शुक्रवार, 28 दिसंबर 2007

इसाइयों पर हो रहे हमले आखिर रुकते क्यों नहीं?

उड़ीसा के कुछ इलाकों में एक बार फिर कुछ चर्चों पर हमले हुए हैं, कुछ इसाई पादरियों को पीटा गया है। केवल पिछले पांच सालों में इस तरह की घटनाओं की सूची बनाई जाए, तो संख्या शायद सौ से ज़्यादा हो जाए। चाहे सालों पहले ग्राहम स्टेंस की जलाकर की गई हत्या हो, डांग के गिरिजाघरों पर हमले हों या हाल में डॉन बॉस्को और उड़ीसा में हुई घटनाएं हों, हर बार हमारे देश की मीडिया और कथिल सेकुलर समाज ने एड़ी-चोटी एक कर हल्ला मचाया। पुलिस ने जांच की, सरकार ने बयान दिए और हम सब अगली बार फिर ऐसी किसी घटना का इंतज़ार करने लगे। उड़ीसा की हालिया घटना भी इससे अलग नहीं होगी। आखिर ऐसा होता क्यों हो?

अच्छा, याद कीजिए उस शोर को जो हर बार इस तरह की घटनाओं के बाद मचता है। क्या सुनाई देता है? आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, हिंदू साम्प्रदायिक, फासिस्ट, सेकुलरिज़्म....। यहां दो बातें हैं। आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, हिंदू जागरण मंच या इसी तरह की कोई और संस्था के लोग आते कहां से हैं। उड़ीसा में इसाई पादरियों और गिरिजाघरों पर हमले करने वाले विश्व हिंदू परिषद के लोग क्या दिल्ली, कोलकाता या मुंबई से गए। नहीं, वे उन्हीं इलाक़ों के उन्हीं आदिवासियों के बीच के लोग हैं। वे भी आदिवासी हैं। और जिन इसाइयों पर उन्होंने हमला किया वे भी आदिवासी थे। अंतर केवल ये था कि हमला करने वाले अपने को हिंदू मानते हैं और जिन पर हमला किया गया वे मंदिरों की जगह चर्च जाने लगे हैं। ऐसे में जब सामाजिक-आर्थिक तौर पर एक ही धरातल पर खड़े एक ही समाज के लोग एक-दूसरे पर हमले कर रहे हों, क्या समाज और सरकार का ये फर्ज़ नहीं कि इसे केवल एक संगठन का षडयंत्र मानने की जगह एक सामाजिक दुर्घटना मानकर इसका विश्लेषण किया जाए। केवल इसलिए कि उन 100 आदिवासियों के बीच विश्व हिंदू परिषद का एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता भी था, पूरी घटना को हिंदू साम्प्रदायिक ताकतों का षडयंत्र कहकर ख़ारिज़ कर देना तो ये उसी तरह है जैसे गंदे में खेलते बच्चे की बीमारी के लिए आप कीटाणुओं को गालियां देकर संतुष्ट हो लें। बीमारी की जड़ तो गंदगी है न। गंदगी हटाकर आप कीटाणुओं का भोजन ही क्यों नहीं छीन लेते। लेकिन आप तो डॉक्टर हैं। अगर आप गंदगी ही हटा देंगे तो आपकी रोज़ी-रोटी कैसे चलेगी। तो ये वामपंथी और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी भी वैसे ही डॉक्टर हैं जो आदिवासी इलाकों में इसाई मिशनरियों के खिलाफ पनप रहे असंतोष के मूल कारणों को समझने-समझाने से डरते हैं, क्योंकि ये उनकी रोज़ी-रोटी का सवाल है। क्या कोई भी व्यक्ति सैकड़ों लोगों को केवल इसलिए अपने भाइयों पर हमले करने के लिए उकसा सकता है क्योंकि उनका मज़हब दूसरा है। ये समस्या का ऐसा सरलीकरण है, जिससे राजनीति की दुकान तो चल सकती है, समस्या का समाधान नहीं हो सकता।

