शनिवार, 29 दिसंबर 2007

....ताकि नक्सलवाद का घाव नासूर न बने

इसाइयों पर हो रहे हमले से संबंधित मेरे लेख पर अनिल जी की टिप्पणी मुझे कुछ लिखने को प्रेरित कर ही रही थी कि उस पर संजय भाई की प्रति टिप्पणी भी आ गई। अनिल जी ने नक्सली समस्या से जुड़ी दो टिप्पणियां की हैं, जो दरअसल अपने आप में ही विरोधाभासी हैं। नक्सली समस्या वास्तव में मुझे हमेशा से मथती रही है और जब अनिल जी ने विषय छेड़ ही दिया है तो सोचता हूं, इस पर थोड़ी चर्चा हो जाए। मैं अनिल जी की इस राय से तो बिल्कुल सहमत हूं कि नक्सली समस्या का मूल नागर समाज का आदिवासी समाज के प्रति असंवेदनशील नज़रिया और इन क्षेत्रों के प्रति सरकार और प्रशासन का बर्बर रवैया है, लेकिन इस बात से बिलकुल असहमत हूं कि नक्सली उन्हें उनके असली हक़ से परिचित करा रहे हैं। नक्सली समस्या की जटिलता ही है कि अनिल जी जैसे अनुभवी और सुलझे हुए पत्रकार भी इस मसले पर एक वैचारिक द्वंद्व से गुज़र रहे हैं। तभी तो आप भी स्वीकार कर रहे हैं कि "नक्सली भी उन्हें (आदिवासियों को) अपनी तोप के बारूद के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं।"

हो सकता है कि नक्सलियों की लड़ाई आदिवासी समाज के हक़ के नाम पर शुरू होती हो, लेकिन उनका तौर-तरीक़ा क्या वास्तव में किसी को न्याय दिला सकता है। क्या खालिस्तान और कश्मीर के आतंकवाद भी जनांदोलनों की तरह शुरू नहीं हुए थे। क्या हमें पता नहीं कि पंजाब में सिख और कश्मीर में मुसलमान ही इन कथित जनांदलोनों का चारा बने हैं और बन रहे हैं। 'आजादी के लड़ाके' अपने ही 'हमवतनों' के घर रात का खाना खाते हैं, घर की बेटियों का बलात्कार करते हैं, रात भर आराम करते हैं और फिर सुबह आज़ादी के नारे लगाते हुए चले जाते हैं। नक्सली आतंकवाद भी नारों से आगे बढ़कर जब ज़मीन पर उतरता है तो उसे ईंधन के तौर पर उन्हीं आदिवासियों का खून चाहिए होता है, जिनके हक़ की लड़ाई लड़ने का वो दावा कर रहे होते हैं।

इस बात पर बहस लगातार होती रहती है कि नक्सली समस्या का चरित्र सामाजिक है या कानून व्यवस्था से जुड़ा हुआ। सर्वहारा और प्रगतिशील वर्गों के स्वघोषित प्रतिनिधि नक्सलियों को ग़रीबों का रॉबिन हुड प्रमाणित कर इसे सामाजिक समस्या बताते हैं और पुलिस के आधुनिकीकरण और बल प्रयोग को नाजायज़ ठहराते हैं। लेकिन उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि अगर हथियारों से लैस नक्सलियों को अपने हिसाब से सही और ग़लत का फैसला कर जन अदालतों में लोगों के कान काटने, बेंत से मारने या हत्या करने का अधिकार है तो फिर देश में सरकार और प्रशासन की ज़रूरत ही क्या है। क्या हम सब पढ़े-लिखे और ख़ुद को समाज का सबसे जागरुक हिस्सा मानने वाले लोग कभी न कभी पुलिस और सरकारी तंत्र की ज़्यादती और भ्रष्टाचार का शिकार नहीं हुए हैं। तो क्या हम सबको ये अधिकार है कि ट्रेन में बर्थ देने के लिए घूस मांगने वाले टीटीई को या एफ़आईआर दर्ज़ करने में आनाकानी कर रहे हवलदार को या फिर कॉलेज में अपनी जन्मतिथि में हुई गड़बड़ी को ठीक कराने के लिए 15 दिनों से यहां-वहां दौड़ाने वाले क्लर्क के हाथ काट लें, जूतों से उसकी मरम्मत कर दें या फिर उसे गोली मार दें।

