रविवार, 4 मई 2008

खाने की असभ्यता से उपजा अनाज का विश्वव्यापी संकट

खाना हमेशा से सभ्यता का प्रतीक रहा है। आप क्या खाते हैं और कैसे खाते हैं, इसी से तय होता है कि आप कितने सभ्य हैं। यहां सभ्यता शब्द दरअसल अनुवाद है अंग्रेजी के सिविलाइजेशन का, जिसका इस्तेमाल अंग्रेजों ने सदियों से तीसरी दुनिया के देशों को बर्बर यानी असभ्य बताने के लिए किया है। लेकिन यह अकेले अंग्रेजों की बात नहीं है, बचपन से घरों में हम सुनते आए हैं कि 'आदमी की तरह खाया करो', खाने में ज्यादा हबड़-हबड़ मत करो, खाने में चभड़-चभड़ की आवाज नहीं होनी चाहिए आदि। कई सालों तक छुरी-चम्मच से नहीं खाने की कुंठा मुझे भी सालती रही और वह खत्म तभी हुई जब मैंने यह महान कला सीख ली। खाने के तरीके पर पूरी एक संहिता है जो हमें पश्चिमी देशों से मिली है।

इसलिए जब पहली बार मैंने अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस से यह सुना कि भारतीयों और चीनियों के ज्यादा खाने से पूरी दुनिया में अनाज का संकट पैदा हो गया है, तो मुझे ताज्जुब नहीं हुआ। अब अमेरिकी राष्ट्रपति और विशेषज्ञ भी इसी सिद्धांत की पुष्टि कर रहे हैं। इससे पहले मैंने कहीं पढ़ा था कि दुनिया भर में अनाज संकट पैदा होने के पीछे मुख्य दोषी अमेरिका है, जिसने करीब 1 करोड़ टन अनाज को जैव ईंधन में बदल दिया है।

अब यही तो सभ्यता और असभ्यता का कंट्रास्ट है। असभ्यों का आरोप है कि सभ्यों ने खाने का सारा माल ईंधन में बदल दिया। यानी वह काम जो वे खुद नहीं कर सकते, वह काम जिसमें बहुत उच्च तकनीक और बहुत विज्ञान चाहिए। दूसरी ओर सभ्यों का कहना है कि संकट इसलिए पैदा हुआ कि असभ्यों ने बहुत खा लिया। इसलिए कि उनके पास अभी हाल में बहुत पैसे आ गए। समझे आप! यानी अमेरिकियों का मानना है कि अगर आपकी आमदनी महीने के दस हजार रुपए हैं तो आप एक किलो अनाज खाएंगे और अगर आपके पड़ोसी की 1 लाख रुपए महीने तो वह दस किलो अनाज खाएगा। क्या सच में ऐसा हो सकता है। नहीं न! अगर एक सामान्य आदमी महीने में 1 किलो खा सकता है तो उसकी आमदनी कितनी भी हो, वह 1 किलो ही खाएगा। तो दूसरा मतलब तो यही हो सकता है कि जहां पहले दस में से एक आदमी को भर पेट भोजन मिल पाता था, वहीं अब शायद छह लोग भरे पेट सो सकते हैं। अगर ऐसा है तो क्या भारत या चीन इसीलिए दोषी हैं कि उनके यहां अब कुछ कम लोग भूखे पेट सो रहे हैं।

उसमें भी खुद अमेरिकी कृषि विभाग के आंकड़ों को देखें तो भारत में हर आदमी साल भर में केवल 178 किलो अनाज खाता है जबकि अमेरिका में हर आदमी 1,046 किलो अनाज खा जाता है। अब ऐसा तो है नहीं कि राइस या बुश को ये आंकड़े पता न हों। तो फिर भारतीयों को पेटू कहने का मतलब। इसे इस तरह से समझिए। हमारे गांव में अगर 1,000 लोगों का एक भोज देना हो तो सारे प्रबंध करने के बाद एकदम टॉप क्लास खाने पर मेरे करीब एक लाख रुपए खर्च होंगे। यानी हर आदमी पर करीब 100 रुपए। यहां दिल्ली में इनते रुपए में शायद 100 लोगों को भी टॉप क्लास रिसेप्शन न दिया जा सके। यानी हर आदमी पर 1,000 रुपए भी कम। लेकिन गांव में आपको चावल शायद ढाई सौ किलो खरीदना हो जबकि दिल्ली में 20 किलो चावल भी ज्यादा पड़े। तो यह गणित है सभ्यता और असभ्यता का। सभ्य जहां 20 किलो चावल खाने में 1 लाख रुपए खर्च करते हैं, वहीं असभ्य इतने में 250 किलो चावल खा जाते हैं।

राइस और बुश अमेरिकियों के अधिक खाने का यह गणित समझते हैं। अमेरिकी भात और रोटी खाने पर चावल, गेहूं बरबाद नहीं करते। वह चावल और गेहूं खिलाते हैं गायों और सुअरों को और फिर खाते हैं उनका मांस। अमेरिका में गेहूं की बड़ी खपत होती है शराब बनाने में। जबकि हम तो बस ये सब सान-मान के पकाते हैं और खा जाते हैं। इसीलिए दुनिया के अनाज संकट के लिए सबसे बड़े दोषी हैं भारत और चीन। क्योंकि दोषी हमेशा गरीब होते हैं, कमजोर होते हैं।

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