कांग्रेस के युवराज दलितों के घरों का दौरा कर रहे हैं और बहन जी के पसीने छूटने शुरू हो गए हैं। तीसरी-चौथी के बच्चों की आपसी लड़ाई के स्तर पर वह सार्वजिनक तौर से आरोप लगा रही हैं कि युवराज दलित के घर से जाने के बाद खास साबुन से नहाते हैं। इधर मीडिया में अटकलें लगने लगी हैं कि अपने दौरों से युवराज कांग्रेस को उसकी खोई जमीन कितनी वापस दिला पाएंगे।
दरअसल राजनीतिक विश्लेषकों को मैंने अक्सर यह कहते सुना है कि कांग्रेस आजादी के बाद चार दशकों तक अपने बहुरंगी शामियाने के भीतर देश के सभी वर्गों, सभी मजहबों और सभी जातियों को समेटे रही। लेकिन बाद में क्योंकि संकीर्ण स्वार्थों का पोषण करने वाली बहुत सी क्षेत्रीय पार्टियां भारत के राजनीतिक पटल पर उभरती गईं, तो कांग्रेस का वोट आधार बिखरता गया। मुझे लगता है कि यह उन कई झूठे सिद्धांतों में से एक है, जो आजादी के बाद से देश में योजनापूर्वक फैलाया गया है।
दरअसल आजादी के चार दशकों तक देश में कांग्रेस का एकछत्र राज्य देश की जनता के राजनीतिक भोलेपन और अशिक्षा का नतीजा था। आज भी कई कांग्रेसी बेवकूफी मिश्रित श्रद्धा से नेहरू-गांधी परिवार के बलिदानों की बात करते हैं। सिंधिया परिवार, वी पी सिंह, अर्जुन सिंह जैसे रजवाड़ों के वंशजों के प्रति उनके इलाकों के लोगों की श्रद्धा हमारी उसी वंशवादी राजनीतिक मानसिकता के प्रतीक हैं, जिनकी बात ये कांग्रेसी करते हैं। नहीं तो, अरबी हमलावरों, मुगलों और अंग्रेजों के हजार साल के शासन के बाद भी अगर कोई रजवाड़ा अपना किला, अपना ऐश्वर्य और अपना धन सुरक्षित रखने में कामयाब रहा, तो मतलब साफ है कि उसने देश और देश की जनता के खिलाफ विदेशी षड्यंत्रों में साझेदारी की, गरीबों का खून चूसा और आजादी के परवानों को अंग्रेजों के जाल में फंसाया। क्योंकि महाराणा प्रताप और भगत सिंह सरीखों के परिवारों का तो आज नामोनिशान भी नहीं मिलता, किलों और रजवाड़ों की तो बात ही क्या?
आज हम नेहरू और पटेल के विचारों, उनकी समझ, उनके सिद्धांतों और उनके जीवन के आधार पर यह विवेचना करने की कोशिश करते हैं कि देश का पहला प्रधानमंत्री किसे बनना चाहिए था। लेकिन 1947 की कल्पना कीजिए। साक्षरता दर 14 फीसदी थी, मतलब ग्रैजुएट कितने होंगे और उनमें भी ऐसे कितने होंगे जो वास्तव में अखबार पढ़ते होंगे, रेडियो सुनते होंगे। सोचिए, शायद 1 या 2 फीसदी। दूसरी ओर 85-90 फीसदी से ज्यादा ऐसी जनता थी, जो गांवों में रहती थी, साइकिल भी जिनके लिए लग्जरी होती थी और अंग्रेजी, हवाई जहाज या मोटर गाड़ी उनके लिए राजा-रानी के किस्सों का हिस्सा हुआ करते थे। जवाहरलाल नेहरू इन्हीं कहानियों के राजकुमार थे। उनकी नफासत, उनकी शेरवानी, उनकी जेब में लगा गुलाब, उनका अंग्रेजी रहन-सहन जनता के लिए ख्वाबों की तरह था और राजा की उनकी कल्पनाओं में फिट बैठता था। उनका स्वतंत्रता आंदोलन में कूदना देश और जनता पर उनकी कृपा के तौर पर देखा गया। दूसरी ओर पटेल का रहन-सहन, बोली, एटीट्यूड सब कुछ खालिस देसी था। वह चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा नहीं हुए थे, इसलिए आजादी के लिए उनका संघर्ष उनका कर्तव्य माना गया। यह मानसिकता समझना आज भी मुश्किल नहीं है। इसके बावजूद कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद के लिए पटेल को ही ज्यादा योग्य माना और यह सब इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुका है किस तरह गांधी जी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए पहले सुभाष चन्द्र बोस को और फिर पटेल को कमजोर कर नेहरू की राह साफ की। जनता ने गांधी जी के प्रति श्रद्धा और नेहरू के प्रति अपने आह्लाद के कारण उन्हें तुरंत स्वीकार स्वीकार कर लिया। .......(जारी)
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1 टिप्पणी:
निहायत ईमानदार लेख ! बधाई ! बढ़िया लिखतें हैं कम से कम दो रोज का अंतराल तो दें. प्रिंट मीडिया मे भी छापना जरूरी है .
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