चोरी, डकैती और हत्या जैसे अपराध भी अपने मूल रूप में तो सामाजिक समस्या ही होते हैं। लेकिन यही अपराध हो जाने के बाद कानून-व्यवस्था का मसला बन जाते हैं। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि कोई भी अपराध एक कीड़े की तरह है, जो समाज की गंदी नाली से निकलता है, लेकिन जब एक बार ये कीड़ा निकल जाता है तो फिर इसे मारने के लिए कीटनाशक का ही इस्तेमाल करना पड़ता है न। अब अगर आप शहर के नालों में गंदगी का अंबार लगाते जाएं तो उससे निकलने वाले कीड़ों की संख्या भी बढ़ती जाएगी और इन बढ़ते हुए कीड़ों को मारने के लिए अगर हम कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ाते जाएंगे तो एक समय ऐसा भी आएगा, जब कीटनाशकों का ज़हर हमारी भी बलि लेने लगेगा। मेरे विचार से नक्सल समस्या का समाधान भी कुछ इसी तरह ढूंढना पड़ेगा। एक ओर तो तंत्र की उस असंवेदनशीलता और भ्रष्टाचार को मिटाना होगा जहां से नक्सलियों को ऑक्सीजन मिलता है, दूसरी ओर गंदगी से पहले ही पैदा हो चुके कीड़ों को कुचलने के लिए पुलिस बल को अत्याधुनिक बनाना होगा और ज़रूरत पड़ी तो कुछ नए कानून बनाने होंगे। यहां एक बात ये भी समझने की है कि भले ही नक्सलियों की भीड़ हज़ारों में हो, लेकिन कुचले जाने लायक कीड़े चंद मुट्ठी भर ही हैं। उनकी सही पहचान ज़रूरी है। आर्थिक या सामाजिक कारणों से उस भीड़ में शामिल भोले-भाले आदिवासियों और किसानों को सम्मानपूर्वक वापसी का मौका दिया जाना चाहिए, लेकिन उनके उन नेताओं को सख्ती से कुचलना होगा जो ग़रीबों-मज़लूमों के हक़ के नाम पर आईएसआई और दूसरी विदेशी ताक़तों के हाथों में खेल रहे हैं और पशुपति से तिरुपति तक एक लाल पट्टी बनाकर देश के टुकड़े करने के सपने देख रहे हैं।

6 टिप्‍पणियां:

36solutions ने कहा…

भुवन भाई आपके विचारों की मैं कद्र करता हूं किन्‍तु जिस प्रकार से नागर समाज इस समस्‍या पर अपनी सोंच व विचार प्रकट करता है उसमें व ग्रामीण सामाजिक परिवेश में जहां यह समस्‍या व्‍याप्‍त है उसमें कुछ अंतर है । मैनें पिछले दिनों से लगातार इस विषय पर दोनों पक्षों, गुडसा उसेण्‍डी, प्रवक्‍ता दण्‍डकारण्‍य स्‍पेशल जोनल कमेटी व शासन की ओर से राज्‍य पुलिस प्रमुख विश्‍वरंजन का पक्ष अपने ब्‍लाग में रखने का प्रयास किया है जो छत्‍तीसगढ के प्रतिष्ठित समाचार पत्र पर लगातार प्रकाशित हो रहे हैं । सैद्धांतिक व वैचारिक मतभेद को एक ही चीज दूर कर सकती है वह है शिक्षा । मेरे प्रदेश में तो यदि आदिवासीयों को शिक्षा की सुविधा प्राथमिक तौर पर मुहैया करा दी जाए तो लगभग लगभग 80 प्रतिशत समस्‍या कुछेक सालों में स्‍वमेव समाप्‍त हो जायेगी जिस पर पिछले तीस साल पहले सोंचना था आज जिन आदिवासियों को यह सुविधा प्राप्‍त हो पाई है वे प्रशासन के उंचे उंचें ओहदों पर बैठे है पर उन्‍हें अपने ही भाईयों के लिए चिंतन करने में कंजूसी करनी पड रही है दूसरी तरफ चंद लोग इसी शिक्षा का गलत उपयोग आदिवासियों को भडकाने में कर रहे हैं । सहीं गलत का फैसला करने में असमर्थ अशिक्षित व अर्धशिक्षित आदिवासी समाज हिंसा/प्रतिहिंसा करने में सदैव तत्‍पर रहा है चाहे वह एसपीओ, सलवा जूडूम के रूप में नक्‍सलियों पर हो या सामान्‍य जन के रूप में एसपीओ, सलवा जूडूम पर हो ।