तो समाधान क्या है? समाधान है समस्या का सही विश्लेषण। आदिवासी समाज बहुत सरल होता है, लेकिन जब उसकी आस्थाओं पर प्रहार होता है, तो फिर वो आक्रामक भी हो जाता है। आदिवासियों को ग़ैर हिंदू प्रमाणित करने पर आमादा वामपंथी समाजशास्त्रियों को ये समझना चाहिए कि हिंदू समाज ने वनवासी बंधुओं पर कभी राम, कृष्ण या शिव के प्रतीक थोपने की कोशिश नहीं की। सूर्य, नाग, पीपल, बैल जैसे प्रतीकों की पूजा करने वाले और कुल देवता परंपरा पर जान छिड़कने वाले वनवासियों को हिंदू समाज ने उनकी आस्था और तौर-तरीकों के साथ अपने भीतर आत्मसात किया। लेकिन जब एक इसाई पादरी एक हाथ में बाइबल और दूसरे में रोटी लेकर आदिवासियों के बीच पहुंचता है, तो सबसे पहले यही बताता है कि सूर्य तो आग का गोला है, नाग तो ज़हरीला दुश्मन है, पीपल तो केवल एक पेड़ है और कुल देवता- वो क्या होता है, पूजने लायक तो केवल प्रभु ईशु हैं। कुल देवता को घर से बाहर फेंको, सलीब पर शहीद प्रभु ईशु को घर में सजाओ। गांव के प्रतिष्ठित ओझा की दी तावीज फेंको और क्रॉस का माला गले में डालो। अब जब एक ही घर में एक भाई इसाई बन जाता है और अपनी परंपरा, संस्कृति, पूर्वजों के प्रतीकों का अपमान और तिरस्कार शुरू कर देता है, तो दूसरे भाई की चेतना में आग लगना स्वाभाविक है। जब तक हम आदिवासी इलाकों में इसाई पादरियों और चर्चों पर हो रहे हमले के इस मैकेनिज़्म को नहीं समझेंगे, हम इन हमलों को बंद नहीं करवा सकते।

अब दूसरी बात। व्यक्ति का मनोविज्ञान है कि जब वो अपने को असुरक्षित पाता है, जब उसे लगता है कि उसकी पुकार सुनने वाला कोई नहीं है, तो वो आक्रामक और हिंसक हो जाता है। यही मनोविज्ञान समाज का भी होता है। मैंने पहले भी अपने एक लेख में इस स्थिति का ज़िक्र किया था। जाति, क्षेत्र, भाषा या रूस-चीन के प्रतीकों पर अभिमान करने वालों के बारे में मैं नहीं जानता, लेकिन भारतीय संस्कृति और हिंदू पहचान का अभिमान करने वाला हर व्यक्ति आज भारत में क्षुब्ध है। अपनी आने वाली पीढ़ियों को लेकर वो घोर असुरक्षित महसूस करता है। उसकी धार्मिक-सांस्कृतिक भावनाओं की फिक्र करने वाली राजनीति उसके अपने देश में आज भी फासिस्ट कही जा रही है। एक ताज़ा उदाहरण उड़ीसा की चर्चों पर हुए हमले का ही ले लीजिए। चारों तरफ इसाइयों पर हो रहे अत्याचार का डंका पीटा जा रहा है। कहीं भी उस घटना का ज़िक्र नहीं हो रहा है, जिसके बाद ये हमले शुरू हुए। उड़ीसा की सरकार ने दलित इसाइयों को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्ज़ा दे दिया। ये सरकारी षडयंत्र इसलिए किया गया ताकि बेहतर जीवन स्तर के लोभ में इसाई बने दलितों को भी एसटी कोटे का फायदा मिल सके। लेकिन ऐसा होने से सीधे तौर पर आदिवासियों यानी असली एसटी का हक़ मारा जा रहा था। इसी का विरोध करने के लिए आदिवासी स्थानीय संगठन 'कुई समाज' के बैनर तले प्रदर्शन कर रहे थे। इसी पर मतांतरित इसाइयों ने आदिवासियों पर हमला किया। बाद में विश्व हिंदू परिषद के एक नेता, जो मतांतरण के खिलाफ काफी सक्रिय थे, उनपर हमला किया गया। अब अगर मतांतरित कराने वालों पर हमला निंदनीय है, तो इसका विरोध करने वालों पर हमला करना कैसे प्रशंसनीय हो सकता है। इतना ही नहीं, चार मंदिरों पर भी हमले किये गए और उन्हें नुकसान पहुंचाया गया। लेकिन आप देखिए। कहीं इन हमलों की चर्चा नहीं हो रही। सेकुलरों को केवल इसाइयों पर हुए हमलों की चिंता है। इससे क्या हिंदू समाज क्षु्ब्ध, असुरक्षित, आक्रामक और हिंसक नहीं होगा?

