गुरुवार, 13 दिसंबर 2007

13 दिसंबर की सड़ांध का अपराधी कौन है

हम भारतीय बड़े उत्सव प्रेमी हैं। वैसे तो हमारे देश में साल भर उत्सवों का मेला लगा ही रहता है, लेकिन इतने से हमारा मन भरता नहीं। इसलिए हम समय-समय पर अपने लिए उत्सवों की रचना भी करते रहते हैं। अच्छा भी है, उत्सव जीवन में नई ताज़गी भरते हैं और सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर हमें और ज़्यादा समृद्ध बनाते हैं। लेकिन बहुत बार जीवन में ताज़गी और समृद्धि भरने वाली उत्सव की प्रेरणा, उसकी आत्मा गायब हो जाती है। फिर धीरे-धीरे वही उत्सव मरने लगते हैं, सड़ने लगते हैं और फिर दुर्गंध फैलाने लगते हैं। ऐसे मरे और सड़े उत्सवों की खासियत ये होती है कि इन्हें केवल सरकारी अमला और निहित स्वार्थ वाले राजनीतिक ग्रुप मनाते हैं। 14 सितंबर को हिंदी दिवस और 6 दिसंबर को बाबरी ढांचा गिरने का मातम मनाने जैसे त्यौहारों की सड़ांध से पहले ही हमारे नथुने फट रहे थे कि अब इस सूची में 13 दिसंबर का संसद हमला भी शामिल हो गया है।

क्योंकि आज भी 13 दिसंबर है, तो सरकारी अमला, सत्ता दल और विपक्ष के कर्णधार आज भी उन आठ अभागों की तस्वीर पर फूल चढ़ाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर आए, जो आज ही के दिन 2001 में एक आतंकवादी हमले में मारे गए थे। मैं माफी चाहूंगा अपना कर्तव्यपालन करते हुए मारे गए उन आठ पुलिसवालों के लिए अभागा शब्द का प्रयोग करने के लिए। लेकिन क्या आप उन्हें भाग्यशाली कहेंगे। जिस हमले में उनके प्राण गए, उसी हमले का योजनाकार अफ़जल इस देश की सरकार का दामाद बना हुआ है। जब ये सरकार या इसके नौकर इन पुलिसकर्मियों को शहीद कहते हैं, तो मुझे लगता है कि ये उन्हें गाली दे रहे हैं। पिछले साल पूरे देश को स्तब्ध करते हुए इन्हीं अभागे शहीदों की विधवाओं ने कुछ ग्राम धातुओं के बने वे तमगे सरकार के मुंह पर दे मारे थे, जो उनके पतियों की मौतों के एवज में उन्हें मिले थे। वह सरकार के प्रति उस क्षोभ की पराकाष्ठा थी जो संसद हमले के दोषी को बचाने की सरकार की कोशिशों से उपजी थी। लेकिन इस सरकार के कर्णधारों की निर्लज्जता देखिए, उन विधवाओं को किसी तरह का जवाब या आश्वासन तक नहीं दिया गया। अफ़ज़ल आज भी ज़िंदा है।

