शुक्रवार, 28 दिसंबर 2007
पाकिस्तान में तालिबान की आहट
बेनज़ीर भुट्टो की जान लेने वाला आत्मघाती विस्फोट दरअसल पाकिस्तान में तालिबान-अल क़ायदा गठजोड़ के आने की आहट है। तालिबान ने बेनज़ीर की हत्या करने की सार्वजनिक घोषणा कर रखी थी और आखिरकार वे सफल हुए (अल क़ायदा ने बाक़ायदा इस हत्या की ज़िम्मेदारी ले ली है)। राजनीति में हत्याएं कोई असाधारण घटना नहीं होती, लेकिन बेनज़ीर की हत्या पाकिस्तान की तारीख में एक ऐसी भयावह घटना के रूप में याद की जाएगी, जिसके बाद मुल्क़ की तकदीर पर बदनसीबी के काले बादलों ने अपनी छाया डाल दी।
बेनज़ीर क़रीब 6 साल तक निर्वासित जीवन जीन के बाद हाल ही में पाकिस्तान लौटी थीं और आते के साथ ही उनका स्वागत एक शिशु बम से किया गया था। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना था कि अमेरिकी दबाव में परवेज़ मुशर्रफ और बेनज़ीर एक समझौता फार्मूले पर तैयार हो गए थे और इसी के बाद बेनज़ीर की वापसी हुई थी। फार्मूले के तहत आगामी आम चुनावों के बाद मुशर्रफ राष्ट्रपति और बेनज़ीर प्रधानमंत्री बनने वाली थीं। शायद इसी अंदेशे से तालिबान परेशान थे। अफगानिस्तान से तालिबान के सफाये और आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की कथित लड़ाई में मुशर्रफ की सक्रियता से नाराज़ तालिबान खुले विचारों वाली बेनज़ीर भुट्टो को देश की प्रधानमंत्री पद तक नहीं पहुंचने देना चाहते थे।
लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के कारण भारत के लिए भयानक खतरे पैदा हो गए हैं। पश्चिमोत्तर प्रांत में पाकिस्तानी सीमा पहले ही एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। रिपोर्टों के मुताबिक वहां के सभी सरकारी कार्यालयों से पाकिस्तान के झंडे उतार दिए गए हैं और तालिबान के ठेकेदार अत्याधुनिक हथियारों के साथ खुली गाड़ियों में घूम-घूम कर तालिबानी कानून लागू करवा रहे हैं। कई जगहों से सेना के जवानों के आत्मसमर्पण करने की ख़बरें आ रही हैं। ऐसे में सेना की विशाल छावनी वाले शहर रावलपिंडी में हुई भुट्टो की हत्या के कई मायने हैं। कई स्रोतों से इस तरह की ख़बरें आती रही हैं कि सेना और आईएसआई का एक वर्ग मुशर्रफ की अमेरिकापरस्त नीतियों से खार खाए बैठा है। ऐसे में अगर किसी भी दिन ऐसे ही मुशर्रफ की भी हत्या हो जाए और तालिबान समर्थक सैनिक सत्ता की कमान संभाल लें, तो क्या होगा। अगर ऐसा हुआ तो अमेरिका के पास पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को संभालने के लिए सीधे तौर पर हस्तक्षेप करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होगा। ये हस्तक्षेप हमले के तौर पर भी हो सकता है और कमांडो कार्रवाई के तौर पर भी। अगर सफल कमांडो कार्रवाई से परमाणु हथियारों पर अमेरिकी नियंत्रण स्थापित भी हो जाए, तो ख़तरा फौरी तौर पर ही टल सकेगा। एक बार पाकिस्तान में तालिबान समर्थकों का शासन स्थापित हो जाने के बाद अफगानिस्तान की करज़ई सरकार के लिए अस्तित्व की लड़ाई बहुत मुश्किल हो जाएगी और नाटो की सेनाओं के लिए स्थिति नियंत्रण से बाहर होने लगेगी। तब अमेरिका के लिए सीधे पाकिस्तान पर हमला करने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा। अगर अमेरिका हमला करता है, तो भारत पर दो तरह से संकट आएगा। पहला तो वहां से भारतीय सीमा में आकर शरण लेने वाले पाकिस्तानियों की बाढ़ आ जाएगी, जिन्हें पूरी तरह से रोक पाना मानवीय आधार पर कठिन होगा। और भारतीय राजनेताओं की वोट बैंक राजनीति को देखते हुए कल्पना ही की जा सकती है कि एक बार भारत में आए इन पाकिस्तानियों को यहां के समाज में शामिल होकर पूरे देश में फैलने में कितनी मुश्किल होगी। दूसरा संकट ये होगा कि भारत को पाकिस्तान के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई में खुलकर साथ देना होगा। ये भारत की मज़बूरी होगी, क्योंकि तालिबान के खिलाफ अमेरिकी हार के परिणाम कितने भयानक हो सकते हैं इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि भारत में इस्लामिक कट्टरपंथ के सहारे आतंकवाद फैलाने की जो नीति पाकिस्तान चला रहा था, उसका ये स्वाभाविक परिणाम है। पाकिस्तान कल का अफगानिस्तान बनने जा रहा है। भारत सीधे तौर पर पाकिस्तान को तो नहीं बचा सकता, लेकिन जिस तरह हमारे यहां के राजनीतिज्ञ देश में आतंकवाद फैला रहे तत्वों को मज़हब के आधार पोषण दे रहे हैं, अगर वो नीति नहीं बदली तो हम भी बहुत सुरक्षित नहीं रह सकते।
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