इसाई समाज अगर वास्तव में सेवा करना चाहता है, तो उसका स्वागत है। लेकिन सेवा की आड़ में भारतीय समाज का मूलभूत ढांचा छिन्न-भिन्न करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। भारतीय संविधान में अपनी मर्ज़ी का मज़हब अपनाने की छूट है। लेकिन किसी को उनकी मर्ज़ी का मज़हब अपनाने से रोकना जितना असंवैधानिक है, उतना ही असंवैधानिक किसी को मज़हब बदलने के लिए उकसाना और प्रभावित करना है। जिसे रामायण, गीता, राम और कृष्ण के दर्शन से अध्यात्मिक शांति नहीं मिलती, वो बेशक बाइबल और प्रभु ईशु के संदेश का सहारा ले, मगर इसमें पादरियों का क्या काम। अध्यात्मिक उन्नति अगर व्यक्तिगत विषय है, तो खुद व्यक्ति को चलकर पादरियों के पास जाने दीजिए। लेकिन रोटी फेंककर आस्था ख़रीदने के इस इसाई षडयंत्र पर अगर रोक नहीं लगाई गई तो और भी भयानक मंज़र दिख सकते हैं।

6 टिप्‍पणियां:

अनिल रघुराज ने कहा…

रोटी फेंककर आस्था खरीदने के षड़यंत्र पर यकीनन रोक लगाना ज़रूरी है। लेकिन यह रोक लगाएगा कौन? सरकार, जिसके लिए आदिवासी समाज का मजूद बस नारेबाज़ी के लिए है? इस अलगाव की वजह से आदिवासियों के बीच इसाई पादरी ही नहीं, नक्सलियों ने भी जड़ें जमा ली हैं और हिंदू संगठन तो उन्हें आसान चारा मान ही रहे हैं। शायद नक्सली ही उन्हें अपने जायज हकों से परिचित करा रहे हैं। बाकी सभी का मकसद अपने निहित स्वार्थों को पूरा करना है। वैसे, नक्सली भी उन्हें अपनी तोप के बारूद के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। आपने सही मुद्दा उठाया है। इस पर सारे नागर समाज को गौर करने की ज़रूरत है।

drdhabhai ने कहा…

बंधु बहुत सही बात उठाई आपने,सचमुच आज हिंदु की बात करने वाला अपने ही देश में फासिस्ट घोषित किया जा रहां है,अपने पुर्वजों कि सभ्यता संस्कृति को त्याग कर मतांतरितकर मिशनरी क्या देश का भला कर रहें हैं ,साम्राज्यवाद का ढिंढोरो पीटने वाले कम्युनिष्टों को ये साम्राज्यवाद केयों दिखाई नहीं देता ,मेरा इस विषय पर पढा गया सबसे संतुलित लेख है ये,

संजय बेंगाणी ने कहा…

मौन रहते हुए गालियाँ खाने वाले गुजरात में पादरी किसी के पक्के तौर पर ईसाई बन जाने को प्रमाणित करने के लिए हनुमानजी की प्रतिमा पर पेशाब करवाते थे. यह बहुत पहले एक अखबार में पढ़ा था. मोदी राज से कहाँ तकलिफ हो रही है, समझ में आता होगा.

संजय शर्मा ने कहा…

अनिल भाई ," नक्सल उनके हक़ से परिचय करा रहा है " हक क्या है ? ये न तो कम्युनिस्ट को पता है न उनके सुपुत्र नक्सल को . आज जो अरबपति बने है वे कभी ख़ाक पति थे . अपने मेहनत अच्छी सोच की बदौलत वे लोग कामयाबी के शिखर पर हैं . किसी की सोंच मे ज़हर घोलना कम्युनिस्ट का काम रह गया है .जो हमारा है
नही, किसी की मेहनत की कमाई है और हम कहे की हमारा हक़ मारे बैठा है . नक्सल का शिकार कौन हो रहा है ? क्या बड़े उद्योगपति ? क्या बड़े ज़मींदार ? बड़े सट्टाबाज ? नही न फ़िर उनके युधाभ्यास पर ताली क्यों ?
क्या देश का सारा गरीब नक्सल है ? सारा गरीब लूटमार करता है या सकारात्मक काम से रोटी पा रहा है ?
डेनामाईट, फेककर ५-१० एकड़ वाले किसान का मकान और जान लेना भर कम्युनिस्ट और नक्सल का खेल है .
अगर ब्लॉग साहित्य है तो एहन से ग़लत का समर्थन नही होना चाहिए .
अगर जबरन किसी से उसका पसीना की कमाई छीन रहा है . फसल काट लेने . गर्दन काट देने को सही ठहराते
है तो हमे फुसला कर रोटी दिखाकर धर्म परिवर्तन का खेल बुरा नही लगना चाहिए .

बेनामी ने कहा…

भुवन भास्कर
अच्छा लेख है तारीफ करता हू शायद 1-2 आदमी के दिमाग की बत्ती जला दे।
मैं कोई पत्रकार नही हू मै भी लिखता हू कृप्या पढे
www.ckshindu.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

भुवन भास्कर
अच्छा लेख है तारीफ करता हू शायद 1-2 आदमी के दिमाग की बत्ती जला दे।
मैं कोई पत्रकार नही हू मै भी लिखता हू कृप्या पढे
www.ckshindu.blogspot.com