शनिवार, 10 मई 2008

छगन लाल और खली के लिए कानून के चेहरे अलग-अलग क्यों हैं?

मेरा नाम छगन लाल है। एक फरियाद करना चाहता हूं। दरअसल मैंने दो साल पहले अपने ऑफिस में सिक लीव के लिए अर्जी दी थी। सिक लीव यानी छुट्टी की अर्जी जिसका कारण मैंने इस बुरी तरह बीमार होना बताया था, कि आफिस आने में समर्थ नहीं था। लेकिन आपको एक राज की बात बताउं,किसी से कहिएगा नहीं। मुझे एक जबर्दस्त ऑफर मिला था, अमेरिका जाकर कुश्ती लड़ने का। अब उस अनिश्चित ऑफर के लिए मैं लगी लगाई सरकारी नौकरी तो छोड़ नहीं देता न। मैंने सिक लीव की अर्जी बढ़ा दी और निकल लिया अमेरिका कुश्ती लड़ने। लेकिन मेरी किस्मत, मैं सफल नहीं हो सका।

मेरे प्रायोजकों ने क्योंकि मेरे पर काफी पैसे खर्च कर दिए थे, तो मैं यूं तो आ नहीं सकता था। तो मैं छोटी-मोटी प्रतियोगिताओं में लड़कर उनका घाटा पूरा करता रहा और आखिकार 2 साल बाद मुझे किसी तरह देश लौटने का मौका मिल सका। इस बीच कोई चारा नहीं होने के कारण अपनी सिक लीव बढ़ाता गया था। सो लौटकर सोचा पुरानी नौकरी में ही एक बार फिर लौट जाउं। ज्वाइन करने गया, तो मुझसे कहा गया कि पूरे दो साल के मेडिकल सर्टिफिकेट और दवाओं की रसीद लेकर आउं। किसी तरह कर्ज लेकर कुछ पैसे जुटाए। डॉक्टर को कुछ घूस वगैरह देकर सारे कागज जुटाए और लेकर पहुंच गया ऑफिस। पर ये क्या? वहां मेरा इंतजार पुलिस कर रही थी। किसी ने अमेरिका में मेरी कुश्ती वाली तस्वीरें बॉस तक पहुंचा दीं और ऑफिस में गलत जानकारी देने, धोखाधड़ी करने और कुछ और आरोपों में 4-5 धाराएं लगाकर पुलिस ने मुझे बंद कर दिया। अब आज ही मैं किसी तरह जमानत पर छूटा हूं। घर पहुंच कर कुछ अखबार देख रहा था। मेरी नजर एक ऐसी खबर पर पड़ी कि मेरे तनबदन में आग लग गई। व्यवस्था में मेरा कोई विश्वास रहा नहीं, इसलिए फरियाद लेकर आपके दरबार में आया हूं।

यह खबर है दिलीप सिंह राणा की जिसे अब सब इज्जत से द ग्रेट खली कहकर पुकारते हैं। अमेरिका में दो साल तक एक ऐसा खेल (?) खेलने के बाद वह भारत आया है, जिसके खिलाड़ी से लेकर दर्शक तक, सभी ज्यादा से ज्यादा पशुता प्रदर्शित करने को ही प्रतिष्ठा का प्रतीक मानते हैं। देश के नेता, अभिनेता, पुलिस, मीडिया सब उसके सामने हाथ बांधे खड़े हैं और अखबार उसी के फोटो से रंगे हैं। बच्चे उसे अपना हीरो मानने लगे हैं और वह एक नेशनल कैरेक्टर बन गया है। यह अलग बात है कि उसे देश में यह शोहरत एक ऐसे कथित खेल के लिए मिल रही है, जिसके खिलाड़ी आदमी कम जानवर ज्यादा दिखते हैं और जिसका भारतीय सोच और संस्कृति से दूर-दूर तक का भी कोई वास्ता नहीं हैं। खैर, यह तो है मेरी भड़ास। लेकिन मेरी फरियाद कुछ और ही है।

दिलीप सिंह अमेरिका जाने से पहले पंजाब पुलिस में हवलदार हुआ करता था (हालांकि वीकीपीडिया उसे 'ऑफिसर इन पंजाब पुलिस' लिखता है)। वह अमेरिका गया लेकिन उसकी हवलदारी नहीं गई। मेरी तरह वह भी सिक लीव लेकर गया और मेरी ही तरह दो साल तक इसे बढ़वाता रहा। वक्त की बात उसका धंधा चमक गया और वह लाखों-करोड़ों डॉलर का मालिक बन गया। मेरी तस्वीर तो ज्वाइनिंग के बाद बॉस के पास पहुंची, लेकिन वह साल भर से अखबारों की सुर्खियां बनता रहा है, टीवी पर लोग रातों को जगकर उसकी वहशियाना लड़ाई देखते रहे हैं। अखबार पढ़ने और टीवी देखने वालों में पंजाब पुलिस के जांबाज अधिकारी भी रहे होंगे। लेकिन अब जब वह भारत आया और जैसा कि हमारे यहां अक्सर होता है, उसे सजदा करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कमर झुकाने की होड़ शुरू हुई। पंजाब पुलिस भला कैसे पीछे रहती। तो द ग्रेट खली को प्रोन्नति देने की घोषणा कर दी गई।

व्यवस्था का इससे घिनौना मजाक क्या हो सकता है? जिस आदमी को पूरी दुनिया लड़ता, लोगों को हाथों में लेकर उछालता और चिग्घाड़ता देख रही है, उसे बीमार होने के नाम पर छुट्टी लेने के बावजूद प्रमोशन दिया जा रहा है। दूसरी ओर इसी अपराध के लिए मैं यानी छगन लाल जेल और कचहरी के चक्कर लगा रहा हूं, नौकरी गई सो अलग। छगन लाल और दिलीप सिंह राणा उर्फ द ग्रेट खली के साथ यह अंतर क्यों? मैं मानता हूं कि मैंने गैर कानूनी काम किया, तो क्या खली इसीलिए कानूनी है क्योंकि वह अमेरिका के मानकों पर सफल है? कानून की देवी कब तक अपनी आंखों पर पट्टी बांधे खड़ी रहेगी?

2 टिप्‍पणियां:

संजय शर्मा ने कहा…

छगन लाल और दिलीप सिंह राणा [खली] की तुलनात्मक विश्लेशन जोरदार है . जातिगत विश्लेषण की भी गुन्जाईस थी .मामले को भड़काऊ न बनाकर स्वस्थ पोस्ट पढाया . छगन लाल असफल रहे कुश्ती मे तो यहाँ भी असफल रहे .खली की सफलता हर जगह सफलता दिलाती जायेगी . ''समर्थ के नही दोष गोसाई ''. संसद पर बम मारने का प्लान बनाते हुए आप धरे गए तो गए काम से , बम फोड़ने के बाद धरे गए तो मजा ही मजा . सबसे न्यारा ,सबसे प्यारा हमारा देश .

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

हमारे देश की एक परम्परा और है छगनलाल जी. वह यह की जो जीत जाता है उसे हम देवता कहते हैं और जो हार जाता है उसे राक्षस. बस इसी परम्परा को आगे बढाया जा रहा है. और कुछ नहीं.