य पिछड़े वर्गों के हाथों में सरक गई। अब इन नए ब्राह्णणों को भी पुराने ब्राह्णणों का रुतबा और उनकी ताकत चाहिए थी। तो इसके लिए उन्हें चाहिए था नया कमजोर वर्ग। और इस बार दलितों की बारी आई।
दक्षिण भारत के मंदिरों में प्रवेश का संघर्ष बिहार और उत्तर प्रदेश के सामाजिक संघर्ष से बिलकुल अलग है। दक्षिण में अब भी ब्राह्णणों की पवित्रतावादी और अव्यवहारिक मूर्खता से इस तरह की स्थितियां पैदा होती हैं। लेकिन उत्तर भारतीय राज्यों में दलितों पर होने वाला अत्याचार शुद्ध तौर पर सामाजिक है। यह अत्याचार किसी जाति पर नहीं, बल्कि गरीबी और पिछड़ेपन पर है। किसी बड़े किसान के खेत में घुसने वाली बकरी एक ब्राह्णण, राजपूत, यादव, कुर्मी या जाट की भी हो सकती है, लेकिन अगर कहीं वह किसी दलित की हुई तो उसकी शामत आनी तय है। समाज के नए या पुराने ब्राह्णणों के घर में आई किसी भी आफत के लिए एक गरीब, बेचारी दलित औरत को जिम्मेदार ठहराकर उसे नंगा किया जा सकता है, उसकी परेड कराई जा सकती है।
पिछले 60 साल में बनाए गए कानून उनकी मदद कर पाने में नाकाम रहे हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कानून खत्म कर दिए जाएं। लेकिन यह भी सच है कि कानून बनाकर वोट तो लिए जा सकते हैं, इन अत्याचारों को रोका नहीं जा सकता। इन्हें रोका जा सकता है केवल और केवल सामाजिक बदलाव से। क्योंकि सामाजिक बदलाव की जो कोशिशें हो रही हैं, उनका आधार प्रेम नहीं, घृणा है। अमुक जाति ने कल तक हम पर अत्याचार किया, इसलिए अब हमें ज्यादा ताकत मिलनी चाहिए (ताकि हम उनपर अत्याचार कर सकें)- यह है सामाजिक बदलाव का आधुनिक सिद्धांत। इस सिद्धांत की परिणति संघर्ष ही हो सकती है, समरसता नहीं और इसलिए लालू, मुलायम, पासवान या मायावती जैसे नेता अपनी राजनीति तो चमका सकते हैं, दलितों को सम्मान नहीं दिला सकते।
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1 टिप्पणी:
एकदम झक्कास ! मन माफिक ! मैंने देखा है राजनीति मे प्रत्येक क्रिया की विपरीत प्रतिक्रिया होती है . जाति और दलित पर विमर्श करते अज्ञानता मे डूबे बेशर्मों को आपका लेख पढाया जाना चाहिए . दुबारा पोस्ट करिये इसे
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