बात वहीं से शुरू करते हैं जहां सुबह छोड़ी थी। बदलाव एक दोधारी तलवार है। चाहे हमारा अपना जीवन हो, हमारा समाज हो या फिर हमारा देश, हम हमेशा बदलावों को लेकर आशंकित होते हैं, असुरक्षित महसूस करते हैं। रत्नाकर का वाल्मीकि होना बदलाव है, तो विश्वामित्र जैसे राजर्षि का पतित होना भी बदलाव है। बदलाव के प्रति इसी नजरिए के कारण मैं अब तक तय नहीं कर पाया हूं कि मुझे ये डेज़ मनाने का विरोध करना चाहिए या समर्थन। इस असमंजस के बावजूद मैं भी वैलेंटाइन डे को प्रेमी दिवस, फादर्स डे को पिता दिवस या मदर्स डे को मां दिवस नहीं बोल पाता। तो इसीलिए मैंने सुबह अपना यह सवाल रखा था कि ऐसा क्यों है?
निश्चित तौर पर दिवसों को मनाने की यह परंपरा पश्चिमी समाज की देन है। लेकिन क्या केवल इसीलिए यह गलत हो जाती है। फिर तो 'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी'। दरअसल समस्या की जड़ हर बात को केवल सही या गलत के खांचे में बांटने की हमारी आदत है। रामनवमी और कृष्णाष्टमी का त्योहार भी तो राम और कृष्ण के जन्म दिवस ही हैं। अगर उन्हें मनाना हमारी आत्मिक और आध्यात्मिक चेतना को ऊंचा उठाने की प्रक्रिया है तो फिर मदर्स या फादर्स डे में क्या बुराई है?
सच में, कोई बुराई नहीं है। उसी तरह जैसे अगर किसी को कैंसर हो जाए, तो उसकी दवा खाने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन अगर यही दवा टायफाइड के मरीज को खिलाई जाने लगे तो? जी हां, तब यह बुराई ही नहीं, जीवनघाती भी हो सकती है। पश्चिम के समाज में मदर्स, फादर्स या पैरेंट्स डे एक दवाई की तरह है। एक ऐसा समाज जहां बूढ़े मां-बाप, विधवा बुआ, पीड़ित बहन आदि के लिए पति-पत्नी और बच्चे के एकल परिवार में कोई जगह नहीं। उन्हें रखने के लिए, उनके पालन-पोषण के लिए तमाम सरकारी इंतजाम हैं और उनके जिगर के टुकड़ों से बस यही उम्मीद की जाती है कि कम से कम साल भर में एक बार तो वे कुछ कार्ड्स, कुछ उपहार और कुछ मीठी बातें लेकर जीवन के आखिरी पल का इंतजार कर रहे अपनी मदर और अपने फादर से मिलने आ जाया करें।
ऐसे समाज में मदर्स, फादर्स या पैरेंट्स डे का सचमुच काफी महत्व है। लेकिन उस समाज में इसका क्या काम, जहां मां-बाप आखिरी क्षण तक बेटे-बेटियों के जीवन का हिस्सा होते हैं। ये मैं वेदों, पुराणों की सूक्तियों की बात नहीं कर रहा। आज भी आप किसी अस्पताल में चले जाइए या तीर्थ स्थान पर चले जाइए, आपको इस तथ्य की सच्चाई पता चल जाएगी।
आज मदर्स डे है। तो क्या? मेरी मां के प्रति मेरी जिम्मेदारियों का अहसास तो कल भी था और कल भी रहेगा। मेरी मां के प्रति मेरा प्यार कल भी उतना ही गहरा था, जितना कल रहेगा। मेरी मां के लिए मेरे जीवन का हर पल कल भी उतना ही उपलब्ध था, जितना कल रहेगा। मेरे लिए तो साल के सभी 365 दिन मदर्स डे होते हैं। लेकिन वक्त की लहर के साथ बहना भी तो होगा। स्कूलों में मदर्स डे के नाम पर मांओं को बुलाया जा रहा है, तो वहां तो जाना ही होगा। अंग्रेजी स्कूलों में मदर्स डे का महिमामंडन कर उसके नाम पर बच्चों को प्रेरित किया जा रहा है कि वे अपनी मांओं को कार्ड दें, गिफ्ट दें। तो बच्चों की भावनाओं का सम्मान करने के लिए इसमें सहयोग तो करना ही होगा। फिर क्या हमारे बच्चे भी धीरे-धीरे यह नहीं मानने लगेंगे कि मां को प्यार करने का साल में केवल यही एक दिन होता है? शायद मानने लगें। लेकिन इसका हल यह नहीं हो सकता कि हम अपने बच्चे की भावनाओं को कुचल दें। इसका हल एक ही है कि हम अपने बच्चों में मजबूत और पवित्र संस्कारों के जरिए यह सुनिश्चित करें कि वह मां या पिता की भारतीय अवधारणा को समझे। उनका आध्यात्मिक महत्व जाने।
मेरे कम्युनिस्ट मित्र माफ करेंगे। लेकिन अगर उन्हें अपना बुढ़ापा ओल्ड एज होम्स में न गुजारना हो, तो उन्हें भी ऐसा करना चाहिए, भले ही सार्वजनिक तौर पर वे भारतीयता और आध्यात्मिकता को गाली देते फिरें। शायद उनका वैचारिक दुराग्रह उन्हें यह स्वीकार करने से रोके, लेकिन एक भारतीय मां और ए मदर का अंतर तो वे भी बखूबी समझते हैं, तभी तो मदर्स डे को मां दिवस वे भी नहीं कह पाते।
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