आज टेलीविजन चैनलों पर उन्हीं शहीदों की एक विधवा को हमने फिर देखा। आज उसकी आंखों में क्षोभ नहीं था, बेबसी थी, हार थी। उसके सामने देश के दो सबसे शक्तिशाली नीति निर्माता खड़े थे। एक गृह मंत्री और दूसरा देश की सबसे शक्तिशाली महिला का पुत्र और संभवत: देश का भावी प्रधानमंत्री। आश्चर्य ये कि जितनी बेबसी उस विधवा की आंखों में थी, उतना ही बेबस वे दोनों शख्स भी दिख रहे थे। विधवा फूट-फूट कर रो रही थी और चीख-चीख कर अपने साथ हो रही धोखाधड़ी की कहानी सुना रही थी। छह साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने शहीदों के परिवारों को पेट्रोल पंप देने का वादा किया था। इसके बाद के दो सालों में वाजपेयी सरकार उन शहीदों के परिवारों को तमगे का झुनझुना देकर बहलाती रही। और उसके बाद चार साल से मारे गए पुलिसकर्मियों के परिवार वाले मनमोहन सिंह सरकार के दरवाज़े पर चप्पलें चटका रहे हैं। आईबीएन 7 पर मैंने इन शहीदों की विधवाओं को उनका अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ रहे मनिंदरजीत सिंह बिट्टा का फोनो इंटरव्यू सुना। बिट्टा का कहना था कि 6 दिनों पहले उन्होंने पेट्रोल पंप के मुद्दे पर पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा से मुलाक़ात की थी। बकौल बिट्टा देवड़ा ने जिन शब्दों में उन विधवाओं का अपमान किया, उन्हें वे टीवी पर बता नहीं सकते। बिट्टा कांग्रेस के नेता हैं और इसलिए वे यह कहना नहीं भूले कि मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को इसके लिए कत्तई दोषी नहीं ठहराया जा सकता, सारा दोष केवल मुरली देवड़ा का है। हो सकता है कि पेट्रोल पंप के मामले पर मुरली देवड़ा अपराधी हों, लेकिन अफ़जल को फांसी से बचाने का दोषी कौन है। क्या शहीदों की विधवाएं पेट्रोल पंपों से अपने पतियों के खून का सौदा कर रही हैं। अगर हमारे माननीय सांसदों की तरह वे पुलिसकर्मी भी अपने बीवी-बच्चों के लिए लाखों-करोड़ों की संपत्ति छोड़ गए होते, तो क्या यही विधवाएं पेट्रोल पंप के कागज़ों की चिद्दियां उड़ा कर नहीं कहतीं कि इन्हें अपने पास रखो और हमारे पतियों के क़ातिल को फांसी दो। जिस तरह सत्ता के अहंकार में चूर होकर मुरली देवड़ा ने पेट्रोल पंप का अपना हक़ मांगने गईं बेसहारा विधवाओं को अपमानित किया है, उसी तरह सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने अफ़जल को फांसी से बचाकर इस देश के हर उस नागरिक के प्रति अपराध किया है, जो इस देश को अपनी मातृ और पितृ भूमि मानता है।

गुजरात के चुनावों में नरेन्द्र मोदी के विकास के दावों को झूठा ठहराने के लिए मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने आंकड़ों की बाजीगरी कई बार दिखाई, लेकिन आश्चर्य है कि अफ़जल को फांसी से बचाने के आरोपों पर दोनों ने अब तक एक शब्द नहीं कहा है। शहीदों की विधवाओं के प्रति इस सरकार की संवेदनहीनता का जवाब तो हमारे पूरे सरकारी तंत्र के नाकारपन में फिर भी खोजा जा सकता है, लेकिन पूरा देश (सोनिया गांधी के धर्म पुत्रों और चीन की अवैध संतानों को छोड़कर) जानना चाहता है कि इस देश की सरकार के सामने ऐसी कौन सी मज़बूरी है जिसके कारण संसद हमले का दोषी उच्चतम न्यायालय से फांसी की सज़ा पाने के महीनों बाद भी जीवित है।

1 टिप्पणी:

संजय शर्मा ने कहा…

बाबर की बर्बरता की कहानी कहता वो मस्जिद जिसमे वर्षों से नमाज अदा नही किया गया उसके टूटने का गम
हमे सालता रहा .हमने काला दिवस मनाया . जब जब याद आता है . हम हिंदू को आतंकवादी कह लेते हैं
क्योंकि ऐसा कहने पर घर मे भी मनाही नही है .राम को ईंट पत्थर गारा के आलावा और कुछ भी नही
मानने वाले आज संसद को छोडिये उन शहीदों को भी हड्डी , मांस , और खून से बना पुतला से ज्यादा
नही समझता .
अफजल को फांसी तब होती जब ये शहीद उन महान आंदोलनकारी को संसद के अन्दर जाने से नही रोक पाते
तब अफजल क्लीन शेव था . आज पूर्णतः मुल्ला के रूप मे .दुनिया के सामने आता है . और मुल्ला को फांसी ?
जाने दीजिये न . एक को फांसी न मिले और बदले मे १००० हिंदू न मारे जाए इससे बड़ी चालाकी सरकार
क्या कर सकती है. अफजल की जगह कोई अजय ,अभय, होता तो शायेद तब की सरकार ही लटका दी होती
१३ दिसम्बर के निर्माता निर्देशक को .
देश के वासी है सो अपने आप पर थूक कर ही हम शहीद सुरक्षा कर्मी को श्रधानजली अर्पित करते हैं.

जय हे जय हे जय जय जय हे !
भारत माता की जय !