सोमवार, 24 दिसंबर 2007

मोदी की जीत का मातम और जश्न एक ही सिक्के के दो पहलू हैं

परसों से आज तक लगभग 40 घंटों में अगर हिन्दी के तमाम ब्लॉगों पर लिखे लेखों का सर्वे किया जाए तो मुझे लगता है लगभग 70-75% लेख केवल नरेंद्र मोदी पर ही लिखे गए हैं। मोटे तौर पर देखें तो दो तरह के लेख हैं। मोदी की तारीफ के और मोदी के विरोध में। लेकिन इन लेखों में एक तीसरा वर्ग भी है। ऐसे लेख जिनमें राष्ट्रीय राजनीति में मोदी की जीत के मायने तलाशने की कोशिश की गई है। इन सभी लेखों में लेखकों ने जितना ज़ोर लगाकर अपनी बात रखने की कोशिश की है उसे देखकर इतना तो साफ है कि मोदी का व्यक्तित्व गुजरात की सीमाओं से कहीं परे पहुंच चुका है। किसी राज्य के चुनाव ने आज तक शायद ही पूरे देश के चिंतन तंत्र को इतना झकझोरा हो। आखिर मोदी की जीत पर इतना बवाल है क्यों?

मोदी की जीत पर चाहे वामपंथियों का मातम हो या हिंदू राष्ट्रवादियों का उत्सव, दरअसल दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। राम मंदिर आंदोलन के बाद से ही हिंदू राष्ट्रवाद और वामपंथ के बीच की लड़ाई अपनी चरम पर है। कांग्रेस की अपनी कोई विचारधारा है नहीं, तो कांग्रेसी अपने वैचारिक अस्तित्व के लिए वामपंथियों की गोद में ही बैठे हैं। इसलिए इस चर्चा में कांग्रेसियों का उल्लेख बेमानी होगा। हिंदू राष्ट्रवाद की जीत का मतलब है वामपंथ की मौत। क्योंकि एक ओर जहां हिंदूवादी भारत को सनातन राष्ट्र मानते है, वहीं वामपंथी इसे एक राष्ट्र मानते ही नहीं (इस पर 6 दिसंबर के लेख में विस्तार से चर्चा की गई थी)। मोदी आधुनिक राजनीति में हिंदू राष्ट्रवाद का सबसे मुखर चेहरा हैं। मोदी के रूप में अगर हिंदुत्व का उभार होता है, तो वामपंथियों की वो ज़मीन ही खिसक जाएगी, जिसपर वो खड़े हैं। तो बहुत स्वाभाविक है कि मोदी की विजय उन्हें मातम लगे। दूसरी ओर राजनाथ सिंह या लालकृष्ण आडवाणी के खुशी से दमकते चेहरों का राज़ 2004 के बाद से मिल रही लगातार चुनावी शिकस्तों के इतिहास में साफ देखा जा सकता है। लेकिन दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों के हिंदुवादी सोच वाले सामान्य लोगों, जिन्हें सत्ता के खेल से कोई मतलब नहीं, के इस मदहोश उत्सव का क्या मतलब?

दरअसल 2002 के गुजरात दंगों के बाद से ही वामपंथियों ने मोदी को एक व्यक्ति के तौर पर नहीं, बल्कि एक विचारधारा के तौर पर निशाना बनाया। मोदी की हार को एक राजनेता की सामान्य चुनावी हार नहीं, बल्कि हिंदू राष्ट्रवाद की असफलता का जामा पहना दिया जाता। इसीलिए मोदी की जीत हिंदू राष्ट्रवाद के सम्मान के लिए एक जीवनरेखा के तौर पर सामने आई है। इसके साथ ही एक और कारण है, जो मुझे लगता है कि ज़्यादा महत्वपूर्ण है। अटल बिहारी वाजपेयी भले ही भारतीय जनता पार्टी के सबसे ज़्यादा लोकप्रिय नेता रहे हों, लेकिन पार्टी के कोर वोटरों ने उन्हें कभी बहुत पसंद नहीं किया। उनकी पसंद तो हमेशा लालकृष्ण आडवाणी रहे, क्योंकि राम मंदिर के लिए निकाली गई रथ यात्रा आडवाणी को एक गौरवान्वित हिंदू की छवि दी। इसी छवि में हिंदू राष्ट्रवाद का अक्श ढूंढने वाले भाजपा के कैडर मतदाताओं को उस समय क़रारा झटका लगा जब आडवाणी ने जिन्ना की मज़ार पर जाकर उन्हें धर्मनिरपेक्षता का मसीहा क़रार दिया। पार्टी की चुनावी मज़बूरियों के कारण हाल के महीनों में भले ही हमने आडवाणी को एक बार फिर भाजपा के केन्द्र में आते देखा हो, लेकिन ये सच्चाई है कि आडवाणी अब हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतीक नहीं रहे। हिंदू राष्ट्रवाद के नये प्रतीक हैं नरेन्द्र मोदी। मोदी की जीत से भारतीय राजनीति के एक बार फिर हिंदू राष्ट्रवाद रहित होने की चिंता से व्यग्र हिंदुवादियों की जान में जान आई है।

