पिछले साल जब विधानसभाओं चुनावों में राजस्थान और दिल्ली में कांग्रेस की और गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में भाजपा की जीत हुई थी, तब इसे भारतीय राजनीति में एक सकारात्मक अध्याय की शुरुआत करार दिया गया था। कहा गया था कि देश की राजनीति अब जाति, प्रांत, भाषा और पंथ के दायरे से निकल कर विकास की गोद में बैठने लगी है। खैर, 2009 के लोकसभा चुनाव परिणामों पर शुरुआती आश्चर्य के बाद धीरे-धीरे एक बार फिर विश्लेषक समुदाय इसी निष्कर्ष पर पहुंचने लगा है कि कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की जीत दरअसल विकासोन्मुख राजनीति की जीत है। और तो और भाजपा के प्रवक्ता और रामपुर से चौथे स्थान पर रहे मुख्तार अब्बास नकवी ने भी तुरंत घोषणा कर दी कि मंडल (जाति केन्द्रित) और कमंडल (हिन्दुत्व केन्द्रित) राजनीति का दौर खत्म हो गया है और अब केवल विकास ही सत्ता का फॉर्मूला है।
मैं व्यक्तिगत तौर पर इस आकलन से सहमत नहीं हूं कि 2009 की जीत के पीछे कांग्रेस का विकासोन्मुख एजेंडा है। लेकिन यह बिल्कुल अलग विषय है, जिस पर एक अलग लेख लिखने की जरूरत होगी। फिलहाल तो जो विषय मेरे दिमाग में 16 मई के बाद से लगातार घूम रहा है, वह दूसरा है। मैं तमाम राजनीतिक पंडितों की विश्लेषणात्मक क्षमता का सम्मान करते हुए थोड़ी देर के लिए यह मान लेता हूं कि कांग्रेस की यह जीत दरअसल विकास की राजनीति की जीत है। विकास यानी अर्थव्यवस्था की मजबूती, बुनियादी ढांचे का प्रसार, शिक्षा का विस्तार, स्वास्थ्य सुविधाओं तक ज्यादा से ज्यादा जनता की पहुंच और ऐसे ही तमाम दूसरे मानक। लेकिन सवाल यह है कि विकास के ये तमाम मानक किसके लिए हैं? क्या किसी खास समुदाय या वर्ग के लिए किया गया विकास में पूरे देश की भागीदारी मानी जा सकती है। पिछले साल 110 करोड़ लोगों के प्रधानमंत्री ने एक बयान दिया था, जिसकी चर्चा कम की गई (पता नहीं क्यों?), कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। चुनाव की तैयारी में दिए गए अपने इस बयान को प्रधानमंत्री ने चुनाव प्रचार के दौरान दिए गए अपने भाषणों में भी दुहराया। बात केवल भाषणबाजी तक ही सीमित नहीं रही। पिछले साल के बजट में बाकायदा इस बात के प्रावधान किए गए कि बैंकों द्वारा बांटे जाने वाले कर्ज में अल्पसंख्यकों (यानी मुसलमान) का प्राथमिकता दी जाए। यहां तक कि वित्त मंत्री ने बैंकरों के साथ अपनी बैठक में भी बार-बार इस बात के लिए दबाव बनाया कि देश के तमाम नागरिकों से लिए गए जमा से बांटे जाने वाले कर्ज में एक खास हिस्सा मुसलमानों के लिए सुरक्षित हो। यानी अगर कोई मुसलमान उस खास आरक्षित हिस्से के लिए लोन एप्लिकेशन न दे, तो वह बैंक के पास ही पड़ा रहे, लेकिन किसी दूसरे जरूरतमंद को न दिया जाए।
अगर कांग्रेस के विकास की यही परिभाषा है, तो मुझे यह विकास नहीं चाहिए। मुझे लगता है कि पूरे देश को यह विकास नहीं चाहिए। देश ने अगर कांग्रेस को चुनाव जितवाया है, तो इसलिए नहीं कि उसे विकास का यह मॉ़डल पसंद है, बल्कि इसलिए कि विपक्षी दल भाजपा देश को इस कांग्रेसी विकास के मायने बता पाने में पूरी तरह नाकाम रही है। विदर्भ में कर्ज के बोझ से आत्महत्या कर रहे किसान को केवल इसलिए बैंकों के कर्ज का पहला अधिकारी नहीं माना जाएगा, क्योंकि वह एक खास पूजा पद्धति को नहीं मानते या किसी खास पवित्र किताब की इबादत नहीं करते। क्या हम सचमुच एक पंथनिरपेक्ष देश में रह रहे हैं? और अगर सचमुच हमें किसी भी कीमत पर विकास चाहिए, तो हम ओबामा को ही अपना राष्ट्रपति क्यों नहीं घोषित कर देते? क्या किसी हाइवे के निर्माण में यह शर्त लगाई जा सकती है कि इस पर से गुजरने वाली पहली 500 गाड़ियां किसी खास सम्प्रदाय की होंगी या किसी फ्लाईओवर पर चढ़ने वाली पहली 50 कारें उन्हीं लोगों की होंगी, जो एक खास मजहब में यकीन रखते हों। यह विकास का कैसा मॉ़डल है? क्या कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए को मिला जनादेश इस मॉडल के समर्थन में है। मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने की 'धर्मनिरपेक्ष' कोशिशों को स्वयं सुप्रीम कोर्ट ख़ारिज़ कर चुका है। इसके बावजूद इस विश्वविद्यालय को यह सुविधाएं जारी हैं। निजी शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की देशव्यापी नीति से मुस्लिम संस्थानों को छूट दी गई है। मदरसों की पढ़ाई को सीबीएसई के समतुल्य होने का दर्जा दिया जा चुका है। यह विकास का कौन सा मॉडल है, कोई मुझे समझाए। आप देश के मुसलमानों को यह संदेश दे रहे हैं कि आपको देश की मुख्यधारा में शामिल होने की कोई जरूरत नहीं है, आप जहां हैं, जड़ बुद्धि से वहीं जमे रहिए, हम आपकी धारा को ही मुख्यधारा बना देंगे। फिर भी वे कहते हैं कि आपकी जीत विकास की जीत है। माफ कीजिए, आपकी जीत विकास की जीत नहीं, नपुंसक विपक्ष की हार है। मैं इस देश में तमाम सुविधाओं से केवल इसलिए वंचित किया जा रहा हूं क्योंकि मेरा नाम भुवन भास्कर है, मैं मंदिर जाता हूं, रामायण और गीता में आस्था रखता हूं, राम और कृष्ण में श्रद्धा रखता हूं। उस पर तुर्रा यह कि यह सब इस देश की धर्मनिरपेक्ष परंपरा को अक्षुण्ण रखने के लिए किया जा रहा है। इसलिए मेरा साफ मत है कि कांग्रेस की यह जीत विकास की नहीं, बल्कि आम जनता की
उदासीनता और जानकारियों के अभाव की जीत है।
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4 हफ़्ते पहले