चंद लाईनों में तीस सालों के दर्द का हल यद्धपि संभव नहीं है फिर भी हम सभी को इस विषय पर खुलकर बहस करना चाहिए हो सकता है इन्‍हीं बहसों में से कोई ऐसा समाधान प्राप्‍त हो जिससे स्‍वस्‍थ समाज की परिकल्‍पना शाश्‍वत हो ।

संजीव

भुवन भास्कर ने कहा…

आपका कहना बिल्कुल सही है संजीव भाई। सच पूछिए तो मुझे हमेशा लगता है नक्सली समस्याओं को सच में समझना मेरे जैसे उन लोगों के लिए थोड़ा मुश्किल है, जिन्होंने इसकी ज़मीनी त्रासदी को महसूस नहीं किया है। इसीलिए इस विषय पर बहुत आधिकारिक तौर पर कुछ भी कहने का दुस्साहस मैं नहीं करता। लेकिन मुझे खुशी है कि मेरी समझ आपने जो कहा है उससे बिल्कुल भी अलग नहीं है। ये बिल्कुल सही है कि शिक्षा का प्रसार नक्सलियों की जड़ें काटने के लिए सबसे प्रभावी माध्यम बन सकता है। लेकिन देशभक्ति और संस्कारों से कटी क्लर्क बनाने वाली आज की सरकारी शिक्षा वास्तव में इस बारे में बहुत प्रभावशाली हो सकती है, इसे लेकर मुझे बहुत सी शंकाएं हैं। नक्सलवाद की भीड़ ज़रूर अशिक्षित है, लेकिन उन्हें हांकने वाला नेतृत्व देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों से शिक्षित है। तो शिक्षा के साथ सहकारिता, ग्राम स्वराज और अन्य योजनाएं भी शुरू करने की ज़रूरत है। लेकिन इन सबके साथ जो बात सबसे ज़रूरी है, वो है ईमानदारी। ईमानदारी- सरकार की, ईमानदारी- समाज की।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

बहुत मार्के की बात कही आपने!!

आपने जो संजीव जी को प्रतिटिप्पणी में जो ईमानदारी वाली बात लिखी है उससे मैं सौ फीसदी सहमत हूं। आदिवासी इलाके में जब हम शहरी जाते हैं तो हम में से अस्सी फीसदी उन भोले भाले आदिवासियों को ठगने और उनका "यूज़" करने की ही पहले सोचते हैं।

संजय शर्मा ने कहा…

भुवन भाई !
तारीफ़ उस हद तक करने का मन करता कि वह चाटुकारिता के हद को पार कर जाए . कल्पना यथार्थ का रूप लेता दिख रहा है . हमे खुशी है आपके ब्लॉग पोस्ट के साथ संजीव भाई , संजीत भाई की टिपण्णी की इमानदारी देखकर आज साल का आखिरी दिन मस्त कर गया . आपका ये पोस्ट प्रसारनीय है . बार बार कहा
जाने वाला , पढ़ा जाने वाला ,पढाया जाने वाला , समाज के हर रूप के शोषक को नंगा करती ये विचार गंगा
समाज के हित मे है भाईचारे के हित मे है.
सरकारी शिक्षा हो या प्राइवेट समाज शास्त्र का मनन न हो तो उच्च शिक्षा का भी कोई अर्थ नही रह जाता
अपने से कमजोर को दिशा देकर दशा मे सुधार तो लाया ही जा सकता है . कोशिश शुरू की जाए हम सदैव
इस विचार का तन मन और धन से समर्थन करेंगे.
कम्युनिस्ट विचारधारा वाले लोग सिर्फ़ आग उगलने के आलावा और कुछ करता हमे कहीं दिखाई नही दे रहा . चाहे वो सांसद हो या झोला टाँगे जींस पर कुरता डाले जेएनयू मे नेतागिरी कर रहा हो या गाँव मे गरीबी रेखा से निचे नामांकन के लिए पैसे उगाह रहा हो .

अंत मे नववर्ष की शुभकामना आपके साथ आपके टिप्पणी कारों को भी !
उग रहा नया सूरज {भास्कर } तेरे लिए !
बाँटती खुशबू हवा तेरे लिए !
फूटती नववर्ष की पहली किरण ,
खिलखिलायी लो धरा तेरे लिए !

भुवन भास्कर ने कहा…

संजय भाई। आपकी टिप्पणी पढ़कर हृदय उत्साह और प्रेरणा से भर गया। बहुत बहुत धन्यवाद। साल 2008 आपके लिए बहुत शुभ हो, यही शुभकामना है।

बेनामी ने कहा…

Sir , You are doing a commendable job , Keep it UP ! We all are hereto follow you !

Ranjan Rituraj Sinh , NOIDA