हिंदूत्वनिष्ठ तत्वों का यही वो मनोविज्ञान है, जिसके कारण मीडिया के स्वनामधन्य राजनीतिक विश्लेषक अब राष्ट्रीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी की भूमिका तलाशने लगे हैं। सच भी है, मोदी का राष्ट्रीय राजनीति में आना तय है क्योंकि अब पूरे देश के हिंदु राष्ट्रवादियों को केवल मोदी में ही अपने सपनों की हक़ीक़त दिख रही है। लेकिन मुझे ताज़्जुब होता है इन विश्लेषकों की बुद्धि पर जब ये मोदी के पार्टी से बड़ा होने की बात कहते हैं। इसके पीछे शायद इनका विश्लेषण कम और राजनीतिक प्रतिबद्धता की मज़बूरी ज्यादा है। मोदी से पहले केशुभाई पटेल गुजरात में भाजपा के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे, आज सौराष्ट्र के लिउआ पटेलों ने भी उन्हें दूध की मक्खी बना दिया। वघेला गुजरात भाजपा के मज़बूत नेता हुआ करते थे, पार्टी छोड़ने के बाद अपना अस्तित्व बचाने के लिए उन्हें वैचारिक आत्महत्या करनी पड़ी। उमा भारती के बिना मध्य प्रदेश में भाजपा का अस्तित्व ही मुश्किल लगता था, अभी हुए उपचुनाव में भोपाल के पड़ोसी विधानसभा क्षेत्र में उमा की पार्टी को 3,000 मत मिले हैं। स्वयं आडवाणी का उदाहरण सामने है जब उन्होंने पार्टी की मूल विचारधारा से हटकर जिन्ना पर बयान दिया और पार्टी के अंदर ही सबके लिए अछूत हो गए। इसलिए मोदी कभी पार्टी से बड़े नहीं हो सकते। हां, मोदी की जीत का अगर राष्ट्रीय राजनीति में कोई मायना है, तो वो केवल यही है कि इस जीत ने आडवाणी के बाद भाजपा में दूसरी पंक्ति के नेताओं की संभावित महाभारत के बिगुल में छेद कर दिया है। अब आडवाणी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी मोदी हैं और इसलिए 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार भी।

1 टिप्पणी:

संजय शर्मा ने कहा…

बढ़िया लिखा है . बहुत सारे कोण को इमानदारी से छुआ है . बस एक कोण कि आख़िर क्या बजह है कि भाजपा अपने ही हीरो का कद छोटा करती फिरती है . कल्याण सिंह, उमा भारती , मदन लाल खुराना , गोविन्दाचार्य सब के सब ग़लत कैसे हो जाते हैं . कुछ साल पीछे जाता हूँ तो कल्याण सिंह के कद से बड़ा आज मोदी को नही
पाता हूँ . मोदी विकासशील हैं विकसित नही ये मैं नही पार्टी का इतिहास बकता है . मोदी अगर कूद फांद ज्यादा
नही कर पाए तो भविष्य उज्जवल कहा जा सकता है . फिलहाल मोदी सुंदर बोल रहे हैं .