मंगलवार, 20 मई 2008

दूर कीजिए नपुंसकता, आतंकवाद भी गायब हो जाएगा

तो कुल मिलाकर हमारे भाग्यनियंताओं को आतंकवाद से मुक्ति के तीन रास्ते सूझ रहे हैं। आडवाणी के लिए आतंकवाद रोधक कानून पोटा की वापसी में इसकी कुंजी है, प्रधानमंत्री को लगता है कि एक संघीय जांच एजेंसी से इस पर काबू पाया जा सकता है और वामपंथियों का कहना है कि आतंकवाद से निपटने के लिए किसी कानून या विशेष एजेंसी की जरूरत नहीं, क्योंकि पाकिस्तान और अल कायदा से मुकाबला करना जनता की जिम्मेदारी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी वामपंथियों की राय से सहमति जताई है।

अगर आतंकवाद से निपटना जनता की जिम्मेदारी है, तो चोरी, डकैती, पॉकेटमारी, बलात्कार, हत्या, धोखाधड़ी जैसे टुच्चे अपराधों से निपटने के लिए पुलिस की क्या जरूरत है? तो क्या नीतीश कुमार बिहार में और वामपंथी पश्चिम बंगाल तथा केरल में पुलिस व्यस्था खत्म करने का कदम उठाएंगे। कभी नहीं, क्योंकि ये दोनों जो यह अति मानववादी बयान दे रहे हैं, उसके पीछे की असली मंशा ही पुलिस व्यवस्था पर पूरा नियंत्रण कायम रखना और अपने तमाम अच्छे-बुरे राजनीतिक अपराधों के संरक्षण के लिए रास्ता साफ रखना है। क्योंकि कानून-व्यवस्था फिलहाल राज्यों का मसला है इसीलिए राज्य सरकारें पुलिस का इस्तेमाल अपनी रखैल की तरह करती रही हैं। अब अगर पोटा जैसा कानून हो और पूरे देश में जांच का अधिकार रखने वाली संघीय एजेंसी बन जाए, तो उसकी जांच के दायरे में बहुत बार ऐसी बातें भी आ जाएंगी, जो इस सामंतवादी सरकारों की सेहत के लिए खतरनाक हो सकता। तो इसलिए नीतीश और वामपंथियों की बेचैनी समझी जा सकती है।

रही बात भाजपा और प्रधानमंत्री (क्योंकि कांग्रेस ने अभी इस पर अपना रुख साफ नहीं किया है) के सुझावों की, तो मुझे लगता है कि दोनों ही काफी महत्वपूर्ण हैं। और पोटा एवं एक संघीय एजेंसी होने से एक राज्य (मतलब अंग्रेजी का स्टेट) के तौर पर आतंकवाद से निपटने की हमारी ताकत काफी बढ़ जाएगी। लेकिन एक राष्ट्र के तौर पर इससे निपटने के लिए हमें एक कानून और एक एजेंसी से भी ज्यादा कुछ चाहिए। हमें चाहिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति, हमें चाहिए ऊर्जा और सपनों से भरा राजनीतिक नेतृत्व और हमें चाहिए एक ईमानदार प्रशासन।

जब एक महान राष्ट्र का ताकतवर विदेश मंत्री तीन आतंकवादियों को लेकर घुटने टेकने कंधार गया था, तब पोटा की सलाह देने वाले यही आडवाणी तो उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री हुआ करते थे। जब एक महान राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा कर रहे 16 जवानों को मारकर एक पिद्दी देश के रेंजरों ने उनका जुलूस निकाला तो आडवाणी के अंदर का लौह पुरुष मोम का क्यों हो गया था? संसद हमले के बाद पाकिस्तान की सीमा पर फौज खड़ी करना और फिर सैकड़ों करोड़ रुपए बरबाद कर बिना किसी परिणाम के उसे बैरक में भेज देना, क्या उस समय देश की कमान भाजपा के हाथ में नहीं थी? कारगिल में हमने अपने 500से ज्यादा जांबाज खोकर अपना ही हिस्सा वापस पाया लेकिन पाकिस्तान को इस पूरे घटनाक्रम में क्या नुकसान हुआ? कुछ भी नहीं। तो अगर आडवाणी और उनकी पार्टी के लिए नपुंसकता ही कूटनीति का दूसरा नाम है, तो केवल पोटा क्या कर लेगा?

चार साल तक देश पर दसियों आतंकवादी हमलों में किसी भी एक में अपराधियों को पकड़ने में नाकाम रही कांग्रेस गठबंधन सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह चुनाव से 10 महीने पहले संघीय एजेंसी की वकालत कर रहे हैं। क्या कर लेगी संघीय एजेंसी अगर उसे जांच से पहले ही कह दिया जाएगा कि खबरदार किसी मुसलमान को परेशान नहीं किया जाना चाहिए। कांग्रेस का इतिहास है संस्थाओं को कमजोर करने का। नवीन चावला जैसे लोगों की मदद से चुनाव आयोग को नष्ट करने की कोशिश की जा रही है, हंसराज भारद्वाज को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश उनके पेरोल पर हैं, सोमनाथ चटर्जी को विधायिका की सबसे बड़ी दुश्मन न्यायपालिका लगती है, सीबीआई तो बहुत पहले से ही प्रधानमंत्री कार्यालय के पालतू की तरह काम करना शुरू कर चुकी है। तो क्या संघीय जांच एजेंसी अपना काम ईमानदारी से कर पाएगी। क्या होगा अगर आतंकवादी सूत्रों की के सिरे लोकतंत्र के मंदिर की चौखटों तक जा पहुंचे। क्या कर लेगी संघीय एजेंसी अगर उसके द्वारा दोषी साबित अफजल सत्ता के आशीर्वाद से उन्हें मुंह चिढ़ाता रहेगा और फिर किसी विमान अपहरण में उसी एजेंसी को उसे सुरक्षित उसके अड्डे पर पहुंचाने की जिम्मेदारी दे दी जाएगी।

इसलिए मेरा मानना तो केवल यही है कि देश को पहली जरूरत एक सशक्त देशभक्त राजनीतिक नेतृत्व की है और इसके बाद ही पोटा और संघीय एजेंसी आतंकवाद के पिशाच को गीदड़ की मौत मारने में सफल हो सकेंगे।

2 टिप्‍पणियां:

दीपान्शु गोयल ने कहा…

हमारे देश के नेताओं की इच्छाशक्ति तो देश की आजादी के साथ ही चुक गई थी। उस का नतीजा ये देश आतंकवाद के रुप में आज तक भुगत रहा है। चीन हुई हार का डर भी नेताओं की उस पीढी के दिमाग के नहीं निकला है आज तक। नतीजा चीन आंखें दिखाता है और हम सहमें रहते हैं। डरते हुए करते है शांति की बातें जो कायरता ही दिखाता है। हमारे नेताओं को इस भय से बाहर आना होगा।

संजय शर्मा ने कहा…

सबकी बढ़िया धुलाई एक ही टिकिया से ! बेहतरीन ! इधर मैं भाजपाई समझने लगा था भ्रम तोड़ने का शुक्रिया .